भारत और मध्य एशिया का भाषाई संपर्क

भारत और मध्य एशिया का भाषाई संपर्क
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Image Credit : afeias.com

लेखक - डॉ. राजेश कुमार 'माँझी', प्रभारी–प्रशानिक अनुभाग/हिंदी अधिकारी, जामिया मिलिया इस्लामिया (केंद्रीय विश्वविद्यालय), संपादक – फीजी संदेश, फीजी उच्चायोग, नई दिल्ली

यह सर्वविदित है कि भारत और मध्य एशिया का संबंध बहु-स्तरीय है और इसकी शुरूआत प्रागैतिहासिक काल से शुरू होकर आधुनिक दिनों तक सतत् चलती रही जिसका उल्लेख डॉ. बी. बी. कुमार ने अपनी पुस्तक इंडिया एंड सेंट्रल एशियाः ए शेयर्ड पास्ट में किया है । हमारा संपर्क भाषाई क्षेत्र को भी छूता है। मध्य एशियाई और भारतीय भाषाओं ने एक-दूसरे को प्रभावित किया है; और हम बहुत सारी एक जैसी भाषाएं बोलते हैं जैसे कि ताजीक, हिंदी और उर्दू। कुछ विद्वानों ने इस बात की खोज की है कि भारतीय भाषाएं मध्य एशिया में बोली जाती हैं जैसे कि पार्या की भाषा। (1)

डॉ. राजेश कुमार 'माँझी', प्रभारी–प्रशानिक अनुभाग/हिंदी अधिकारी, जामिया मिलिया इस्लामिया (केंद्रीय विश्वविद्यालय)

उर्दू भाषा की उत्पत्ति भारतीय और मध्य एशियाई लोगों के संपर्क में आने से मध्यकाल के दौरान हुई। 'उर्दू' भी अपने आप में एक फारसीकृत तुर्की शब्द है जिसका मूल अर्थ 'तुर्की सेना का कैम्प' होता है। भारत में इसका तात्पर्य 'न्यायालय' अथवा 'छावनी' है। यह भाषा अपने प्रारंभिक दिनों में 'हिंदी' अथवा 'हिंद' अथवा 'भारत की भाषा' के रूप में जानी जाती थी। इसे 'हिंदवी' अथवा 'हिंदुस्तानी' के नाम से भी जाना जाता था। यह भाषा भारत के विभिन्न क्षेत्रों में सूफियों और मुसलमान रहस्यवादियों के माध्यम से पहुँची, और इसने विभिन्न क्षेत्रीय और स्थानीय शब्दों को आत्मसात् किया और क्षेत्रीयता अथवा स्थानीयता का प्रभाव इस भाषा पर पड़ा, तथा इसे ही गुजरी, दखिणी अथवा देहलवी भाषा के रूप में जाना जाता था।1 हिंदी भाषा भी तुर्की भाषा से प्रभावित हुई। प्रसिद्ध विद्वान डॉ. भोलानाथ तिवारी के अनुसार हिंदी में 125 से कम तुर्की शब्द नहीं हैं। कुछ तुर्की शब्द जो हिंदी भाषा में आ गए हैं और उनका इस्तेमाल किया जाता है वे हैंः- उर्दू, बहादुर, उज्बेक, तुर्क, चाकू, कैंची, काबू, चम्मच, तोप, तोपंची, बारूद, बीवी, चेचक, लाश, सराय और बावर्ची। तुर्की भाषा का 'ची' प्रत्यय का प्रयोग हिंदी में वृहद स्तर पर किया जाता है।2

हिंदी में बहुत सारे तुर्की, फारसी और अरबी शब्द हैं। भारत की अन्य भाषाओं में भी इन भाषाओं के शब्द हैं। मुगलकाल के दौरान फारसी भारत की राजकीय भाषा थी। कुछ रूसी विद्वानों ने मध्य एशिया में प्रचलित कुछ भारतीय भाषाओं की खोज की है। हिसार घाटी के पारियाह एक भारतीय भाषा को अपने क्षेत्र में बोलते हैं। वे लोग अपने पड़ोसियों से उज्बेक और ताज़ीक भाषाओं में वार्तालाप करते हैं।3

मध्य एशिया का समाज एक बहुभाषी समाज है। तारीम और ओक्सस घाटी में अनेक भाषाएं बोली जाती थी हालांकि उस क्षेत्र में हर समय एक जैसी ही भाषाई स्थिति नहीं रही। समय के साथ-साथ जातिय मेल-मिलाप के कारण भाषाई तस्वीर बदलती रही। झिंजियांग में ईसाई युग के प्रारंभिक शताब्दी के दौरान दो भाषाएं बोली जाती थीं। उत्तरी भाषा का नाम कूचीयन था। इसे तोखारियन भी कहा जाता था अथवा इसे तोखारो की भाषा अथवा भारतीय-सिथियनों की भाषा भी कहा जाता था। दो महान पश्चिमी और पूर्वी समूहों द्वारा व्यवहृत की जाने वाली भाषा के बारे में यह माना जाता है कि वह भारतीय-यूरोपीय भाषा थी। दक्षिणी तारीम बेसिन में जो भाषा बोली जाती थी उसे 'शाक' और 'खोतानी' कहा जाता था। तीन अन्य भाषाएं जिन्हें अरमाइक मूल की लिपि में लिखा जाता था वे ईरानी भाषाएं थीं। उनमें से दो ने मनिचियन ग्रंथों को संरक्षित किया। समरकंद के आसपास के क्षेत्र में बोली जाने वाली सोग्डियन भाषा में बौद्ध, मनीचियन और ईसाई ग्रंथ हैं।4

आइघुर तुर्किश भाषा का साहित्यिक रूप है जोकि तियान-सान के उत्तर और दक्षिण क्षेत्रों में बोली जाती है और इसने अपना नाम आइघुर लिपि से प्राप्त किया और आइघुर नाम भी सीरियाइक से जन्मा। इसका इस्तेमाल बौद्ध, मनीचियन और ईसाई साहित्यों के लेखन हेतु वृहद स्तर पर किया गया। इसका इस्तेमाल बौद्ध साहित्य में उस समय बढ़ गया जब 860 ईस्वी के आसपास तारीम घाटी में तिब्बतन शक्तियांे ने आइघुर को हटाकर स्थान ग्रहण किया तथा तिब्बतियांे ने अपने साम्राज्य की स्थापना की। तिब्बती पांडुलिपियाँ खोतान, मीरान तथा तुन-हूआंग क्षेत्रों में पाई गई हैं। झिंजियांग क्षेत्र से धम्मपद और अन्य दस्तावेजों के प्राकृत पाठ पाए गए हैं जिन्हें खरोष्ठी दस्तावेज कहा जाता है। यह भाषा (गांधारी प्राकृत) तथा लिपि (खरोष्ठी) भारतीय हैं। मध्य एशिया में सरवस्तीवदीन बौद्धों द्वारा विशेष रूप से वृहद स्तर पर संस्कृत इस्तेमाल की जाती थी जोकि एक सर्वविदित सच्चाई है। मध्य एशिया से तोखानी अग्नियन, कूचीयन, सोग्डियन, आइघुर, तुर्की, मंगोल, मांचु और चीनी पांडुलिपियाँ अथवा ग्रंथ अथवा अंश/पाठ पाए गए हैं।5

वर्तमान समय में तुर्किश भाषा उज्बेकिस्तान, कजाख़स्तान और कर्गिज़ गणराज्य तथा तुर्कमेनिस्तान में बोली जाती है। तजाकिस्तान में बोली जाने वाली तज़ीक एक ईरानी भाषा है। आइघुर एक तुर्की भाषा है। कुछ धार्मिक अल्पसंख्यक अपनी खुद की भाषा बोलते हैं। उपरोक्त उल्लेख की गई लिपियों के अलावा ब्राह्मी लिपि का इस्तेमाल मध्य एशिया में वृहद स्तर पर किया जाता था। मध्य एशिया में इसकी शुरूआत और बौद्ध धर्म से इसके संपर्क की तिथि खरोष्ठी लिपि से पहले से है। संस्कृत गं्रथों में इस लिपि के तीन विविध रूपों का पता चला है। इस लिपि का इस्तेमाल अग्नियन (अग्निदेश की भाषा), कूचीयन और शाक-खोतानी को लिखने हेतु भी किया जाता था।6

जहाँ तक प्राकृत के प्रयोग की बात है, तजाकिस्तान में पहली शताब्दी ईसा पूर्व के दौरान के एक शिलालेख की खोज तथा उजबेकिस्तान के दलवेरजिन में प्राप्त एक सोने की छड़ पर लिखा गया स्वर्णलेख तथा अफगानिस्तान की वार्डाक तथा कुंदुज से प्राप्त किए गए कुछ अन्य शिलालेख हमें ईसाई युग से पहले की ओर लेके जाते हैं। जैसा कि पहले उल्लेख किया जा चुका है कि खरोष्ठी दस्तावेजों की खोज तारीम बेसिन में स्थित खोतान, निया, एंडेरे, मीरान, लो-लान और कुराक दरिया के विभिन्न पुरातत्विक स्थलों से की गई है। खरोष्ठी लिपि में विभिन्न सामग्रियों-लकड़ी, चमड़ा, रेशम तथा कागज़ पर लिखित दो सौ से अधिक दस्तावेजों की खोज की गई है। सर आॅरिल इस्टाईन ने लिखा हैः "मैंने निया नामक स्थान पर लकड़ी पर लिखे दस्तावेजों को प्राप्त किया जिसमें पत्राचार से संबंधित दस्तावेज, मुख्यतः सरकारी, करार, लेखा, विविध ज्ञापन और उससे मिलते जुलते अन्य दस्तावेज जोकि संस्कृत भाषा में लिखे गए हैं तथा ईसा के पूर्व और बाद की प्रथम शताब्दी के दौरान खरोष्ठी लिपि का इस्तेमाल अफगानिस्तान से सटे हुए भागों और उत्तर-पश्चिम सीमांत क्षेत्रों में किया जाता था।7

मीरान क्षेत्र में जो शिलालेख प्राप्त किया गया है वह दो हजार साल के बाद भी अभी नया सा प्रतीत होता है। खोतान और आसपास के क्षेत्रों से जो बहुत सारे सिक्के प्राप्त किए गए हैं उनकी लिपि भी यही है। इन सिक्कों का कालखंड प्रथम शताब्दी ईसा पूर्व से प्रथम शताब्दी ईस्वी है।"8

मध्य एशिया में संस्कृत एक क्रमबद्ध रूप में पढ़ाई जाती थी। तोखरियान में इसे 'अर्शी' (आर्य) कहा जाता था। विभिन्न उत्खननों के दौरान मध्य एशिया से बहुत सारे संस्कृत पांडुलिपियाँ जैसे कि अश्वघोष का बुद्ध चरित्र तथा सौन्द्रानंद काव्य (शोरचुक से प्राप्त) प्राप्त की गई हैं। ज़्यादातर सभी महत्वपूर्ण बौद्ध ग्रंथों का अनुवाद मध्य एशिया की विभिन्न प्रमुख भाषाओं में किया गया। विद्वानों ने न केवल इन ग्रंथों को पढ़ा और अनुदित किया बल्कि उन्होंने इनके टीकाएं भी लिखीं। व्याकरण, खगोल विद्या तथा अन्य सभी प्रमुख विषयों का अध्यापन और अध्ययन क्रमबद्ध तरीके से किया गया। बोवर पांडुलिपियों की खोज कूचा से की गई हैं तथा ये सभी पांडुलिपियाँ चिकित्सा ग्रंथ हैं। भारत और मध्य एशिया की भाषाओं का एक दूसरे पर अधिक प्रभाव था। हिंदी में उर्दू और तुर्की शब्दीम(लेक्समे) की उत्पत्ति भारतीय और मध्य एशियाई संपर्क का परिणाम है । मध्य एशिया की भाषाओं पर संस्कृत का गहरा प्रभाव पड़ा । मध्य की भाषाओं का भी संस्कृत पर प्रभाव पड़ा । मध्य एशिया में बोली जाने वाली शाक और स्लैव भाषाएं व्यापक रूप से संस्कृत से जुड़ी हैं । तुर्की भाषाओं का आर्य भाषाओं से संपर्क बहुत पुराना है ।9

काल्डवेल ने अपनी पुस्तक ए कंपेरेटिव ग्रामर ऑफ़ दि ड्रविडियन ऑफ़ साउथ इंडियन फैमिली ऑफ़लैंग्वेज में सामान्य तौर पर तुर्क-मंगोल भाषाओं का दक्षिण भारतीय भाषाओं के साथ संपर्क से संबंधी विशाल डाटा और व्यापक विश्लेषन दिया है। हालांकि इस पुस्तक में अनेक कमियाँ हैं। काल्डवेल ने ड्रविडियन भाषाओं को मध्य एशिया की सिथियन भाषा से जोड़ा है। परंतु सिथियन एक कमजोर समूहीकरण है, अतः उनके अध्ययन में कुछ अधिक ही कमी है ।

राहुल सांकृत्यायन द्वारा हिंदी में लिखित मध्य एशिया का इतिहास में भारत-मध्य एशियाई भाषाई संपर्क से संबंधी महत्वपूर्ण सूचना दी गई है। उनके द्वारा रूसी भाषा की दी गई शब्दावली इस बात को दर्शाती है कि उसका संस्कृत शब्द भंडार से गहरी समानता थी। अतः इस बात का उल्लेख करना जरूरी है कि ऋग्वेद और अवेस्ता की भाषाओं में अंतर तथा संस्कृत और पुरानी फारसी में अंतर व्याकरणीक न होकर केवल उच्चारण संबंधी है। मध्य एशिया और ईरान की ईरानी भाषाओं का भारत-आर्य भाषाओं से गहरा संबंध है।

भारत के एक प्रसिद्ध विद्वान डॉ. राम विलास शर्मा ने अपनी हिंदी पुस्तक भारत के प्राचीन भाषा परिवार और हिंदी में तुर्की और मंगोली भाषा का भारतीय भाषाओं के साथ समानता संबंधी प्रकाश डाला है और उन्होंने यह बताया है कि इनमें शब्द भंडार, उच्चारण, शब्द संरचना और वाक्य संरचना संबंधी समानताएं हैं। डॉ. शर्मा ने तुर्क-मंगोल और फिनो-उगारियन परिवार की भाषाओं की तुलना भारत की भाषाओं के साथ की है। उन्होंने तुर्की, मंगोली (खाल्ख, बुरियत) तथा फिन भाषाओं की तुलना भारतीय भाषाओं के साथ की है जिसमें उन्होंने उनके उच्चारण, शब्द भंडार और शब्द संरचना की तुलना की है।

बहुत सारी भारत-आर्य और द्रविडियन भाषाओं की भांति तुर्की में तालु को स्पर्श करते हुए शब्द उच्चारण की प्रवृत्ति दिखाई देती है। परंतु द्रविडियन और भारत-आर्य भाषाओं की भांति इसमें मस्तिष्क (सेरेबल्स) का इस्तेमाल नहीं होता। तुर्की में 'क' और 'ग' से जुड़े कुछ स्वरों से पहले अर्द्ध स्वर 'य' का इस्तेमाल किया जाता है। इस प्रकार अरबी शब्द 'कातिब' (सचिव), मालूम' (ज्ञात) तथा 'मजकूर' (पहले कहा गया) क्रमशः क्यातिब, मालूम और मज्कयूर बन जाते हैं। यह प्रथा कश्मीरी भाषा में भी पाई जाती है। यहाँ 'मजकूर' का 'अ' छोटा हो जाता है। 'कातिब' का 'ब' 'प' हो जाता है। तुर्की भाषा में अरबी का 'किताब' तथा संस्कृत का 'रंग' 'किताप' और 'रंक' हो जाते हैं। इस प्रकार उस भाषा में 'ब' और 'क' अवचरित हो जाते हैं। जब सर्वनाम संबंधी प्रत्यय 'ई' (उसका या उसकी) जोड़ा जाता है तब 'प' पुनः उच्चरित होता है और इस प्रकार वह शब्द 'किताबी' बन जाता है। यह प्रथा संस्कृत में भी दिखाई देती है। जैसा कि हम 'जगदीश', 'शरदागम', आदि शब्दों में देखते हैं। द्रविड़ भाषाओं की भांति तुर्की भाषा में भी किसी शब्द में प्रारंभ में 'र' तथा 'ल' नहीं होते हैं। द्रविड भाषाओं में यह प्रथा कुछ हद तक शिथिल हो जाती है। तमिल शब्द 'इरंदु' (दो) को कभी-कभी 'रंदू' ही कहा जाता है। आंध्र प्रदेश में एक जाति का नाम 'रेड्डी' है। तुर्की और द्रविड़ भाषाओं में सामान्यतः किसी शब्द के प्रारंभ में दो व्यंजन एक साथ नहीं आते हैं। तुर्की में 'स्लेव' को 'इस्लेव' (जैसे कि पूर्वी भारत में 'स्कूल' को 'इस्कूल' कहा जाता है)। अंग्रेजी शब्द 'क्लब' को 'कुलुप' अथवा 'कुल्प' उच्चारित किया जाता है। प्राकृत की भांति बीच के व्यंजन स्वर अथवा अर्द्ध स्वर बन जाते हैं। फारसी का 'अगर' (यदि) तथा 'दिगर' 'अयर' तथा 'दियर' बन जाता है। फारसी भाषा से लिया गया संघर्षी अक्षर 'फ' तुर्की भाषाओं में 'प' बन जाता है। अरबी तथा फारसी का 'ख' संघर्षी सामान्यतः 'ह' बन जाता है। अरबी का 'फ़न' (कला), 'खाला' (मौसी), 'ख़बर' (समाचार) तथा फारसी का 'हफ़्ता' (सप्ताह) क्रमशः 'पन', 'हाला', 'हबर' तथा 'हप्ता' बन जाते हैं। द्रविड़ भाषाओं की भांति तुर्की भाषाओं में महाप्राण ध्वनियों का प्रचलन नहीं है। ज़्यादातर भारतीय भाषाओं में दंतः और तालव्य ऊष्म ध्वनियों जैसे कि- स तथा श (ष) का इस्तेमाल किया जाता है। मस्तिष्क संबंधी ऊष्म ध्वनि 'श' (ष) का व्यापक स्तर पर संस्कृत शब्दों में इस्तेमाल किया जाता है। आर्य तथा द्रविड़ भाषाओं में तथा कुछ हद तक तुर्की भाषा में भी दंतः और तालव्य ऊष्म ध्वनियाँ तालव्य 'च' और 'छ' में बदल जाती हैं। संस्कृत में मूल 'गश' 'गष' (गम्, जाना) तथा 'प्रश' 'प्रष' (पूछना; प्रश्न, सवाल) क्रमशः 'गच्छ' तथा 'प्रच्छ' बन जाते हैं। संस्कृत का 'भाश' तथा 'भाष' तमिल में 'पेशु' बन जाता है; संस्कृत का मूल 'इश' 'इष' (इश, पीना) तुर्की में 'इच' (पीना) बन जाता है।

डॉ. राम विलास शर्मा ने बहुत सारी समानताओं और समतुल्यता को शब्द भंडार के आधार पर बताया है। संस्कृत के 'का' (करना), 'काल' (समय), 'कूप' (कुँआ), 'काती' (कितने), 'किम' (कौन) के तुर्की शब्दीम 'किल' (प्राचीन तुर्की), 'करा', 'कूयू', 'कच' और 'किम' हैं। तुर्की का 'कारा' (काला), तमिल का 'कारु' तथा संस्कृत का 'कार' ('अंधकार' का) एक दूसरे से जुड़े हैं। हिंदी के संबंध सूचक प्रत्यय 'का, की, के'; तुर्की में 'की' है। संस्कृत का 'जन्मा' (जन्म) की उत्पत्ति मूल धातु 'जन' से हुई है। तुर्की का 'दगम' (जन्म) तथा 'इचिम' की उत्पत्ति 'दघ' (जन्म लेगा) तथा 'इच' (पीना) से बना है। तुर्की, तमिल तथा रूसी भाषाएं संबंध सूचक प्रत्यय 'इन' का इस्तेमाल करती हैं जैसे कि 'अहमदीन' (अहमद का; तुर्की), मगानीन (पुत्र का) तथा स्टालिन (स्टील का)। नकारात्मक प्रत्यय-संस्कृत में -मा तथा तुर्की में -मा एक समान है।

खासी और कश्मीरी को छोड़कर भारतीय भाषाएं 'कत्र्ता-कर्म-क्रिया' वाक्य संरचना की पद्धति का अनुसरण करती हैं। तुर्की भाषा में भी इसी का अनुसरण किया जाता है। हालांकि संस्कृत के 'गच्छामि' (मैं जाता हूँ; गच्छ, जाना); की भांति तुर्की के 'गलिरिम' (मैं आता हूँ); में सर्वनाम संबंधी प्रत्यय में क्रिया का अनुसरण किया जाता है। बंगला तथा मराठी में जिस प्रकार प्रथम पुरूष एक वचन सर्वनाम 'मैं' का इस्तेमाल किया जाता है उसी तरह न तो संस्कृत के 'अमी' अथवा 'मी; और न ही तुर्की के 'इम' में प्रथम पुरूष एक वचन सर्वनाम 'मैं' का इस्तेमाल किया जाता है। संस्कृत तथा तुर्की भाषाओं के 'मैं' शब्द के लिए 'अहम' तथा 'बन' का क्रमशः इस्तेमाल किया जाता है। तुर्की भाषा में संज्ञा के बाद सर्वनाम संबंधी प्रत्यय लगाया जाता है जैसा कि 'बबम' (मेरे पिता; बाबा त्र पिता, म त्र मेरा) शब्द।

इस बात का उल्लेख करना जरूरी है कि बहुत सारी भारतीय भाषाओं में 'बाबा' शब्द का इस्तेमाल पिता के लिए किया जाता है। 'मैं' के लिए सर्वनाम संबंधी प्रत्यय और साथ ही प्रत्यय को लगाने की प्रथा भारत में शुरू हुई। अरबी और फारसी में भी इसी नियम का पालन किया जाता है। हिंदी तथा तुर्की दोनों में ही संज्ञा शब्द को क्रिया बनाने के लिए 'करना' को जोड़ा जाता है (हिंदी में 'करना', 'काम करना', काम को करना; तुर्की में 'किल्माक', 'नमाज किल्माक' नमाज अदा करना)।

अधिकतर मामलों में, दो शब्दों के मेल से नया अर्थ निकलता है तथा शब्दों की पुनरावृत्ति से अर्थ की गहनता तक पहुँचा जाता है। तुर्की, द्रविड़ तथा मुंड और भारत-मंगोली भाषाओं में उच्चतम संख्या के निर्माण की पद्धति एक समान है।10

औपनिवेशिक काल के दौरान मध्य एशिया तथा भारत में की गई नवीन खोजों के द्वारा इन दोनों क्षेत्रों की संस्कृति और भाषाओं से संबंधित बहुत सारी सामग्री सामने आई है। हालांकि, औपनिवेशिक अध्ययनों की भी कुछ कमियाँ हैं। बहुत सारे मामलों में समय और भौगोलिकता के आधार पर सांस्कृतिक और भाषायी अबाध क्रम की अवहेलना की गई है; तथा समानता की अपेक्षा विभिन्नता को रेखांकित करने पर बल दिया गया है।

हमारे शास्त्रीय साहित्य तथा महाकाव्यों में मध्य एशिया के बहुत सारे भौगोलिक नाम और समुदायों के नाम पाए जाते हैं जोकि अभी तक बदले नहीं हैं अथवा थोड़ा बहुत ही बदले हैं। इस प्रकार कुभा, गोमती, ओक्सस तथा कंदाहर को आज काबुल, गोमल, ओक्सस और गंधार के रूप में जाना जाता है।

मध्य एशिया के बहुत सारे राष्ट्रों का आखिरी शब्दांश 'स्तान' है। यह संस्कृत के 'स्थान' तथा फारसी के 'स्तान' से संबंधित है जो भूमि अथवा स्थान को इंगित करता है। भारतीय मिथक के अनुसार कश्यप संसार के एक सिद्ध पुरूष और पूर्वज थे। फ्रिगिया को यूनानी भाषा में फ्रूगिया कहा जाता है। भारतीय साहित्य में भृगु एक सिद्ध पुरूष हैं। कोई इस बात के लिए पूर्ण सहमत नहीं हो सकता कि 'फोनिसियन' शब्द का 'फोनिक' की उत्पत्ति सेमिटिक मूल से हो सकती है। संस्कृत में 'बनिक' शब्द पाया जाता है जिसका तात्पर्य व्यापारी है। ऐसा माना जाता है कि मध्य एशिया की भाषाओं और संस्कृतियों का गहन अध्ययन भारतीयों के लिए खुद को सही ढंग से समझने में कारगर सिद्ध होगा। विपरीत परिणाम भी समान रूप से सत्य हो सकते हैं।

पाणिनी ने अपने अष्टध्यायी में कांथा शब्द का प्रयोग किया है। कशिका सूत्र शब्द 'शहर' अथवा 'नगर' को परिभाषित करता है। उपरोक्त कांथा की भाँति ताशकंद, समरकंद, यार्कंड, आदि का 'कंद' और 'कंत' भी इसी प्रकार के हैं। यह भी बताया जाता है कि इन्हें दक्षिकंथा और याहवरकंथा के रूप में क्रमशः जाना जाता है। 'तुर्क' शब्द के लिए संस्कृत शब्द 'तुरुश्का' है। भारत के शास्त्रीय साहित्य में इस नाम का पहला शब्दांश 'तुर्वसु' नाम में पाया जाता है। 'स्का' नामक दूसरा शब्दांश उत्तम पुरूष प्रत्यय है जोकि कनिष्क नाम में पाया जाता है; 'कनिष्क' शब्द का तात्पर्य सबसे छोटा पुत्र होता है।11

उज्बेकिस्तान की राजधानी ताशकंद तथा सोग्डियाना की प्राचीन राजधानी समरकंद और साथ ही साथ तिमूर तथा बाबर प्राचीन शहर हैं। ताशकंद का प्राचीन नाम चच है। पोलीब्लेंक इसे एनीसियन शब्द 'पत्थर'; केत, टाइस, कोत, शिश,पम्पोकोल्स्क सिस से जोड़ना चाहता था। वह इसे पाँचवी और छठी शताब्दी में सोग्डियाना पर हूण आधिपत्य के अवशेष के रूप में देखते हैं। यद्यपि यह शब्द शापुर प् (240-272 ईस्वी) के शिलालेख में आया है इसलिए यहाँ पहले सेे ही मुद्रा प्रचलित थी। प्राचीन चीनी अभिलेखों में ताशकंद का वर्णन 'शिह' चित्रलिपि के साथ किया गया है जिसका तात्पर्य 'पत्थर' होता है। यह नाम तुर्की के ताश 'पत्थर' शब्द से संबंधित है और यह शहर के प्राचीन नाम का अनुवाद भी माना जा सकता है। इस बात का उल्लेख किया गया है कि शहर के प्राचीन नाम 'चच' से पहले भी इसका तात्पर्य 'पत्थर' ही होता था। चीनी स्रोतों के अनुसार इस क्षेत्र के निवासियों को चियांग यू अथवा कियांग चू कहा जाता है जो तोखारियन मूल के हो सकते हैं। कियांग का तात्पर्य तोखारियन में किसी प्रकार का पत्थर हो सकता है। हिंदी में कंकर का मतलब पत्थर होता है। सूत्रअलंकार के अनुसार पुष्पकलावती के एक चित्रकार ने अशमक (इसका तात्पर्य पत्थर अथवा पथरीला होता है) देश का दौरा किया और वहाँ उसने अपनी भक्ति भावना में एक बौद्ध मठ का निर्माण किया। इस स्थान की पहचान ताशकंद के रूप में की गई। एक परंपरा यह भी है कि सूत्रअलंकार को अश्वघोष द्वारा लिखित माना जाता है। अन्य लोग इसे कुमारलता का लिखा हुआ मानते हैं जोकि बौद्ध धर्म के सौतरंतिका शाखा के संस्थापक थे। वराहमिहिर के बृहद्संहिता के अनुसार अश्मक उत्तर-पश्चिमी देश का नाम था। कुमारजीवा अलसंदा तथा ताशकंद जैसे दक्षिण के महान शहरों को जानता था।12 इस बात का उल्लेख करना जरूरी है कि ताशकंद शब्द का इस्तेमाल पहली बार अलबरूनी के तारीख़-ए-हिंद में किया गया है।13

संदर्भ

1. मंसूर हैदर, 'इंडिया एंड सेंटल एशियाः लिंकेज एंड इंटरएक्शंस', निर्मला जोशी की पुस्तक सेंट्रल एशिया, पृ 261

2. द कल्चरल हेरिटेज ऑफ़इंडिया, पृ. 261

3. बी.एन. पुरी, बुद्धिज़्म इन सेंट्रल एशिया, खंड ट, पृ 642-43

4. वही, पृ 325

5. वही, पृ 242-43

6. आई.एम. ओरांसकी, 'एन एस्से ऑन द इथनोग्राफी ऑफ़ ए ग्रुप ऑफ़ इंडिक लैंग्वेज, स्पीकिंग परीयाह (हिसार वैली में), इंडिया एंड सेंट्रल एशिया सुरेंद्र गोपाल, पृ 139-42

7. भोला नाथ तिवारी, हिंदी भाषा, पृ. 179-81

8. वही, पृ. 182-84

9. वही, पृ 186-87

10. ओरेल स्टाईन, एनसेंट सेंट्रल एशियन टेªक्ट्स, मस्तीलान एंड कंपनी, लंदन, 1966, पृ 28

11. बी.बी कुमार की लोकेश चंद्र के साथ वैयक्तिक बातचीत के आधार पर

12. पेंटी आल्टो, हेलेंस्की, द नेम ऑफ़ ताशकंद

13. वही

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