समाज और गौरक्षा के प्रणेता लाला हरदेव सहाय
भारत के स्वतंत्रता संग्राम में कुछ सेनानी ऐसे भी हैं जो स्वतंत्रता संग्राम में जितने सहभागी बने उससे कई गुणा कार्य स्वाभिमान जागरण और स्वत्व बोध जागरण के लिये किया। लाला हरदेव सहाय ऐसे ही स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे जिनका पूरा जीवन निशक्त जनों और गौरक्षा एवं सेवा में बीता।
ऐसे संत प्रकृति, समाज सेवी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी लाला हरदेव सहाय का जन्म 26 नवम्बर 1892 को हरियाणा प्राँत के हिसार जिला के अंतर्गत ग्राम सातरोड़ में हुआ था। उनके पिता लाला मुसद्दीलाल उस पूरे इलाके के सबसे समृद्ध साहूकार थे जिनका ब्याज पर धन देने और अनाज का कारोबार था। पर घर में भारतीय संस्कृति, परंपरा और संस्कृत का वातावरण था। परिवार आर्यसमाज से जुड़ा था। घर में संतों का आना जाना भी था। उनमें स्वामी श्रृद्धानंद जी प्रमुख थे। इसलिए हरदेव जी को बालपन से ही संस्कृत, वेद, उपनिषद, पुराण आदि भारतीय परंपरा के ग्रन्थों के अध्ययन का अवसर मिला। प्रारंभिक शिक्षा हिसार में हुई और आगे पढ़ने के लिये काशी गये। यहाँ उनका संपर्क पंडित मदनमोहन मालवीय से बढ़ा। उन पर स्वामी श्रृद्धानंद जी द्वारा सनातन परंपरा के प्रति जन सामान्य में जाग्रति उत्पन्न करने का बहुत प्रभाव था। लगभग इसी दिशा में उन्होंने पंडित मदनमोहन मालवीय को काम करते देखा। उन्हें काम करने की एक दिशा मिली। बनारस से लौटे तो दो संकल्प उनके मन में थे। एक मातृभाषा में शिक्षा का प्रबंध और दूसरा भारत को परतंत्रता से मुक्त कराने के संघर्ष में सहभागी बनना। उन्होंने विद्या प्रचारणी नामक संस्था का गठन किया और अपने गाँव में हिन्दी और संस्कृत का विद्यालय खोला। 1921 में असहयोग आंदोलन आरंभ हुआ। वे कांग्रेस के सदस्य बने और उन्होंने इस आँदोलन में हिस्सा लिया और हिसार में बंदी बनाये गये। तीन माह जेल में रहे। लौटकर पुन: समाज सेवा में लग गये। वे अति सेवाभावी और करुणामय भावों से भरे थे। उन्होंने आसपास के गाँवों में हिन्दी संस्कृत के विद्यालय आरंभ किये। उन्हीं दिनों कोई बीमारी फैली जिससे न केवल पशु पक्षी अपितु मनुष्य पर भी मानों मृत्यु अपना शिकंजा कस रही थी । उन्होंने इस असहाय स्थिति से मुक्ति के लिये उपचार आदि का प्रबंध किया और गरीब किसानों को ऋण मुक्ति की घोषणा कर दी और उनके पास गिरवी रखी जमीन लौटा दी। निर्धन किसानों की सहायता और विद्यालय खोलने के लिये अन्य व्यवसायियों को भी तैयार किया और 1938 तक उनके द्वारा आरंभ विद्या प्रचारणी सभा द्वारा संचालित विद्यालयों की संख्या 64 हो गई थी। ये सभी विद्यालय हिन्दी और संस्कृत में संचालित होते थे। अनेक विद्यार्थियों को आगे पढ़ने के लिये काशी जाने में भी सहायता की ।
1939 में हिसार क्षेत्र में भीषण अकाल पड़ा। भूख ने मानों पशु पक्षी और मनुष्य दोनों को जकड़ लिया । भूख से मौते होने लगीं। ऐसे विषम समय में लाला जी ने अपने अन्न भंडार खोल दिये और पूरे क्षेत्र में गायों के लिये के चारे पानी का प्रबंध किया। यह काम उन्होंने न केवल अपने गाँव और आसपास अपितु पूरे जिले में किया। अकाल की इस विभीषिका ने उन्हें गौसेवक भी बना दिया था । उन्होंने कर्मशील महिलाओं के लिए सूत कताई केन्द्र खोलने में सहायता की ताकि इस विषम परिस्थिति में कुछ आय की व्यवस्था हो सके। अकाल पीड़ितों की सेवा और समाज की शैक्षणिक और आर्थिक उन्नति के कार्य में लगे रहने के साथ 1942 के अंग्रेजों भारत छोड़ो आँदोलन में हिस्सा लिया और जेल गये। जेल से लौटकर वे शिक्षा के प्रसार और गौसेवा के काम में लग गये। स्वतंत्रता की पृष्ठभूमि में हुये भारत विभाजन की विभीषिका में आने वाले शरणार्थियों की सेवा सहायता में जुटे। उन्हें आशा थी कि स्वतंत्रता के बाद गौहत्या पर प्रतिबंध लगेगा । पर ऐसा न हो सका। अपितु स्वतंत्रता के बाद जैसे ही हिसार बूचड़खाने खुलने की घोषणा हुई। उन्होंने इसका विरोध किया और प्रधानमंत्री नेहरू जी से भेंट की पर बात न बनी तो उन्होंने कांग्रेस छोड़ दी। और 'भारत सेवक समाजÓ से जुड़कर गोसेवा का कार्य आगे बढ़ाया। 1954 में उनका सम्पर्क सन्त प्रभुदत्त ब्रह्मचारीजी और करपात्री जी महाराज से हुआ। और गौरक्षा आँदोलन से जुड़ गये। और देशव्यापी जन जागरण अभियान आरंभ किया। 1955 में प्रयाग में आयोजित कुम्भ में 'गोहत्या निरोध समितिÓ का गठन हुआ।
समाज और गाय की सेवा में अपना जीवन समर्पित करने वाले गृहस्थ संत लाला हरदेव सहाय की निधन 30 सितम्बर, 1962 को हुआ। उनका प्रिय वाक्य 'गाय मरी तो बचता कौन, गाय बची तो मरता कौनÓ आज भी प्रासंगिक है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)