जाते–जाते, वर्माजी कह गये : कबिरा रसरी पाँव में, कहै सोवैं सुख चैन
वेबडेस्क। वर्माजी ने पहली ही परिचयात्मक भेंट में मेरे लेखों की बात छेड़ दी, तो मैं थोड़ा–सा सजग और कुछ–कुछ असहज हो गया – "पता नहीं कि क्या–कुछ सुन रखा है?" आप जानते हैं – हम लोग अत्यन्त द्रुत गति से बदलते समय में तथा अत्यन्त अविश्वसनीय लोगों से घिरते जा रहे हैं। किसी भी व्यक्ति के पहुँचने से पहले उसके सम्बन्ध में बातें पहुँच जाती हैं। बातें, किसिम–किसिम की बातें। किसिम–किसिम के लोगों द्वारा सुनायी–फैलायी हुई किसिम–किसिम की बातें। इसलिए, इधर कोई कहता है कि “आपके बारे में बहुत सुना है।” तो, सहज ही मन–मस्तिष्क थोड़ा–सा सजग हो जाता है। सजग के साथ–साथ, मैं कुछ–कुछ असहज हो जाता हूँ। किसी के साथ पहली ही भेंट में खुल कर बोलने वा हँसने से न जाने क्या समाचार बनेगा, कहना कठिन होता जा रहा है। तो, मैं बहुत कम ही बोलता हूँ। प्रायः मौन वा मुस्कान ही पर्याप्त प्रतीत होती है। इसलिए, मैंने वर्माजी से थोड़ी ही बात की और कहा कि “मैं लेख अवश्य दूँगा।”
फिर, बहुत दिन बीते, मैंने अपनी ओर से कोई लेख नहीं भेजा। यद्यपि वर्माजी के साथ संवाद से प्रतीत हुआ कि वे अध्ययनशील व्यक्ति हैं, और उनमें भाषा एवम् साहित्य की बेहतर समझ है, किन्तु स्वभाववश मैं बहुत खुला नहीं। और, कोई लेख भेजा नहीं। फिर, वर्माजी दो–चार बार कार्यालय के बाहर ही मिले और कहा कि “आपने अभी तक कोई लेख दिया नहीं।” फिर, स्मरण कराते हुए बोले – "जब भी दीजिये, तो प्रिण्ट में ही दीजियेगा।" अन्ततः एक दिन मैंने सोचा कि देखिये कि क्या–कुछ सुझाव आते हैं। अनुभवी एवम् अध्ययनशील व्यक्ति से कुछ–न–कुछ अच्छा ही प्राप्त होगा। कुछ न होगा, तो आलोचना ही होगी। और, आलोचना की ओर झुकाव रखने वाले व्यक्ति को अप्रिय बातें भी सुनने का अभ्यास होना चाहिये। मैंने ‘स्वदेश’ में प्रकाशित दो लेख ‘अंग्रेज़ी हथियार और हत्यारे : अपनैं देसा कुसङ्ग आहि बदेसा’ एवम् ‘भारत में लॉर्ड मैकाले का प्रेत : साँस लेत बिनु प्राण’, अप्रिय बातें सुनने के लिए स्वयम् को तैयार करने के विचार से, प्रिण्ट करके भेज दिये।
लेख वर्माजी के पास गये और वर्माजी के साथ शाम को लौट आये। मैं प्रश्नाङ्कित नेत्रों से उन्हें देख रहा था। उन्होंने कहा – "ऐसे कुछ कहना प्रशंसात्मक लगेगा। इसलिए इतना ही कहूँगा कि आपकी लेखनी सबको जगाती रहे। हिन्दी के लिए चिन्ता करने वाले सक्रिय चिन्तनशील लोगों की कमी के दौर में आप मिले हैं। बाकी, मुझे जो कहना था, मैंने लिख दिया है। प्रशंसात्मक कुछ भी नहीं है, क्योङ्कि मुझे अब इस उम्र में कुछ पा जाने की इच्छा नहीं है। जब थी उम्र, तब भी क्या पाया मैंने!"
मैंने नमस्कार किया और लेखों की प्रतियाँ वापस लेते ही उलट–पलटकर देखा, तो कुछ स्थानों पर वर्तनी सुधार, तो कहीं कुछ–कुछ सुझाव थे। और, एक लेख के अन्त में लिखा था – "अद्भुत एवं अनुकरणीय विचारों को लिपिबद्ध करने के लिए साधुवाद। आज का भारत निश्चय ही विश्वगुरु है। सधन्यवाद।" और, दूसरे लेख के अन्त में लिखा था – "एक बेहद तेजस्वी, ओजस्वी आलेख जो देश की आत्मा को दर्शाता है। अनायास प्रसादजी की कुछ पंक्तियाँ याद आती हैं : "हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर बैठ शिला की शीतल छाँह। एक पुरुष भीगे नयनों से देख रहा था प्रलय–प्रवाह।" – अंग्रेजी का प्रवाह हमें लील जाए उसके पहले सचेत होना जरूरी है… एक भावपूर्ण, तर्कपूर्ण, विचारपूर्ण चिंतन के लिए बेहद धन्यवाद! भारतमाता आपको इसी तरह पुत्र मानकर देशात्मा का उत्थान करें।" मैं वर्माजी की टिप्पणियाँ पढ़ कर गदगद था और लिखावट व वर्तनी सुधार देख कर आश्चर्यचकित। उस दिन मेरा, वर्तनी शुद्धता वा एकाग्रता का भ्रम टूटा, सो अलग।
फिर तो, वर्माजी से प्रायः दो–चार दिनों में एक–दो बार शाम के समय भेंट और साहित्यिक चर्चा होती, किन्तु उन्होंने स्वयम् कभी भी न तो अपने पिता का नाम बताया, न उनका यशोगान ही किया। कालान्तर में, ज्ञात हुआ कि वर्माजी 'चौथे तारसप्तक' के कवि श्रीराम वर्मा के पुत्र हैं। मैं सोचता रह गया कि लोग अपने नाना, मामा और न जाने किस–किस का सन्दर्भ देकर स्वयम् को ‘बड़ा वा बड़भागी’ बताते हैं। और, एक हमारे वर्माजी हैं, जो अपने पिता के नाम व यश को ही भुनाने से बचते हैं। अपनी विरासत पर ऐसा चुप्पा आदमी मैंने पहली बार देखा, किन्तु यह बिरलापन उन्हें अतिविशिष्ट बना गया।
फरवरी माह में किसी दिन प्रातः समय वर्माजी मेरे पास चले आये। मैं बैठक में व्यस्त था। बोले – “आपसे कुछ ज़रूरी और वैयक्तिक बात करनी थी। तो, बाद में आता हूँ।” फिर तो, वर्माजी कभी लौटे ही नहीं। ‘पुस्तक वार्ता’ का सम्पादन भार मिलने के बाद, 22 फरवरी को मैंने फोन किया, तो बोले, “तबियत गड़बड़ है, सर। छुट्टी पर हूँ। आप कहेङ्गे, तो आपके लिए घर से ही काम कर दूँगा। बस, आपको घर पर प्रिण्ट पहुँचाना होगा।” लगभग 6 मिनट की बातचीत थी। वे चिन्तित दीखे। मैंने कहा – “आप कुछ कहने आये थे। क्या बात है?” तो बोले, “आऊँगा, तो बताऊँगा, सर।” और, परसों वर्माजी का शव ही आया। अस्पताल में भर्ती हुए, तो समाचार पाकर मैं दौड़ गया। उनकी स्थिति देख कर बहुत पीड़ा हुई। लघुमानव की लघु देह सिकुड़ कर बेड पर पड़ी थी। मुँह में, हाथ में जगह–जगह नलियाँ लगी पड़ी थीं। फिर, ठीक होने के समाचार आते रहे। सोचा कि जो भी था टल गया। और, परसों उनका शव देख कर मनस्ताप हुआ कि काश! मैं उनकी वैयक्तिक बात सुन पाता। कहते हैं, बातों में औषधि का प्रभाव होता है। क्या पता, मुझसे बात करके वे बेहतर हो जाते और बच ही जाते। साही के शब्दों में वर्माजी के प्रति यह मेरी ‘अन्तहीन सहानुभूति’ है। वर्माजी की मृत देह देख कर कबीर चित्त एवम् वेदनामय वाणी स्मरण हो आयी – “हाड़ जरै ज्यों लाकड़ी, केस जरै ज्यों घास।” अन्ततः वर्माजी परमात्मा रूपी महासमुद्र में विलीन हो गये। और, मुझमें अनकही का अधूरापन छोड़ गये, जो अब कभी पूर्ण न हो सकेगा। नहीं भूलना चाहिए कि सबको आगे–न–पीछे जाना ही है। जीवन और घटनाएँ प्रायः व्यर्थ के कुचक्र रचती हैं। कुचक्रों से बचने–बचाने के प्रयास से ही मनुष्य की मानवीयता सिद्ध होती है। कबीर बाबा ने सचेत करते हुए कहा है -- "कबिरा रसरी पाँव में, कहै सोवैं सुख चैन। स्वास नकारा कूञ्च का, बाजत है दिन रैन।।" आप जानिये कि स्थायी कुछ भी नहीं है। सबकुछ अस्थायी है – "आया है सो जायेगा, राजा रङ्क फकीर। एक सिंहासन चढ़ि चलै, एक बन्धै जंजीर।।" और, वर्माजी जीवन की जंजीरों को तोड़ कर चले गये।
(लेखक म.गां.अं.हिं.वि.वि., वर्धा–महाराष्ट्र में दूर शिक्षा निदेशालय के निदेशक हैं।)