दीपक संस्कृति की विविधता में एकता
ऊं सच्चिदानन्दरूपाय नमोस्तु परमात्मने।
ज्योतिर्मयस्वरूपाय विश्वमांगल्यमूर्तये।।
मनुश्य ने प्रकाशमान स्वरूप वाले विश्व कल्याण मूर्तिमान के रूप में सच्चिदानन्द अर्थात सद्, चित्त और आनंदमयी परमात्मा की कल्पना की है। इस परिप्रेक्ष्य में ऋग्वेद की ऋचाओं में विश्वव्यापी ब्रह्मांड को एक महामानव अर्थात विराट पुरुष माना गया है। इस विराट पुरुष का नेत्र सूर्य है, मन चंद्रमा और उसके कान एवं प्राण वायु है। इसका मुख अग्नि, नाभि अंतरिक्ष, मस्तक द्युलोक और इसके पैर पृथ्वी हैं। इसी अलोकित ब्रह्मांडीय पुरुष से मानव समुदायों का निर्माण माना गया है। अब आधुनिक वैज्ञानिक भी मानने लगे हैं कि ब्रह्मांड के स्वरूप में जो भी कुछ है, उसी का लघु रूप मनुष्य के शरीर और मस्तक में है। इसीलिए मनुष्य ने अनवरत प्रकाशित रहने वाली ऐसी मूर्ति की कल्पना की है, जो मानव कल्याण के लिए प्रकाशमान बनी रहे। हजारों साल से भारत में प्रकाश पर्व के रूप में दीपावली मनाई जा रही है। इस लंबे काल खंड में भारत पर अनेक आक्रमण हुए। तलवार के बूते धर्म और संस्कृति बदलने के उपक्रम किए गए, लेकिन दीपावली के पर्व को रोशन करने वाली दीप संस्कृति इन बदलावों से अछूती रहती हुई आज भी भारत के सांस्कृतिक वैभव को प्रकाशित कर रही है। जिन सांस्कृतिक धरोहरों को आक्रांताओं ने खंडित करके उनके वैभव को हर लिया था, उन धरोहरों अयोध्या के राम मंदिर, वाराणसी के काशी विश्वनाथ और उज्जैन के महाकाल का सांस्कृतिक वैभव लाखों दीपकों के प्रकाश से फिर उज्ज्वल हो उठा है। कालांतर में इस प्रकाश के विस्तार की किरण कृष्ण जन्मभूमि को भी आलोकित करने वाली है। अतएव इस दीप पर्व पर दीपकों की विपरीत समय में भी अक्षुण्ण बनी रही संस्कृति और उसके महत्व को जानते हैं।
दीपावली प्रकाश पर्व है। यानी अंधकार पर प्रकाश की विजय का पर्व है। आदिकाल से चली आ रही सांस्कृतिक यात्रा का यह त्योहार सामाजिक जीवन में प्रसन्नता, समरसता और मंगल का प्रतीक है। इस कालखण्ड में मानव ने मिट्टी, पत्थर, काठ, मोम और धातुओं के स्वरूप में हजारों तरह के शिल्प में दीपक गढ़े हैं। शुरूआत में दीवाली की मुख्य भावना दीप दान से जुड़़ी थी। प्रकाश के इस दान को पुण्य का सबसे बड़ा कर्म माना जाता था। दीपों के कलात्मक आकार में मनुष्य की कल्पना व संवेदनशील उंगलियों का इतिहास भी अंकित है। इस जगत में जीवन जीने के लिए प्रत्येक प्राणी को उजाले की जरूरत पड़़ती है। बिना उजाले के वह कोई कार्य सुरुचिपूर्ण ढंग से संपन्न नहीं कर पाता है। वैसे तो सबसे अधिक महत्वपूर्ण व उपयोगी प्रकाश सूर्य का है। इसके प्रकाश में ही अन्य सभी प्रकार के प्रकाश समाविष्ट रहते हैं। इसीलिए दीवाली को प्रकाश का पर्व कहा जाता है। कहा भी गया है, शुभं करोति कल्याण आरोग्यं सुख संपदम्। शत्रु बुद्धि विनाशं च दीपज्योति: नमोस्तुते।।
शुरूआती दौर में सीपियों का दीपक के रूप में उपयोग किया जाता था। इसके बाद पत्थर और काठ के दीपक अस्तित्व में आए। धातुओं की खोज और उन्हें मनुष्य के लिए उपयोगी बनाए जाने के बाद बड़े लोगों के घरों व महलों की शोभा धातु के दिए बनने लगे। जो वैभव का प्रतीक भी थे। स्वर्ण, कांसा, तांबा, पीतल और लोहे के दीयों का प्रचलन शुरू हुआ। इसमें पीतल के दीपकों को बेहद लोकप्रियता मिली। रामायण और महाभारत में भी 'रत्नदीपोंÓ का उल्लेख देखने को मिलता है।
कालांतर में एकमुखी से बहुमुखी दीपक बनाए जाने लगे। इनकी मूठ भी कलात्मक और पकड़ने में सुविधा जनक बनायी जाने लगी। सत्रह-अठारहवीं सदी में दीपकों को अनेक प्रकार के पशु-पक्षियों व अप्सराओं के रूप में ढाला जाने लगा। इस समय 'मयूरा धूप दीपकÓ का चलन खूब था। इसकी आकृति नाचते हुए मोर की तरह होती है। इसके पंजों के ऊपर बत्ती रखने के लिए पांच कटोरे बने होते हैं। मोर के ऊपर बने छेदों में अगरबत्तियां लगाई जाती हैं। राजे-रजवाड़े के कालखंड में छत से लटके दीपों का प्रचलन खूब था। ये परी, पशु, पक्षी और देवी-देवताओं की आकृतियों से सजे रहते थे। कालांतर में दीपकों में नायाब परिवर्तन आए। इस समय गोल लटकने वाले कलात्मक दीपक ज्यादा संख्या में बने इसके अलावा आठ कोनों वाले, गुम्बदाकार व ऐसे ही अन्य प्रकार के दीपक बनाए जाने लगे। इन दीपकों में से रोशनी बाहर झांकती थी।
जब दीपक सैकड़़ों आकार-प्रकारों में सामने आ गए तो इनकी सुचारू रूप से उपयोगिता के लिए 'दीपशास्त्रÓ भी लिख दिया गया। जिसमें दीपक जलाने के लिए गाय के घी को सबसे ज्यादा उपयोगी बताया गया। घी के विकल्प के रूप में सरसों के तेल का विकल्प दिया गया। कपास से कई प्रकार की बत्तियां बनाने के तरीके भी दीपशास्त्र में सुझाए गए हैं। दीपावली पर देश में घी और सरसों के तेल से ही दीपक प्रज्ज्वलित किए जाते हंै। बहरहाल वर्तमान में भले ही दीपकों का स्थान मोमबत्ती और विद्युत बल्वों ने ले लिया हो, लेकिन प्रकृति से आत्मा का तादात्म्य स्थापित करने वाली भावना के प्रतीक के रूप में जो दीपक जलाए जाते हैं, वे आज भी मिट्टी, पीतल अथवा तांबे के हैं। घी से जाज्वल्यमान यही दीपक हमारे अंतर्मन की कलुषता को धोता है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)