पुण्य श्लोका लोकमाता अहिल्याबाई होलकर की राजश्री से राजर्षि तक की यात्रा

पुण्य श्लोका लोकमाता अहिल्याबाई होलकर की राजश्री से राजर्षि तक की यात्रा

फाइल फोटो - महारानी अहिल्याबाई होल्कर

डॉ सुनीता शर्मा, लेखिका एवं शिक्षाविद्

लोकमाता अहिल्याबाई होलकर की 300वीं जयंती पर विशेष

भारत ऐसे ही विश्व गुरु नहीं बना था। यहां की महिलाओं ने इतिहास में वह स्थान अर्जित किया है जिससे देवता भी वंचित रहे हैं। लौह महिला महारानी अहिल्याबाई होल्कर का व्यक्तित्व व कृतित्व उन्हें विश्व की श्रेष्ठतम महिलाओं की पंक्ति में अग्रणी बनाता है जिनका भारत के इतिहास और जनमानस पर विशेष प्रभाव रहा है। विश्व के सबसे बड़े महिला संगठन राष्ट्र सेविका समिति कर्तृत्व के आदर्श के रूप में लोकमाता अहिल्याबाई होलकर का अनुसरण करती है।


बचपन के संस्कार ही बच्चों के भविष्य का निर्माण करते हैं। यही संस्कार जीवन की सफलता का मार्ग प्रशस्त करते हैं। किसे पता था चौंडी ग्राम जामखेड़ अहमदनगर में एक छोटी सी सौम्य, शांत, तेजवान बालिका मालवा के सूबेदार मल्हारराव को अपनी भक्ति व गायन से इस कदर प्रभावित कर देगी कि वह अपने पुत्र खंडेराव के विवाह के लिए मानकोजी के समक्ष प्रस्ताव रखने से भी नहीं हिचकिचाएंगे।

बालिका के संस्कारों से प्रभावित मल्हारराव आश्वस्त थे कि यह बालिका अपने संस्कारों ,कुशल व्यवहार ,सेवा भावना से सभी का हृदय जीत लेगी और क्रोधी, हठी, विषय वासनाओं में रत पुत्र खंडेराव को सही दिशा में लाने में अवश्य सफल होगी और हुआ भी यही। बालिका अहिल्याबाई में आदर्श भारतीय नारी के सभी गुण विद्यमान थे। अपने विवेक, नम्रता, सेवा, त्याग और सहनशीलता का ही यह परिणाम था कि खंडेराव में आत्म गौरव व वीरता का भाव उत्पन्न हुआ। खंडेराव के जीवन में आए आमूल चूक परिवर्तनों का कारण अहिल्याबाई बनी। अहिल्याबाई ने भी शनै: शनै: राजकाज के कार्यों में रुचि लेना प्रारंभ किया और युद्ध क्षेत्र में गोला बारूद, बंदूक, तोप और रसद की व्यवस्था की जिम्मेदारी अब उन्हीं पर थी। इसी बीच 1745 व 1748 में अहिल्याबाई ने क्रमशः मालेराव व मुक्ताबाई को जन्म दिया।

भरतपुर का युद्ध मल्हारराव, खंडेराव और देवी अहिल्याबाई की मानो परीक्षा लेने ही आया था। जाटों और मराठों के बीच घमासान युद्ध हुआ और युद्ध का परिणाम खंडेराव के जीवन से चुकाना पड़ा। मल्हार राव के लिए पुत्र की मृत्यु की वेदना सहन करना असहनीय था वहीं अहिल्याबाई ने सती होने का प्रण लिया कि प्राणों से प्रिय पति अगर जीवित नहीं हैं तो मेरे जीवन का भी कोई अर्थ नहीं है। श्वसुर मल्हार राव के लाख समझाने के बाद ही अहिल्या ने सती होने का विचार त्यागा और जी जान से प्रजा की सेवा करने का दायित्व निभाया। "बहुजन हिताय बहुजन सुखाय' के मूल मंत्र को अपने जीवन में उतार राजसी सुखों का त्याग कर दुखी, पीड़ित जनों की सेवा को ही उन्होंने अपने जीवन का परम लक्ष्य बना लिया।

कुशल शिक्षक श्वसुर मल्हार राव के संरक्षण व मार्ग निर्देशन में शिष्या ,पुत्रवधू अहिल्याबाई अब राजकाज के कार्यों में कुशल हो रही थी। मल्हार राव अपने जीते जी पुत्रवधू को देश- दुनिया की भौगोलिक, राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक स्थिति से परिचित कराना चाहते थे इसी कारण उन्होंने उसे देशाटन के लिए भी भेजा। समाज के बीच में रहकर ही समाज का बेहतर ज्ञान होता है। अब वे स्वयं लगान वसूलती, न्याय करती, आदेश निकालती और जनता के दुख दर्द को दूर करने का हर संभव प्रयास करती। मल्हार राव कुशल शासक थे। कई बार युद्धों में व्यस्त होने के कारण राज्य से जब वे बाहर रहते तो पत्रों के माध्यम से अहिल्याबाई का मार्गदर्शन भी करते थे।

"मल्हार राव का अहिल्याबाई को आशीर्वाद। मैंने पिछले पत्र में भी तुम्हें लिखा था कि बिना रुके सीधे ग्वालियर पहुंचों। वहां 5-7 दिन ठहरो। वहां 1000 या 500 बड़ी तोपों के गोले और हो सकें तो इतनी ही छोटी बंदूकों के गोले तैयार करवाओ। पसंद करके सौ बड़े बर्तन खरीदो जिनमें तीरों के लिए एक सेर का पाउडर समा सके। इस काम को तुरंत करो। मैंने तुम्हें पूर्व में भी छोटी तोपों की और ध्यान देने को कहा था। हथियार बनाने के लिए एक माह के खर्च की पूरी व्यवस्था रखो।'

आगरा : 3 जनवरी, 1765

मल्हार राव

इतिहास में ऐसे उदाहरण संभवत देखने को कहीं नहीं मिलते हैं। कभी पिताओं ने भी अपनी पुत्री का इस भांति संरक्षण व मार्गदर्शन नहीं किया होगा।

कर्तव्यनिष्ठ व ममतामयी मां-

होलकर राज्य के संस्थापक, मराठा साम्राज्य के भीष्म पितामह कहे जाने वाले मल्हार राव का 1766 ईस्वी में निधन हो गया। मराठा साम्राज्य के आधार स्तंभों में से एक पराक्रमी, शक्तिशाली और स्वामी भक्त सरदार मल्हारराव के जाने से मराठा साम्राज्य को भी गहरा आघात लगा था। एक के बाद एक अपने प्रियजनों पहले पति और अब पिता तुल्य ससुर का इस तरह बिछड़ना अहिल्याबाई के लिए असहनीय था। मात्र 21 वर्ष की आयु में मालेराव सुपुत्र अहिल्याबाई मालवा की गद्दी पर आसीन हुआ। अहिल्याबाई हमेशा पुत्र मालेराव के लिए चिंतित रहती थी। मालेराव प्रजा के साथ कठोर व्यवहार करता, ब्राह्मणों को जो दान (अन्न, मिठाई) दिए जाते उसमें सांप, बिच्छू रख देता। प्रजा आतंकित रहती। पूर्वजों की गरिमा धूल में मिल रही थी। लाख समझाने पर भी पुत्र मालेराव के स्वभाव में कोई परिवर्तन नहीं आया। एक धर्मनिष्ठ, सनातनी, संस्कारों से युक्त मां और रानी के लिए कठोर परीक्षा की घड़ी थी लेकिन इस समय भी ममतामयी माता से पूर्व वह लोकमाता थी। प्रजा के कल्याण व संरक्षण के लिए कर्तव्यनिष्ठ रानी ने अपने पुत्र मालेराव को हाथी से कुचलवा दिया। यह एक ऐसा निर्णय था जिसे एक मां कभी नहीं ले सकती थी लेकिन अहिल्याबाई के लिए मां, पत्नी, बहू से बड़ा दायित्व था अपनी प्रजा के हित के लिए कार्य करने का। इतिहास में शायद ही ऐसा कोई और उदाहरण देखने को मिलेगा।

पुत्री मुक्ताबाई के विवाह की कहानी रानी के राजनीतिक कौशल की एक अनोखी दास्तां है। राज्य में चोर, डाकुओं का आतंक इतना अधिक था कि व्यापारी, यात्री और प्रजा भयभीत थे। ऐसे में रानी ने घोषणा की थी कि जो भी व्यक्ति इन डाकुओं का राज्य से सफाया कर देगा उससे वह अपनी पुत्री का विवाह कर देंगी। यशवंत राव फडसे ने रानी की है शर्त पूरी की और इस तरह मुक्ताबाई का विवाह वीर व बुद्धिमान योद्धा यशवंत फणसे से हुआ। मुक्ताबाई के पुत्र नथ्या से अहिल्याबाई अत्यंत प्रेम करती थी। लंबी बीमारी से नवासे नथ्या की मृत्यु और उसके बाद यशवंत राव फणसे की मृत्यु ने अहिल्याबाई को तोड़कर रख दिया। दुर्भाग्य तो यह रहा कि पति की मृत्यु पर पुत्री मुक्ताबाई ने भी सती होने का निश्चय किया। ये सभी आघातों को सहन करना किसी लौह महिला के लिए भी सहनीय नहीं होगा। धीरे-धीरे सब अपने बिछड़ रहे थे। पहले पति फिर ससुर, पुत्र ,नवासा, दामाद और पुत्री। जीवन का रस निचुड़ चुका था। फल-फूल से लदे वृक्ष पर मानो पतझड़ ने बसेरा बना लिया था। तब भी अपनी प्रजा के हित व संरक्षण के लिए रानी उठ खड़ी हुई। अपने साम्राज्य के संरक्षण के लिए जो कुछ भी संभव था वह उन्होंने किया।

कुशल राजनेता-

अहिल्याबाई होलकर ने 1757 में होलकर राज्य की बागडोर संभाली। श्वसुर मल्हारराव से मिले संस्कारों व मार्गदर्शन का यह प्रभाव रहा की रानी अहिल्याबाई में एक कुशल शासक के सभी गुण विद्यमान थे। प्रजा के हित में उठाए कदमों ने उन्हें लोकमाता की उपाधि दी। प्रजा की भलाई, सुरक्षा, सुख सुविधा जुटाना, बाहरी आक्रमण, विद्रोहियों और डाकुओं से राज्य की रक्षा करने के हर संभव प्रयास रानी ने किए। एक और जहां राज्य को चोर डाकुओं से सुरक्षित रखा वहीं दूसरी ओर राज्य के शत्रुओं से भी (उदयपुर के राजा जगत सिंह और रामपुरा के सरदार चंद्रावत माधव सिंह, गंगाधर चंद्रचूड़, दादा राघोबा)।

अहिल्याबाई ने महिलाओं की सेना भी तैयार कर उन्हें हथियार चलाना,रण व्यूह का प्रशिक्षण देना भी प्रारंभ किया। रानी ने अपने शत्रु दादा राघोबा को एक पत्र लिखा- "आप मेरा राज्य हड़पने आए हैं। यह आपको शोभा नहीं देता। आप एक नारी के साथ युद्ध मत कीजिए नहीं तो यह कलंक मिट नहीं पाएगा। मैं एक असहाय नारी हूं यह समझकर आप आए हैं तो इस बात का पता युद्ध भूमि में चलेगा। मैं एक स्त्री हूं। युद्ध में हार भी गई तो मुझे कोई याद नहीं रखेगा, आप युद्ध में हार गए तो जग में अब आपकी हंसी होगी। मैं अपनी महिला सेना के साथ युद्ध भूमि में आपका मुकाबला करूंगी। आपका भला इसी में है जैसे आए हैं वैसे ही चुपचाप वापस चले जाएं।'

दादा राघोबा ने जब यह पत्र पढ़ा तो विशाल सेना ,महिला सेना और युद्ध की तैयारी ने दादा राघोबा के हौंसले पस्त कर दिए और इस तरह रानी ने बिना युद्ध लड़े, बिना खून खराबे के युद्ध जीता भी और एक शत्रु को अपने व्यवहार से मित्र भी बना लिया।

जन कल्याण के क्षेत्र में भी रानी अहिल्याबाई ने अनेक कार्य किए। वह अपनी प्रजा को अपनी संतान मानती थी। उन्होंने अपने शासनकाल में कई कानूनों को समाप्त किया, किसानों का लगान कम किया, कृषि, उद्योग धन्धों को सुविधा देकर विकास के अनेक काम किए । चोर,डाकुओं को सही रास्ते पर लाकर उनके जीवन में सकारात्मक परिवर्तन ला उन्हें बसाया भी। काशी में एक ब्राह्मण का घर जलकर राख हो गया था। वह सहायता के लिए रानी के पास आया तो उन्होंने इस बात की सत्यता जानने पर उसे नया घर बनवा कर भेंट किया।

रानी राहगीरों, गरीबों, विकलांगों, साधु- संतों,पशु- पक्षियों, जीव- जंतुओं सभी का ध्यान रखती थी यहां तक कि अपने सैनिकों, कर्मचारियों के कल्याण के लिए भी वह कभी पीछे नहीं हटी। वेतन समय पर देना, शौर्यपूर्ण कार्य करने वाले स्वामी भक्त सैनिकों को पुरस्कृत करना इत्यादि। अहिल्याबाई का हृदय समाज के सभी वर्गों के लिए धड़कता था। उन्होंने बद्रीनाथ, केदारनाथ, रामेश्वरम, जगन्नाथ पुरी, द्वारका,पैठण, महेश्वर, वृंदावन, सुपलेश्वर, उज्जैन, पुष्कर, पंढरपुर , चिंचवाड़, चिखलदा, आलमपुर, देवप्रयाग, राजापुर स्थानों पर मंदिरों का पुनर्निर्माण करवाया तथा घाट बनवाएं और अन्नसत्र या सदावर्त खुलवाए जहां लोगों को प्रतिदिन भोजन मिलता था। काशी विश्वेश्वर मंदिर के साथ-साथ पूरे देश के मंदिरों का निर्माण व पुनर्निर्माण का कार्य रानी ने करवाया। त्र्यंबकेश्वर ज्योतिर्लिंग में तीर्थ यात्रा के लिए विश्रामगृह, अयोध्या, नासिक में भगवान राम के मंदिरों का निर्माण, सोमनाथ मंदिर का पुनर्निर्माण, उज्जैन में चिंतामणि गणपति मंदिर निर्माण ये सभी कार्य रानी ने दिल खोलकर किए हैं। उन्होंने कल्याणकारी व परोपकारी कार्यों द्वारा राष्ट्र निर्माण का महत्ती कार्य भी किया तथा देश में धार्मिक, सामाजिक, राष्ट्रीय एकता कायम करने के लिए सराहनीय प्रयास किए। इन सभी कार्यों के लिए भी केवल "खासगी संपत्ति' ही खर्च करती थी जिस पर पूर्णतया राज परिवार का अधिकार था।

प्रसिद्ध इतिहासकार श्री चिंतामणि विनायक वैद्य ने लिखा है- "उनकी धार्मिकता इतनी उदार थी कि धर्म व नीति के हर क्षेत्र में उन्होंने अपना नाम अजर-अमर कर दिया ।उनका दान-धर्म इतना महान था कि वैसा दान-धर्म आज तक हिंदुस्तान में किसी ने भी नहीं किया है।'

रानी अहिल्याबाई में इतिहास के गौरवशाली वीरों के गुण देखने को मिलते हैं। कोई भी महिला सर्वगुण संपन्न कैसे हो सकती है? इतिहास, वर्तमान और भविष्य में केवल एक ही व्यक्ति में इतने गुणों का समावेश होना संभव ही नहीं है। धर्माचरण, शासन प्रबंध, विद्वानों का सम्मान व न्याय, दानशीलता ,उदार धर्म नीति, भक्ति भावना, वीरता, त्याग व बलिदान, साहस ,शौर्य से परिपूर्ण रानी अहिल्याबाई युगों- युगों तक अमर रहेगी। इतिहास के दिग्गज शासको के गुणों से परिपूर्ण रानी हम सभी की प्रेरणा स्रोत है।रानी का नाम सदा स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाएगा।

देवी अहिल्याबाई का सादगी पूर्ण जीवन, नीति युक्त शासन और कुशल राजनीति का संसार के इतिहास में एक विशेष स्थान है।

13 अगस्त,1795 के दिन 70 वर्षीय रानी की दिव्य आत्मा ने शरीर छोड़ दिया। लोकमाता अहिल्याबाई राजश्री से राजर्षि के रूप में संसार में प्रसिद्ध हुईं। कवि मोरोपंत के शब्दों में-

"देवी अहिल्याबाई का निष्ठावान और कर्तव्य परायण चरित्र महाराष्ट्र ही नहीं अपितु पूरे देश में लोकप्रिय है। वह गंगा नदी के समान पवित्र हैं। सदा सद्भावना युक्त कार्य कर सभी का कल्याण करती हैं। इन्हीं सद्गुणों के कारण वह जन-जन के हृदय में स्थान ग्रहण किए हुए है।'

ससुर मल्हारराव ने जिस प्रकार अहिल्याबाई होलकर का मार्गदर्शन व संरक्षण किया व उन पर विश्वास जताया ऐसा तो

कभी पिताओं ने भी अपनी पुत्री का संरक्षण व मार्गदर्शन नहीं किया होगा। मल्हार राव द्वारा अहिल्याबाई को लिखे पत्र इतिहास के वे दस्तावेज हैं जो प्रत्येक व्यक्ति को प्रेरित करते हैं कि वे भी अपनी बेटियों पर इसी प्रकार विश्वास बनाए रखें और निरंतर उन्हें आगे बढ़ने की प्रेरणा देकर उनका मार्ग प्रशस्त करें। वर्तमान समय में अहिल्याबाई होलकर एक जीवंत उदाहरण है। देश की बेटियों को उनकी योग्यता के आधार पर अगर अवसर दिए जाएं तो इस देश की बेटियां लक्ष्मीबाई और अहिल्याबाई होलकर के पदचिन्हों पर चलकर देश के गौरव का मान बढ़ाने वाली बनेंगी। हमें अपनी संकुचित सोच से बाहर निकलकर बेटियों को संरक्षण देकर आत्मनिर्भर, आत्मविश्वासी बनाने का संकल्प लेना चाहिए ताकि वे डर, धोखे व शोषण का प्रतिकार कर मजबूती से अपनी उपस्थिति सिद्ध करें।

पुण्य श्लोका अहिल्याबाई होलकर की 300 वीं जयंती पर हम उन्हें प्रणाम करते हैं।

हे कर्मयोगिनी! राज्य योगिनी!

जयतु अहिल्या माता।

युगों-युगों तक अमर रहेगी

यश कीर्ति की गाथा।

जय जयतु अहिल्या माता।।

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