जम्मू-कश्मीर सरकार का जाना ही प्रदेश एवं देश के हित में
सामान्यत: किसी प्रदेश में राज्यपाल शासन लागू होता है तो उस पर आने वाली राजनीतिक प्रतिक्रियाएं काफी तीखी होती हैं। जम्मू कश्मीर में राज्यपाल शासन लागू हो गया किंतु उस तरह की तीखी प्रतिक्रियाएं हमें सुनने को नहीं मिल रही हैं जिसके हम अभ्यस्त हो चुके हैं। नरेन्द्र मोदी सरकार की विरोधी आलोचना तो कर रहे हैं लेकिन उसमें लगभग यह स्वर गायब है कि राज्यपाल शासन लगाकर केन्द्र ने लोकतंत्र का गला घोंटा है। इस पहलू पर विचार करते समय हमें जम्मू कश्मीर की चिंताजनक स्थिति को नहीं भूलना चाहिए। मेहबूबा मुफ्ती ने 4 अप्रैल 2016 को मुख्यमंत्री का पद संभाला था एवं वह पीडीपी भाजपा गठबंधन सरकार का नेतृत्व कर रहीं थी। उसके पहले उनके पिता स्व. मुफ्ती मोहम्मद सईद के नेतृत्व में 1 मार्च 2015 से दोनों पार्टियों की मिलीजुली सरकार थी। इस सरकार को यदि जाना पड़ा है तो इसके कुछ निश्चित और वाजिब कारण हैं। जम्मू कश्मीर की मूल समस्या मजहबी विचारधारा पर आधारित आतंकवाद और अलगाववाद है।
यानी जो पार्टी सत्ता में आती है उसकी यह जिम्मेवारी थी कि वह हर हाल में प्रदेश को हिंसा और भय से मुक्त करे, अलगाववादियों को कमजोर करे। जो चुनाव परिणाम थे उसमें कोई सरकार बन सकती थी तो भाजपा एवं पीडीपी की ही। किंतु पीडीपी के हाथों नेतृत्व होने के कारण यह सरकार मुख्य जिम्मेवारी को प्राथमिकता में लेकर काम करने पर फोकस नहीं कर सकी। चाहे वह मुफ्ती सईद हों या मेहबूबा मुफ्ती। भाजपा ने चुनाव में जम्मू और लद्दाख की अब तक हुई अनदेखी का भी मुद्दा उठाया था। सरकार में भाजपा शामिल थी तो इन दोनों क्षेत्रों के साथ समान व्यवहार होना चाहिए था। यह भी पूरी तरह नहीं हो पा रहा था। भाजपा चाहती थी कि आतंकवादियों एवं अलगाववादियों के साथ कड़ाई से पेश आया जाए जबकि दोनों पिता पुत्री इनके साथ नरम व्यवहार के पक्षधर थे। केन्द्र की अनुमति से सेना ने आतंकवादियों के विरुद्ध आॅपरेशन आॅल आउट आरंभ किया और यह लगातार सफलता पा रही थी, पर मेहबूबा को यह स्वीकार नहीं था। 8 जुलाई 2016 को आतंकवादी बुरहान वानी की मुठभेड़ में मौत आतंकवाद विरोधी लड़ाई की बड़ी सफलता थी लेकिन मेहबूबा के लिए उसका मारा जाना गलत कदम था। सेना को शाबाशी देने की जगह परोक्ष तौर पर उन्होने सेना को इसके लिए दोषी ठहराया।
कुल मिलाकर कहने का तात्पर्य यह कि सरकार में साथ होते हुए भी पीडीपी राष्ट्र की भावना तथा जम्मू कश्मीर से आतंकवाद एवं अलगाववाद के साथ संघर्ष करने की नीति में साथ नहीं थी। इस समय सरकार गिरने का तात्कालिक कारण यही मतभेद बना है। केन्द्र ने मेहबूबा का आग्रह मानकर रमजान के महीने में सैन्य कार्रवाई को निलंबित करने का फैसला किया। इस एक महीने का अनुभव अत्यंत बुरा आया। हालांकि आतंकवादी हमलों का तो सुरक्षा बलोें ने जवाब दिया और आतंकवादी मारे भी गए। आतंकवादियों के हमलों से साफ था कि उन्हें स्वयं अपने रमजान की भावना से कोई लेना-देना नहीं था। इसमें एक बड़े पत्रकार की इफ्तार के लिए जाते समय श्रीनगर के बीच चौराहे पर हत्या कर दी गई। मेहबूबा ने वहां दुख व्यक्त तो किया, लेकिन इतना भी बोलने का साहस नहीं किया कि जो भी इस हत्या में शामिल है उसे उसके किए की सजा दी जाएगी। उसी दिन अपने घर ईद मनाने जा रहे जम्मू के फौजी औरंगजेब की आतंकवादियों ने अपहरण करके हत्या कर दी लेकिन मुख्यमंत्री ने कोई कड़ा वक्तव्य नहीं दिया। मेहबूबा का मत था कि सैन्य कार्रवाई का निलंबन जिसे सामान्यत: संघर्ष विराम कहा गया जारी रहे। इसे स्वीकार करना मुश्किल था। यह स्पष्ट हो गया कि मेहबूबा इसे मुद्दा बनाकर कुछ समय बाद स्वयं इस्तीफा देंगी। भाजपा के लिए मेहबूबा को इसका अवसर देना राजनीतिक रुप से आत्मघात जैसा होता। इसलिए 19 जून को कुछ घंटे में सरकार से अलग होने का फैसला हो गया तथा राज्यपाल को पत्र भी सौंप दिया गया।
इस तरह देखें तो भाजपा का सरकार से अलग होना बिल्कुल वाजिब मुद्दे पर हुआ है। पूरा देश चाहता है कि कश्मीर में अलगाववाद, आतंकवाद एवं पत्थरबाजी के साथ सख्ती से निपटा जाए उनको कुचला जाए। हां, जो अपनी भूल स्वीकार कर मुख्यधारा में आना चाहते हैं उनको स्वीकार करने में समस्या नहीं है। आॅपरेशन आॅल आउट में कार्रवाई के साथ आतंकवाद की दिशा में चले गए नवजवानों को वापस बुलाकर उनके परिवार से मिलाने का कार्यक्रम भी शामिल था। ऐसे कई नवजवानों को सेना और पुलिस ने वापस लाकर परिवार को सौंपा भी है। किंतु जो युद्ध करने की उन्माद से ग्रस्त होकर आया है उसका उपचार तो मुठभेड़ ही हो सकता है। कश्मीर में आतंकवादियों, पत्थरबाजों के अंदर यह भाव घर करा दिया गया है कि आप इस्लाम के लिए लड़ रहे हो, अल्लाह आपके साथ है, आपका लक्ष्य कश्मीर को एक इस्लामी राज्य में तब्दील करना है। इस्लामीकरण का खतरनाक पहलू जम्मू कश्मीर के आतंकवाद को वैश्विक जेहादी आतंकवाद का भाग बना देता है। ऐसे तत्वों के साथ कोई राज्य अगर नरम व्यवहार करता है तो उसका अर्थ है कि वो उसके मकसद एवं लड़ाई के साथ है।
इसमें यदि भाजपा सरकार से अलग होकर राज्यपाल शासन लागू करने एवं सुरक्षा बलों को कार्रवाई के लिए स्वतंत्रता नहीं देती तो न यह कश्मीर के हित में होता न देश के और न स्वयं उसकी राजनीति के लिए ही अनुकूल होता। सीमा पर पूरी चौकसी हो रही है ताकि आतंकवादियों की घुसपैठ को या तो रोक दिया जाए या न्यूनतम कर दिया जाए, अंदर शिकारी की तरह आतंकवादियों का शिकार किया जाए, उनके रास्ते आने वाले पत्थरबाजों को भी कानून के शिकंजे में लाया जाए तथा अलगाववादियों को जितना कमजोर किया जा सकता है किया जाए। आतंक एवं अलगाववाद के विरुद्ध ये चार स्तरीय रणनीति जितनी कारगर होगी जम्मू कश्मीर और देश का उतना ही भला होगा। मेहबूबा ने अपने इस्तीफा के बाद पत्रकार वार्ता में कहा कि कश्मीर में बल प्रयोग की नीति नहीं चल सकती। उन्होंने अपनी सरकार की जो उपलब्धियां बताईं उनमें शांति व्यवस्था कायम करने की कोशिशों की बात नहीं है। वो कह रहीं थी कि हमने 11 हजार पत्थरबाजों से मुकदमे वापस लिए, संघर्ष विराम करवाया, 370 को बचाया, पाकिस्तान के साथ भारत की वार्ता करवाई.....। आतंकवादियों के विरुद्ध कार्रवाई उनकी सरकार की उपलब्धि नहीं है।
मेहबूबा ने अपनी नीतियों से भाजपा को राजनीतिक रुप से भी खत्म करने की स्थिति में लाने की कोशिश की। उदाहरण के लिए कठुआ में एक अवयस्क बालिका के साथ दुष्कर्म और हत्या के मामले को जिस तरह उन्होंने कश्मीर की अपराध शाखा से जांच करवाकर मजहबी रंग दे दिया उसका पूरे जम्मू में गलत संदेश गया। भाजपा के दो मंत्रियों ने सरकार से इस्तीफा दे दिया। पूरे जम्मू में यह संदेश गया कि अपराध शाखा जानबूझकर मंदिर में घटना को घटित होना साबित करके हमें बदनाम कर रही है, गलत तरीके से हिन्दुओं को फंसा रही है...और भाजपा मूक दर्शक बनी हुई है। इस मामले से पूरे जम्मू में आक्रोश पैदा किया एवं भाजपा के विरुद्ध वातावरण बना। मेहबूबा ने पत्थरबाजों से मुकदमे वापस ले लिए, आसिया अंद्राबी जैसी पाकिस्तान का झंडा लेकर भारत के खिलाफ आग उगलने वाली को बचाए रखा लेकिन श्री अमरनाथ जमीन के लिए संघर्ष करने वाले युवाओं पर से भाजपा की लगातार मांग के बावजूद मुकदमे नहीं हटाए। भाजपा रोहिंग्याओं के खिलाफ थी, मेहबूबा उनके साथ खड़ी थी। उन्होंने एक भी आतंकवादी या अलगाववादी या पत्थरबाज के खिलाफ मुकदमे में सक्रियता नहीं दिखाई लेकिन सेना के जवानों के खिलाफ मुकदमे दर्ज करवाने मेंं आगे रहीं। यही नहीं केन्द्र ने जितने पैकेज दिए उसमें जम्मू और लद्दाख को उसका जितना हिस्सा विकास में मिलना चाहिए नहीं मिल पाया। भाजपा को विधानसभा में सभी 25 सीटें जम्मू से ही मिलीं थीं। लोकसभा में जम्मू की दोनों सीटें तथा लद्दाख वाली एक सीट भी उसके खाते ही गई थी। इन दोनों क्षेत्रों के लोगों के अंदर असंतोष का अर्थ भाजपा का आगामी लोकसभा एवं विधानसभा चुनाव में खत्म हो जाना था। अपने राजनीतिक आधार को बचाने के लिए भी भाजपा का पीडीपी से अलग होना आवश्यक था। साथ ही देश में भी यह संदेश जा रहा था कि भाजपा ने सत्ता के लिए गठजोड़ कर कश्मीर के हित को हाशिए में डाल दिया है। इससे देश स्तर पर भाजपा को राजनीतिक तौर पर नुकसान होने का खतरा बढ़ रहा था। तो अब उसके पास अवसर है कि राज्यपाल शासन का लाभ उठाते हुए वह आतंकवाद पर काबू करके देश का विश्वास जीते। विकास की नीतियों से जम्मू, लद्दाख को लाभ पहुंचाकर एवं कश्मीर को भी उसका उचित हिस्सा देकर वहां के जो निर्दोष लोग हैं उनके दिलों को भी स्पर्श करे। वहां के नवजवानों को शिक्षा एवं रोजगार के अवसर उपलब्ध कराकर एक नए दौर की शरुआत करे।
( लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं )