भारत में लॉर्ड मैकाले का प्रेत: साँस लेत बुनि प्राण

भारत में लॉर्ड मैकाले का प्रेत: साँस लेत बुनि प्राण
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वज्रपात- डॉ. आनन्द पाटील

राष्ट्र, राष्ट्रीयता एवं राष्ट्रवाद को व्यर्थ मानने वाले देश एवं समाज में चाणक्य का पुन:स्मरण व्यर्थ है। चाणक्य को गये अब बहुत लम्बा समय बीत गया है। अब शिक्षकों में वह बात ही कहाँ कि वह कह सकें कि प्रलय और निर्माण उसकी गोद में पलते हैं। बल्कि अब वह गोद लिये बच्चे की भाँति अबोध-से प्रतीत होते हैं। उनकी वाणी में प्रखरता का स्थान तुतलाहट ने ले लिया है। अब शिक्षकों का कोई ठीक-ठिकाना थोड़ी है? उन्हें यथावश्यकता सत्ता के सामने प्राय: नतमस्तक देखा जा सकता है। जैसे ही सत्ता परिवर्तित होती है, 'तन तरफत तुव मिलन बिनÓ का भाव लिये वे सत्ताधीश के पास पहुँच जाते हैं और चारण भाव से 'भिक्षां देहि कृपावलम्बनकरीÓ गाते-गाते जो ही पा जाते हैं, अति प्रसन्नमुख मुद्रा में 'जै जैÓ का नाद स्वर गुँजायमान करते हुए 'जै जै कहि भुइं लोटहीं निजजन सहितÓ की रूपायमान स्थिति के साथ अपनी झोली भर कर लौट पड़ते हैं। एक रहस्यमयी एवं अभेद्य दुर्ग रूपी उच्च शिक्षा और शोध संस्थान के ऐसे ही शिक्षक (?) 'कर्पूरगौरं करुणावतारंÓ गा ही रहे थे कि अचानक मैकाले के भूत की गहरी निद्रा भंग हुई। उसने करवट बदली और वह अंगडाई लेकर जाग उठा। और, अट्टहास करने लग गया। उस अट्टहास की गूँज से पूरे वातावरण में सिहरन दौड़ गयी। मैकाले की मृत्यु के इतने वर्षों के बाद, अचानक उस भूत का करवट लेकर जाग उठना और अट्टहास करना, सबको किसी अनहोनी की आशंका से ग्रस्त कर गया।

भारत में ब्रिटिश राज का काल 'तान्त्रिक कालÓ से किसी भी रूप में कम थोड़ी ही था? ब्रिटिशों की ईशोपासना प्रेतोपासना (भूतोपासना) से किसी भी अर्थ में अलग थोड़ी ही थी? ब्रिटिश वज्रयानियों से भी भयंकर तन्त्र साधक सिद्ध हुये। वे जीते-जागते मनुष्य को ही भूत बनाने की शक्ति रखते थे। जानते हैं न कि भूतात्माएँ सबको अपने वश में करने के लिए सतत प्रयत्नशील रहती हैं। ध्यान दीजिए कि ब्रिटिशों का वह मैकालियन 'भूतÓ काल वर्तमान तक विस्तारित है। कहते हैं, भूत सबसे दुर्बल (कमज़ोर) के शरीर को अपना ग्रास बनाते हैं। 'ग्रासÓ बहुत भयंकर शब्द प्रतीत होता है, नहीं? वैसे भूत, मन्त्र, तन्त्र की बात हो रही है, तो यह शब्द चल जायेगा, किन्तु यहाँ 'ग्रासÓ के स्थान पर 'निवासÓ को ही ग्रहण करना उचित होगा ताकि भूतिया भयावहता कुछ कम हो। तो, मैकाले के भूत ने सबसे पहले स्वयं को दुर्बल मानने वालों की खोज की। जबकि वह खोज बहुत लम्बी नहीं चली। जानते हैं? भूत के केवल पाँव ही पीछे नहीं होते, अपितु उनकी आँखें भी, पीछे क्या, 360 डिग्री के चौफेर कोण में फिरायमान होती हैं। मैकाले के भूत ने केवल चार ही वर्षों में (1834-1838) चौफेर भ्रमण कर भारत के दुर्बलों की खोज कर ली थी। जानते हैं? जो स्वयं को दुर्बल नहीं ही मान रहे थे, उनको उस मैकाले के भूत ने येनकेन प्रकारेण, अन्ततोगत्वा दुर्बल बना ही दिया। उस दुर्बलता के अभियान में उसका सारा भूतिया तन्त्र जुट गया था। इधर, जब रहस्यमयी उच्च शिक्षा और शोध संस्थान के शिक्षक 'कर्पूरगौरं करुणावतारंÓ गा रहे थे, तब मैकाले का भूत अचानक जाग कर अट्टहास करने लग गया, तो पता चला कि उसका तन्त्र इतने वर्षों के उपरान्त भी सक्रिय है। यह उस भूत (तन्त्र) और भूतिया मिशन की सफलता थी।

मैकाले के भूत ने काल बन कर काले मनुष्यों (भारतीयों) को मानसिक रूप से अपने तन्त्र में फाँस कर रखा है। वह काले को गौरांग तो नहीं ही बना सकता था। भूत की अपनी सीमाएँ भी तो होती हैं। वैसे, मैकाले जैसे भूत चतुराई भी करते हैं। इस बात का पूरा ध्यान रखते हैं कि कोई भी वशीभूत आत्मा समानुपातिक शक्तिग्राही न बन जाये, अपितु उनकी मातहत ही बनी रहे। वैसे यदि वह काले को गौरांग बना सकता या बना देता, तो यह पूरी सम्भावना थी कि सारे के सारे काले मनुष्य गौरांग बालाओं (मेम) के फेर में पड़े रह जाते और वह 'माला फेरत जुग गयाÓ की स्थिति में अपने 'मन का फेरÓ पूरा न कर पाता। वह सूरदासी गोपियों के वचनों के भावबोध में 'अति चतुरÓ था - 'इक अति चतुर हुते पहिले ही, अब गुरु ग्रन्थ पढाये।Ó अत: उसने कालों को काला ही बनाये रखा। उसकी दृष्टि में काला अवर्ण था और वह सवर्ण (श्वेत)। उसने सवर्ण-अवर्ण का मामला तो फँसाया ही। ऊपर से, काले को मानसिक रूप से गुलाम बनाने में सफलता अर्जित कर ली। काला रंग गुलामी का प्रतीक बन चुका था। काले न जाने क्यों इस सत्य से अनभिज्ञ थे (हैं)?

वैसे, कहते हैं, दास प्रथा विरोध के प्रणेता कहलाने वाले विलियम विल्बरफोर्स ने 1813 ई. में हाउस ऑफ कॉमन्स में घोषणा की थी कि जैसे दक्षिण अफ्रीका को गुलामी से मुक्त कराना है, उसी प्रकार हिन्दुओं को उनके (हिन्दू) धर्म से मुक्त कराना है। उसने कहा था कि ऐसा करना प्रत्येक ईसाई का पवित्र कर्तव्य है। अब क्या कहें, उनका सब कुछ पवित्र ही होता है। बाकी सब अपवित्र। इसलिए वे अपवित्रों पर पवित्र जल छिड़काव कर पवित्र बनाने का प्रयोगधर्मी उद्यम करते हैं। विल्बरफोर्स इञ्जील ईसाई था और क्लैफम सेक्ट का सदस्य भी था। पवित्र सोच का व्यक्ति था। इसलिए उसके साथ ईसाई जैसा उपसर्ग प्रयोग नहीं करना चाहिए, क्योंकि उससे आपका साम्प्रदायिक होना प्रमाणित हो जाता है। विलियम विल्बरफोर्स भला मानुस था। उसे भारतीयों (हिन्दुओं) की बहुत चिन्ता थी। इसलिए 1813 में पारित चार्टर अधिनियम को संयोग नहीं कहना चाहिए। उसी अधिनियम के माध्यम से पवित्र ईसाइयों ने अपवित्र भारतीयों को उनके गुलामी के द्योतक हिन्दू धर्म से मुक्ति दिलाने का कार्य आरम्भ किया था। वहीं से भारत में नवशिक्षा (आधुनिक) की नींव पड़ी थी। गुरुकुल प्रणाली चूँकि अपवित्र, भेदभावपूर्ण और केवल पोंगापन्थी थी, तो उसे शनै:-शनै: मिटाने का कार्य आरम्भ हुआ था।

1 अक्टूबर 2023 को प्रकाशित वज्रपात - 'ईसाइयत, नेहरू और हिन्दी: लज्जा लोक की, बोलै नहीं साँचÓ में मैंने चार्टर अधिनियम के कुछेक पक्षों को उजागर किया है। तो, लौटिए मैकाले के अचानक जाग उठे उस भूत के अट्टहास पर - विलियम विल्बरफोर्स का हाउस ऑफ कॉमन्स में वैसी घोषणा करना (1813), चार्टर अधिनियम का बनना (1813), भारत में मिशनरी स्कूलों की नींव पड़ना (1813), भारत उद्धारक मैकाले का भारत आना (1835), गुरुकुल प्रणाली एवं भारतीय शिक्षा पद्धति का समाप्त होना, कालों में सवर्ण-अवर्ण का भेद खड़ा होना, भारतीयों का मैकालियन शिक्षा के माध्यम से गुलाम बनना शृंखलाबद्ध रूप में अबाध सम्पन्न होता रहा है। जब उस रहस्यमयी एवं अभेद्य दुर्ग रूपी उच्च शिक्षा और शोध संस्थान में मैकाले जयन्ती की योजना बनी, तो यह पुन: सिद्ध हो गया कि उस मैकाले ने कालों को भले ही गोरा न बनाया हो, किन्तु उन्हें 'काले अंग्रेज़ बनानेÓ में उसे अभूतपूर्व सफलता मिली है। मैकाले के इस अभूतपूर्व भूत से इस समाज और राष्ट्र को कब छुटकारा मिलेगा, कहना कठिन है। जबकि राष्ट्रीय शिक्षा नीति चर्चा में रेंगती हुई बुढ़िया-सी लकुटिया टेक कर, रुक-रुक कर, लड़खड़ाती हुई ही सही, किन्तु चल रही है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति के लागू होने के बावजूद मैकाले की जयन्ती मनाना राष्ट्रद्रोह से कमतर नहीं कहा जा सकता, किन्तु यह बात स्पष्ट है कि डरी हुई सरकारें कभी बड़े निर्णय नहीं कर पातीं। यह भारत का संघर्षशील इतिहास प्राय: बता कर और जता कर जाता है। लॉर्ड मैकाले से लेकर जॉर्ज सोरोस तक भारत विखण्डन जारी है। हमारी सरकार अति उदार (कल्पनातीत सहिष्णु) है। यदि कोई मुद्दा उठा लेता है, तो उसका उपहास करते हुए कहती है - 'दया धरम नहीं मन में। मुखड़ा तो देख दर्पण में।Ó

चाहे जो हो, अब यह प्रमाणित है कि मैकाले का भूत उस औपनिवेशिक दासत्व को इस सम्प्रभु राष्ट्र में, 21वीं शताब्दी में भी जाग्रत रखने में सक्षम है। कोई सहज भाव से, किन्तु क्रोध में कह गया - अरी ओ री मोदी सरकार - 'चेतो भइया अबहुँ न नींद सिरानी। शति बीत गई दिन चढ़ि बीत्यो संध्या फिर नगियानी। अस गाढ़ी निद्रा नहिं देखी सुधि दुधि सबै हिरानी।Ó मत भूलो कि कोई भी देश और समाज अपने स्वत्व की खोज किये बिना न तो जीवित रह सकता है और न ही उसके बिना अपनी नियति को पहचान सकता है। यह स्वत्व खोजने का काम सरकार ही को न करना पड़ेगा जी? या आप रघुवीर सहाय की कविता में अभिव्यक्त भाव की पुष्टि करने में ही विनत भाव से लगे रहेंगे - 'अँग्रेज़ों ने अँग्रेज़ी पढ़ा कर प्रजा बनाई। अँग्रेज़ी पढ़ा कर अब हम राजा बना रहे हैं।Ó तब तो जी जै जै ही कहा जाये। उस रहस्यमयी संस्थान में जै जै हो ही रही है।

(लेखक अखिल भारतीय राष्ट्रवादी लेखक संघ के संस्थापक हैं)

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