लोहिया का समाजवाद, जो घट प्रेम न संचरे

लोहिया का समाजवाद, जो घट प्रेम न संचरे
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डॉ. आनन्द पाटील

जब समाजवाद शब्द का जन्म भी नहीं हुआ था, न उसकी सैद्धान्तिकी ही विकसित हुई थी, तब भी भारतीय समाज अपनी ज्ञान गंगा, सर्वव्यापी एवं सर्वसमावेशी दर्शन के कारण विश्व में समादृत था। भारतीय समाज व संस्कृति के मूल में प्रेम, समर्पण एवं त्याग आदि मूल्यों के साथ-साथ राम, कृष्ण और शिव के चरित्र भी दैदीप्यमान हैं। प्रेम, समर्पण एवं त्याग की ये धाराएँ त्रिदेव के चरित्र में प्रवाहित होकर लोक को आप्लावित (आलोकित) करती हैं। राम शिव को पूजते हैं और शिव राम को। कहीं कोई द्वित्व नहीं है। और, कृष्ण राम के समयोचित विस्तार (एक्स्टेंशन) के रूप में लोक को सम्यक व्यवहार सिखाते हैं। मेरी समझ में, संसार में इस प्रकार का दर्शन अन्यत्र कहीं नहीं है। अकारण नहीं कि समाजवाद को नया रूप देने का प्रयास करने वाले राम मनोहर लोहिया भी राम, कृष्ण और शिव के सम्मोहन से नहीं बच पाये। जबकि वे नयी शब्दावली में उपरोक्त का स्व-इच्छित तथा अपूर्ण पुनर्पाठ ही कर रहे थे।

लोहिया का व्यक्तित्व समन्वयवादी होते हुए एक ऐसे समाजवाद की परिणति का आकांक्षी है, जिसका आधार प्रेम एवं समन्वय है। उन्होंने राम, कृष्ण और शिव के चरित्र के विषय में लिखा है - 'राम और कृष्ण शायद इतिहास के व्यक्ति थे और शिव भी गंगा की धारा के लिए रास्ता बनाने वाले इंजीनियर रहे हों और साथ-साथ एक अद्वितीय प्रेमी भी... इनकी कहानियाँ लगातार दुहरायी गयी हैं। बड़े कवियों ने अपनी प्रतिभा से इनका परिष्कार किया है और निखारा है तथा लाखों-करोड़ों लोगों के सुख और दु:ख इनमें घुले हुए हैं।Ó लोहिया ने अपने इस कथन में इतिहास से पूर्व भले ही 'शायदÓ का प्रयोग किया हो, किन्तु स्पष्ट है कि उनका समाजवाद भारतीय इतिहास एवं संस्कृति की मूल धारा से आप्लावित है। जबकि मार्क्सवादी समाजवाद प्रतिशोध एवं विद्रोह पर आधारित है। स्पष्ट है कि बाहरी चिन्तन से प्रभावित अन्य किसी भी चिन्तक की भांति लोहिया की दृष्टि में भी गहरे अन्तर्विरोध हैं, किन्तु मार्क्सवादी समाजवाद की भांति उनकी दृष्टि दमनकारी नहीं है। मार्क्सवादी समाजवाद में एक का अस्तित्व (सर्वहारा) दूसरे (बुर्जुआ) के दमन पर ही आधारित है। यह दुर्भाग्य है कि सामाजिक, शैक्षिक एवं साहित्यिक जगत् के बहुतांश वाहक आज भी मार्क्स के प्रेत को ढोकर आनन्द पाते हैं। लोहिया कट्टरता के प्रखर आलोचक थे। वहीं, यह भी अनदेखा नहीं किया जा सकता कि वे 'हिन्दू बनाम हिन्दूÓ की बात करते हुए समन्वय एवं सौहार्द का सारा दायित्व हिन्दुओं पर ही थोप देते हैं। यह एकाङ्गिता उनके व्यक्तित्व का अभिन्न अंग है।

विभाजित मानसिकता से ग्रस्तों को यह जानना-समझना होगा कि भारतीय समाज अन्य पश्चिमी समाजों की भाँति औद्योगिक क्रान्ति के परिणामस्वरूप दो भागों में विभाजित नहीं हुआ। साम्प्रतिक भारत आज भी कृषिप्रधान है। यहाँ का सामाजिक विभाजन अन्य समाजों की अपेक्षा अधिक जटिल है या उसे राजनीतिक स्वार्थों ने समय-समय पर अत्यधिक जटिल बना दिया है। इसलिए भारत में किसी भी रूप में समाजवाद कदापि सम्भव नहीं हो पाया, किन्तु यदि लोहिया के समाजवाद को समझने का यत्न किया जाये तो ज्ञात होगा कि वह भी वायवीयता से ओत-प्रोत है। उसकी जड़ें बहुत गहरी नहीं हैं। यह स्पष्टोक्ति इसलिए क्योंकि उनका समन्वय नैसर्गिक न होकर लादे गये विश्वासों पर आधारित है। प्रसङ्गावधान से उनका एक कथन उल्लेखनीय है - 'हिन्दुस्तान का भविष्य चाहे जैसा भी हो, हिन्दू को अपने आपको पूरी तरह बदल कर मुसलमान के साथ ऐसी रागात्मक एकता हासिल करनी होगी।Ó सामाजिक सौहार्द बढ़ाने का उनका यह एकांगी प्रयास गाँधी के विचारों से प्रभावित प्रतीत होता है। गाँधी को महान बनाते हुए प्राय: उनकी एकांगी, किन्तु 'पीर परायीÓ जानने वाली दृष्टि को अनदेखा करने वाला भारतीय (हिन्दू) समाज सच्चे अर्थों में महान है। लोहिया अनेक स्थानों पर गाँधी की ही भाँति एकपक्षीय प्रतीत होते हैं।

वास्तव में समस्या की जड़ में न जाकर उसे सतह से समझना और अन्तत: गलत निष्कर्षों पर पहुँचना लोहिया के समाजवाद की कमियों में से एक है। फिर भी, भारतीय समन्वयात्मक दृष्टि उन्हें विदेशी समाजवाद का भारतीयकरण करने और उसे लागू करने की स्वतन्त्रता देती है। उन्होंने दो धाराओं को जोड़ कर एक ऐसे मार्ग के निर्माण पर बल दिया, जिससे मानवीय गुणों की सभी धाराओं का समाहार हो सके। उन्होंने राम के मानव होते हुए भी दैवीय गुण एवं कृष्ण के ईश्वर होते हुए भी मानवीय गुणों के समन्वय को बहुत अधिक महत्वव दिया। कृष्ण के विषय में उन्होंने लिखा है - 'कृष्ण उसी तत्व और महान प्रेम का नाम है, जो मन को प्रदत्त सीमाओं से उलांघता-उलांघता सबमें मिला देता है।Ó उनके अनुसार कृष्ण मानवीय द्वन्द्व का समाहार करने के साथ-साथ उसे पूरी उष्णता के साथ स्वीकार करते हैं, जिसमें न शंका है और न ही ग्लानि, किन्तु राम का व्यक्तित्व मानवीय सीमाओं में बंधा होते हुए भी दैवीय पराकाष्ठा तक पहुँचता है। शिव का मानवीय रूप उन अर्थों में नहीं है, जिन अर्थों में राम व कृष्ण का है, किन्तु भारतीय समाज की भावधारा का निर्माण त्रिदेव के सम्मिलन से ही होता है क्योंकि 'राम, कृष्ण और शिव भारत में पूर्णता के तीन महान स्वप्न हैं।Ó उन्हीं के व्यक्तित्व से भारतीय सामाजिक, सांस्कृतिक ताना-बाना निर्मित एवं संचालित होता है।

यही त्रिदेव लोहिया के समाजवाद के आधार हैं, किन्तु आधुनिक अर्थों में उनका समाजवाद उथला प्रतीत होता है, क्योंकि वह एक ओर झुका हुआ है, जो कभी भी टूट कर गिर सकता है। बल्कि कहना अत्युक्तिपूर्ण न होगा कि टूट कर गिर चुका है। उसके भयंकर परिणाम भारत विभाजन के रूप में देखे जा चुके हैं। लोहिया विभाजन के बाद इसलिए सन्तप्त दिखायी पड़ते हैं क्योंकि विभाजन को रोकने में वे पर्याप्त श्रम नहीं कर पाये। वे सत्य से अनभिज्ञ नहीं थे, किन्तु उन्होंने यह मार्ग भला क्यों निकाला होगा? तत्कालीन सामाजिक, राजनैतिक परिस्थितियों को ध्यानपूर्वक जानने-समझने से ज्ञात हो जायेगा। किसी भी बात के होते हुए नकारा नहीं जा सकता कि लोहिया ने समाजवाद के भारतीयकरण हेतु यत्न किया है। भारतीयकरण की प्रक्रिया में ही वे समन्वयात्मकता का समावेश करते हैं। यह सत्य है कि उनकी अपेक्षाएँ प्राय: हिन्दुओं से ही रहीं, किन्तु वे समझ नहीं सके कि हिन्दू किसी भी समय में एकत्व-शक्ति बन कर अन्य पन्थानुयायियों की भांति संहारक रूप में एकजुट नहीं हुए। यही कारण है कि भारत में आज तक अन्य पन्थानुयायियों का जीवन सुलभ बना हुआ है। यह राम, कृष्ण और शिव के प्रेम, समर्पण एवं त्याग से संस्कारित समाज का सत्य है।

फिर भी हठात्, आधुनिक अर्थों में लोहिया के समाजवाद को लागू करना हो तो तत्कालीन परिस्थितियों से आगे बढ़ कर वर्तमान सामाजिक यथार्थ की परख करनी होगी। समय के प्रवाह में भारतीय राजनीति ने अभारतीय तत्वों से सीखे हुए पैन्तरों में समाज को उलझा कर उसे क्षत-विक्षत किया है। ऐसे में, लोहिया का समाजवाद कारगर सिद्ध हो भी सकता है, कहना भ्रामक होगा। राम, कृष्ण और शिव भारतीय जीवन एवं संस्कृति के मूलाधार हैं। उसी मूलाधार पर समाज को संचालित करना श्रेयस्कर होगा। यह भी कि वर्तमान समाज में होने वाली सत्यों की सतत टकराहट व मन्थन से जो विषामृत निकलेगा, उसे ग्रहण करके ही नवीन समाज निर्मित होगा। जब उपरोल्लिखित जैसे सिद्धान्तों की अनावश्यक मार होने लग जाये, तब कृष्ण ने जैसे गोवर्धन उठा कर अपने गौ व गोपालों की रक्षा की थी, भारतीयों को वैसा ही कृत्य सतत अचूक करना होगा। साथ ही स्मरण रखना होगा कि ताण्डव, संहार व त्याग भी मूलाधार में विद्यमान हैं।

(लेखक अखिल भारतीय राष्ट्रवादी लेखक संघ के संस्थापक हैं)

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