भाषा, भाव और वह:सार-सार को गहि रहे
दूरदर्शन पर दृश्य-श्रव्य रूप में गीत बज रहा था-'ऐ! क्या बोलती तू?...Ó गीत का प्रसंगविवेचन बाद में। सर्वप्रथम लुप्त वा प्रचलन से बाहर होते शब्द- 'दूरदर्शनÓ हेतु प्रयुक्त शब्द प्रयोग वा उसके निकटस्थ त्रुटिपूर्ण उच्चारण से उपजने वाले गम्भीर प्रसंग को समझते हैं। 'दूरदर्शनÓ माने 'टेलीविजन।Ó माने वही टीवी। भारत में, बोलचाल में संक्षिप्तीकरण की प्रवृत्ति शनै:-शनै:, किन्तु सतत बढ़ी है। आप सोचिये, यदि कोई 'टीवीÓ का त्रुटिपूर्ण उच्चारण 'टीबीÓ कर दे, तो बड़ी गड़बड़ी उत्पन्न हो सकती है। माने पलक झपकते- न झपकते हमारी आँखों के सामने कुछ ऐसा दृश्य नाच उठ सकता है -कोई अस्थिपंजर व्यक्ति, जिसकी हड़्डी-पसलियाँ लगभग बाहर की ओर उभर कर आयी हैं, और वह निरन्तर खाँस-खखार रहा है। वह जब-जब खाँसता-खखारता है, तो प्रतीत होता है, मानो उसकी हड्डी-पसलियाँ बाहर गिरने को हैं। तो, 'टीवीÓ का केवल एक वर्ण रूपान्तरण कर, 'टीबीÓ कर देने से भयंकर समस्या उत्पन्न हो सकती है। एक संसाधनपूर्ण, दुर्लभ, किन्तु सहज-सुलभ दृश्य का पटाक्षेप हो सकता है। और, एक अवांछित वा अप्रीतिकर दृश्य का तत्क्षण उदय हो सकता है। माने 'वसन्तÓ के लिए 'बसन्तÓ चल जायेगा। 'विपिनचन्द्रÓ के लिए 'बिपिनचन्द्रÓ चल जायेगा, किन्तु 'टीवीÓ के लिये 'टीबीÓ चल ही नहीं सकता।
इस चक्रात्मक वाक्य का निहितार्थ है कि आरम्भ में भले ही गड़बड़ी हो जाये, माने 'वÓ के स्थान पर 'बÓ और 'बÓ के स्थान पर 'वÓ हो जाये, किन्तु अन्त सही अर्थात् सार्थक होना चाहिये। समस्या यह है कि लोग आरम्भ में भी गलतियाँ करते हैं, और बिना सुधारात्मक उपक्रम किये, अन्त तक गलतियाँ करते ही चले जाते हैं। परिणामत: हर घट मरघट की सी स्थिति उत्पन्न हो जाती है। फिर, आप मरघट का जितना ही सौन्दर्यीकरण कर दीजिये, उस शब्द में ही ऐसा नैराश्य भरा पड़ा है कि वह किसी भी व्यक्ति के मन में शव की सी निष्प्राण स्थिति उत्पन्न कर देता है। इसमें व्याप्त लाक्षणिकता को छोड़ कर आगे बढ़ जाना उचित नहीं होगा। और, लक्षणा में प्रवेश करते हुए यह ध्यान रखियेगा कि 'शवÓ को 'शवÓ ही पढ़ियेगा। 'शवÓ के बदले 'शबÓ पढ़ने से अर्थान्तरन्यास उत्पन्न होगा। माने विशेष को विशेष और सामान्य को सामान्य रहने देना चाहिये। 'सामान्यÓ जब 'विशेषÓ बन जाता है, तो उसके क्या अच्छे और क्या बुरे, दो धु्रवीय, माने- विषमतामूलक परिणाम (प्रभाव) देखने को मिलते हैं। भक्तिकालीन कूटनीतिज्ञ कवि रहीम ने किसी प्रसंग-विशेष में कहा है- 'जो रहीम ओछो बढ़ै, तौ अति ही इतराय। प्यादे सों फरजी भयो, टेढ़ो टेढ़ो जाय।Ó यद्यपि इसमें 'नीतिÓ का अवधानात्मक वा नवाचारी, माने- (प्र)क्रियात्मक सन्देश-सूत्र है, किन्तु यह भी उतना ही सत्य है कि अ-नीति वालों की नीयत देख कर, उनके मध्य रणनीति ही काम आ सकती है। अन्यथा अनीति (नीतिरोधी वा नीति-विरोधी) वाले आपसे 'नेतिÓ की हठात् योग-क्रिया करवा कर ही दम लेंगे। आप कहेंगे, हठयोगात्मक नेति के लाभ ही हैं, हानि कुछ नहीं। तो, जानिये-समझिये कि भला कितने ही लाभ हो, वह सहज है नहीं न? इसलिए 'नीतिÓ और 'नेतिÓ छोड़ कर 'नेति-नेतिÓ पुनरुक्ति के निहितार्थ को जानिये-समझिये। अनीति वालों की अनीति का कोई अन्त नहीं होता। आज यह, तो कल वह। परसों कुछ और। वे प्रतिक्षण अनीति का नया नुस्खा (फार्मूला) खोज लेते हैं और फिर, आप रामबाण उपाय खोजते रह जाते हैं। कुलमिलाकर, उनकी करनी के सम्बन्ध में जो कुछ कहिये, अत्यल्प प्रतीत होता है। जाम्बवन्त ने कहा - 'नाथ पवनसुत कीन्हि जो करनी। सहसहुँ मुख न जाइ सो बरनी॥Ó यद्यपि यह प्रशंसात्मक उद्गार पवनपुत्र के लिए हैं, किन्तु अनीति वालों की 'करनीÓ का आख्यान इतना विशद है कि जाम्बवन्त का उपर्युक्त कथन सहज स्मरण आता है। अनीति वालों की करनी का अबाध क्रम चलता रहता है और आप समाधिस्थ भावमुद्रा धारण कर लेते हैं - 'ऐसी समाधि लगाये रे मेरा भोला न जागे, तो ध्यान दीजिये कि बाद में, न राम काम आ सकते हैं; न किसी तरह के बाण ही काम आ सकते हैं। इसलिए कुछ चरित्रों व उनके कर्मों पर विशेष ध्यान देना चाहिये। और, सही समय पर सत्योद्घाटन करना चाहिये। कुकर्मों का सत्योद्घाटन भी क्या कम बड़ा दायित्व है? सही समय पर सही बात कहना-करना आवश्यक होता है। यह भी कि सही समय पर सही बात करने वाला व्यक्ति भी सही होना चाहिये, अन्यथा ग़लत लोग तो आपकी नाक के बाल से लेकर, आपकी चाल तक पर बातें बना व परोस सकते हैं। अस्तु, यहाँ विषय शब्द व व्यक्ति कर्म का है। जैसे, प्रत्येक शब्द का एक विशिष्ट चरित्र (अर्थक्रम वा कर्म) होता है। वैसे ही, प्रत्येक व्यक्ति का विशिष्ट चरित्र होता है। और, वह उसके कर्मों से ही ज्ञात होता है। शब्द का वर्ण क्रम वा वर्णान्तर हो जाने से मामला गड़बड़ हो सकता है। वही मामला चरित्रों के साथ भी है। उनके स्थान-परिवर्तन से मामला परिणामकारी (?) सिद्ध होता है। जाम्बवन्त ने पवनपुत्र का चरित्र सुनाया था- 'पवनतनय के चरित सुहाए। जामवन्त रघुपतिहि सुनाए।Ó कल, आपको अन्यायी (अनीति) के चरित्र का बखान इसके उसके, और न जाने किस-किस के समक्ष करना पड़ेगा। इसलिए व्यक्ति की नीयत जानिये, तो नियति बदल सकती है। नियत (निश्चित) कुछ भी नहीं है। नियति कुछ भी नहीं है। सबकुछ नीयत पर टिका हुआ है। उस नीयत को जान-समझ लेने से सारा मामला सम्भल सकता है। सारा पेंच यहीं फँसा है कि समय रहते कोई कुछ कहता नहीं। प्राय: सभी 'पीछेÓ कहते हैं। यहाँ 'पीछेÓ में दोनों अर्थ व्याप्त हैं- 'पीठ पीछेÓ और 'समय बीत जाने के उपरान्त।Ó वैसे, सही समय को जानना भी क्या कम बौद्धिक वा श्रमसाध्य कार्य है!
शब्द क्रम वा शब्द कर्म पर लौटिये - हिन्दी- हिन्दी की रट लगाने वालों को हिन्दी के प्रति सच्चे अर्थों में प्रामाणिक होना चाहिये। यह नहीं कि नौकरी मिल गयी, छोकरी मिल गयी। और क्या चाहिये? ऐसा करने से तो भाषा की भैंस पानी में बैठ सकती है। और, वह पानी यदि दीर्घावधि से ठहरा हुआ हो, और उसमें कीचड़ लबालब भरा हो, तो मामला अत्यधिक गम्भीर हो सकता है। भैंस को उस पानी से उठा पाना कष्टसिद्ध कार्य होगा। हिन्दी में संक्षिप्तीकरण की प्रवृत्ति व जड़ता से उत्पन्न त्रुटिपूर्ण उच्चारण ने प्राय: गड़बड़झाला की स्थिति उत्पन्न कर रखी है। आपको अजमेर जाने वाले यात्री की कथा स्मरण होगी? दूरभाष वा मोबाइल का युग था नहीं। चि_ी-पत्री का युग था। पत्र आया और उसमें लिखा था- 'वैसे, यहाँ सब ठीक है। बस, चाचाजी अजमेर गये हैं।Ó और, चि_ी के सस्वर वाचक ने पढ़ा- 'वैसे, यहाँ सब ठीक है। बस, चाचाजी आज मर गये हैं।Ó फिर, क्या ही कहिये, घर तो घर, रिश्तेदारी में भी बात फैल गयी कि 'चाचाजीÓ।Ó इस सृष्टि में यदि सर्वाधिक तेज़ी से कुछ फैलता है, तो वह है - बातें। तो, बात फैली और अर्थ का अनर्थ हो गया। बाद में पता चला कि 'चाचाजी अजमेर गये हैं।Ó लिखने वाले ने ठीक लिखा, किन्तु पढ़ने वाले ने मात्रा-भेद करके त्रुटिपूर्ण पढ़ा और समस्या हो गयी। पत्र में मरण ही साकार हो उठा। जबकि इसके विपरीत कथा भी है - लिखने वाले ने त्रुटिपूर्ण लिखा- 'वैसे, यहाँ सब ठीक है। बस, चाचाजी आज मर गये हैं।Ó और, पढ़ने वाले ने भी अपने बुद्धि-विवेक का उपयोग किये बिना ही निर्लिप्त भाव से पढ़ा। फिर क्या, बात का फैलना निश्चित था। बात फैली और अनर्थ हो गया। कहने को दोष किसी का नहीं है। भाषा के प्रति थोड़ी सी भी गम्भीरता होती, तो हमारी यह दुर्दशा वा दुर्गति न होती। तो, बात चल पड़ी थी टीवी पर बजने वाले गीत की। वह गीत बज रहा था। वैसे, 'बजनाÓ क्रिया आते ही, उसका ध्वन्यात्मक प्रवाही संयोग ऐसा है कि 'बजबजानाÓ ध्वनि का आभास होने लगता है। आप जानते हैं- 'बजनाÓ और 'बजबजानाÓ, पृथक- पृथक क्रियाएँ हैं। ढोल भी बजता है और भोंपू भी बजता है, किन्तु दोनों के बजने-बजाने में ध्वन्यात्मक अन्तर है। मुहावरों में प्रयुक्त होते हैं, तो अत्यन्त लाक्षणिक अर्थ देते हैं। वैसे, 'ढÓ और 'भÓ महाप्राण ध्वनियाँ हैं, किन्तु महाप्राण ध्वनियों से बनने वाले सभी शब्दों में प्राण होगा ही कहना कठिन है। क्योंकि ध्वनि के अधिक उच्चांक वाले, क्या शब्द, क्या वाद्य और क्या व्यक्ति प्राय: फट जाया करते हैं। आपके आसपास कुछ अधिक बज रहा हो, तो समझिये कि उसके फटने का समय निकट आ चुका है। तो, टीवी पर युवाओं का चित्ताकर्षक गीत बज रहा था- 'ऐ! क्या बोलती तू?... आती क्या खण्डाला?... अरे! घूमेंगे, फिरंगे, नाचेंगे, गायेंगे, ऐश करेंगे और क्या?Ó वैसे, घूमना-फिरना-नाचना-गाना तमाशगीरों का काम है। ऐश का तो पता नहीं कि वे कर पाते हैं कि नहीं, किन्तु हम हिन्दी वालों ने ऐश को भलीभाँति कैश करना सीख लिया है। आप जानिये कि वर्तमान समय के संकटों में तात्कालिकता भी संकट बन कर उभरी है। इसी तात्कालिक ऐश के चक्कर में जीवन और सम्बन्धों के साथ-साथ भाषाएँ भी संकटग्रस्त हो रही हैं। 'टीवी का टीबीÓ हो जाना, 'अजमेर गयेÓ का 'आज मर गयेÓ हो जाना इत्यादि केवल उदाहरण हैं, किन्तु प्रश्न है कि अपनी भाषाओं को लेकर हम कितने सजग हैं? यह स्पष्ट है कि भाषाओं के विश्वविद्यालय बना देने से भाषाओं का भला नहीं हो सकता, क्योंकि विश्वविद्यालय उपरोक्त गीत के भावग्राही बन कर रह गये हैं। मेरे इस प्रकार लिख देने से भी भला नहीं हो सकता। जागृति ही से निकृष्ट का उत्कृष्ट में रूपान्तरण हो सकता है। जागृति के साथ यदि सत्कृति हो तो सबकुछ कृतार्थ हो सकता है। 'वज्रपातÓ में प्रयुक्त किसी प्रसंग वा किन्हीं शब्दों में, माने - ढोल, भोंपू आदि में स्वयं को मत खोजियेगा। क्या है न कि लोग प्रयुक्त शब्दों में स्वयं को खोजते हैं। अच्छा होता, वे स्वयं को सच्चे अर्थों में खोजते-सुधारते। सुधार में धार है। उससे बहुत-कुछ कट सकता है। 'कटनाÓ क्रिया कभी रोचक, तो कभी संकटजनक प्रतीत होती है। 'कटनाÓ को 'खटनाÓ पढ़ने से अर्थभिन्नता होगी। अस्तु. आप 'सार-सार को गहि रहेÓ वाली धारा अपनाइये। उससे सुमंगल होगा। कुछ भी अनुचित लगने लगे, तो वह गीत स्मरण कीजियेगा- गीत साहिर लुधियानवी का है, आवाज़ सुरेश वाडकर व लता मंगेशकर की है- ये आँखें देख कर हम सारी दुनिया भूल जाते हैं।
(लेखक अखिल भारतीय राष्ट्रवादी लेखक संघ के संस्थापक हैं)