कल्याण, सुरक्षा व दीर्घायु हेतु जीवित पुत्रिका व्रत

कल्याण, सुरक्षा व दीर्घायु हेतु जीवित पुत्रिका व्रत
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मुकेष ऋषि

भारतीय संस्कृति में संतान की सुरक्षा से संबंधित अन्य पावन पर्वो की श्रृंखला के अंतगर्त संतान की मंगल कामना हेतु जीवित पुत्रिका एक पारंपरिक प्राचीनकालिक महान लोकपर्व है जो संतान को सुरक्षित, स्वस्थ प्रसन्न रखने हेतु किया जाता है। यह पावन व्रत आश्विन मास की कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि 6 अक्टूबर शुक्रवार को है। संतान की सुरक्षा हेतु इस व्रत का महत्व सबसे ज्यादा फलदायी है। इस त्रिदिवसीय व्रत को संसार के कोने-कोने में माताएंं करती हैं। पहले दिन व्रत में नहाय-खाय होता है। पहले दिन मडुवें की रोटी, नोनी का साग चील्ह सियारिन को आहार लेने से पहले समर्पित करती हैं। विधि-विधान से कुश का जीमूतवाहन बनाकर माँ दुर्गा की पूजा होती है। रात्रि जागरण रखकर भजन, पूजन होता है। तीसरे दिन पारण होता है जो कि 07 अक्टूबर शनिवार को है। इस दिन झोल भात नोनी का साग मडुवें की रोटी आहार में ली जाती है। लेकिन पारण के पहले सुबह जो मिठाई खाई जाती है उसमें से पहले चील्ह और सियारिन के नाम से दी जाती है। इसमें जीमूतवाहन भगवान की पूजा होती है। अष्टमी को पूरा दिन व्रत रखकर सायंकाल अच्छी तरह स्नान करके पूजा की सारी सामग्री सजाकर जीमूतवाहन की पूजा करते हैं। इस व्रत को करने हेतु माता पार्वती जी से भगवान शंकर जी बताते हैं कि यह व्रत संतान की सुरक्षा हेतु किया जाता है। इस व्रत में जिमितवाहन भगवान की कथा जुडी है। सतयुग में गंधर्वों के एक राजकुमार का नाम जीमूतवाहन था। वे समदर्शी, सद्आचरण वाले, सत्यवचन बोलने वाले, बड़े उदार और परोपकारी थे।

जीमूतवाहन को राजसिंहासन पर बैठाकर उनके पिता वानप्रस्थ संस्कार लेकर वन की ओर चले। जीमूतवाहन का राज-पाट में मन नहीं लगा। वे राज-पाट की जिम्मेवारी अपने भाइयों को सौंपकर पिता की सेवा करने के उदेश्य से वन में चल दिये। वन में उनका विवाह मलयवती कन्या से हुआ। वन में भ्रमण करते हुए जब एक दिन वे काफी आगे चले गये तो एक वृद्धा को क्रंदन करते देखा जिस कारण उनका हृदय विदीर्ण हो गया। वृद्धा को रोते देखकर जिमितवाहन ने उससे रोने का कारण पूछा तो वृद्धा ने बताया, मैं नागवंशी स्त्री हूँ। मुझे एक पुत्र है। पक्षीराज गरूड़ के सामने नागों ने उनके भक्षण हेतु प्रति रोज एक नाग देने की प्रतिज्ञा की है। आज मेरे पुत्र शंखचूर की बलि का दिन है। जिमितवाहन ने वृद्धा को आश्वस्त करते हुए कहा- डरो मत, मैं तुम्हारे पुत्र के प्राणों की रक्षा करूंगा। आज तुम्हारे पुत्र की बजाय मैं अपने आपको लाल कपड़ों से ढककर शिला पर लेटूंगा। इतना कहकर जीमूतवाहन ने शंखचूर के हाथ से लाल कपड़ा लेकर वह स्वयं को लाल कपड़ों में लपेटकर चुनी हुई वद्धशिला पर लेट गया। गरुड़ जी तीव्र वेग से आये और लाल कपड़े में लपेटे जिमितवाहन को पंजे से पकड़कर पहाड़ की शिखर पर जा बैठे। अपने चंगुल मे गिरफ्तार प्राणी के आंख में आंसू देख और कराह सुनकर गरुड़ जी बडे आश्चर्य में पड़े और परिचय पूछा। जिमितवाहन ने सारी कथा सुना दी। गरुड़ जी उनकी बहादुरी और दुसरों के प्राण रक्षा हेतु स्वयं को बलिदान करने की हिम्मत से बहुत प्रभावित हुए। प्रसन्न होकर गरुड़ जी ने उन्हें जीवन दान दिया तथा नागों की बलि ना लेने का वरदान दे दिया। इस प्रकार से जीमूतवाहन के साहस से नाग जाति की रक्षा हुई। तभी से पुत्र की सुरक्षा व सुख हेतु जीमूतवाहन की पूजा की शुरूआत हुई।

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