सऊदी अरब द्वारा मस्जिदों में लाउडस्पीकरों पर पाबंदी – एक सकारात्मक पहल

सऊदी अरब द्वारा मस्जिदों में लाउडस्पीकरों पर पाबंदी – एक सकारात्मक पहल
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वेबडेस्क। हाल ही सऊदी अरब सरकार द्वारा जारी एक आदेश में अजान के दौरान मस्जिदों के बाहर लगे लाउडस्‍पीकर की आवाज को सीमित करने के निर्देश दिए गए हैं। बुजुर्गों, मरीजों और बच्चों के हित में सऊदी अरब प्रशासन ने कड़ा रुख अपनाते हुए फ़ैसले का उल्लंघन करने वालों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई की चेतावनी भी दी है। विश्व पर्यावरण दिवस (5 जून) से ठीक पहले आए इस आदेश का पूरी दुनियाँ में बड़े स्तर बुद्धिजीवियों और आम जनता में स्वागत हुआ है और इसे प्र‍िंस मोहम्‍मद बिन सलमान के द्वारा सऊदी अरब में सार्वजनिक जीवन में इस्लाम की भूमिका को लेकर किए जा रहे सुधारों का हिस्‍सा बताया जा रहा है।

आज जब पूरी दुनियां जल, वायु और भूमि प्रदूषण से बुरी तरह त्रस्त है उस समय सऊदी सरकार का यह फैसला निश्चित ही स्वागत योग्य है। बच्चों, बुजुर्गों और बीमारों के लिए तो इस तरह का ध्वनि प्रदूषण जानलेवा है ही, साथ ही सॉफ्टवेयर कंपनी, कॉल सेंटर, बीपीओ जैसी जगह देर रात तक कार्यालयों में काम करने वाले लोगों को भी सुबह उनकी नींद में बाधा पहुंचाने वाला है। बढ़ते ध्वनि प्रदूषण के कारण आम आदमी में अवसाद, तनाव, चिड़चिड़ापन, हाइपर टेंशन, बहरापन, और अन्य अनेक मनोवैज्ञानिक दोष लगातार बढ़ रहे हैं। डबल्यूएचओ की एक रिपोर्ट के अनुसार लंबे समय तक 60 डेसीबल से अधिक स्तर की ध्वनि के संपर्क में रहने पर गंभीर बीमारियाँ पैदा हो सकती है। इस संबंध में एबीपी न्यूज द्वारा की गई एक जांच में देश के विभिन्न हिस्सों में मस्जिदों के पास ध्वनि का स्तर 90 डेसीबल से भी ऊपर तक पाया गय है।

भारत में छिड़ी बहस -

सऊदी सरकार की इस पहल ने भारत में भी इस प्रकार के सुधारों की एक बहस छेड़ दी है और कहा जा रहा है कि जब एक इस्लामिक देश ऐसा कर सकता है, तो भारत जैसा एक सेक्युलर देश ऐसा क्यों नहीं कर सकता। जहाँ इस्लामिक विद्वान आरिफ़ मोहम्मद खान, जावेद अख्तर और तारिक फतेह जैसे लोगों ने इस तरह के सुधारों की पैरवी की है तो वहीं कुछ कट्टरपंथी लोगों ने इसे सीधे इस्लाम पर ही आघात बता दिया है। प्रगतिशील मुस्लिम विद्वानों का तर्क है कि मस्जिद के इमाम नमाज़ शुरू करने वाले हैं, इसकी जानकारी मस्जिद में मौजूद लोगों को होनी चाहिए, ना कि पड़ोस के घरों में रहने वाले लोगों को। पूरी नमाज को लाउडस्‍पीकर पर सुनाने की कोई जरूरत नहीं है। ये क़ुरान शरीफ़ का अपमान है कि आप उसे लाउडस्पीकर पर चलाकर उसे भी सुनाएं जो उसको ना सुनना चाहे। सऊदी अरब के इस्‍लामिक मामलों के मंत्री अब्‍दुललतीफ अल शेख ने कहा है कि इस तरह के आदेश की आलोचना करने वाले लोगों का उद्देश्य सिर्फ घृणा फैलाना होता है ताकि समस्‍या पैदा हो। ऐसे लोग देश के दुश्‍मन हैं। उल्लेखनीय है कि पैगंबर-ए-इस्लाम हजरत मोहम्मद की हिदायतों हदीस में भी निर्देश है कि नमाज पढ़ते समय या इबादत करते समय आवाज को दूसरों की आवाज से ऊँची नहीं करनी चाहिए।

वोट बैंक की राजनीति -

भारत में सरकारें समस्या की गंभीरता को ना समझते हुए इसे सिर्फ वोट बैंक की राजनीति के रूप में देखती है। इसी संदर्भ में यदि राजस्थान सरकार की बात की जाए तो हाल ही उसने अवसर विशेष पर बजने वाले मंदिरों के लाउडस्पीकर तो बंद करवा दिए लेकिन मस्जिदों में दिन में 5 बार बड़े-बड़े लाउडस्पीकरों से अजान पर कोई रोक टोक नहीं है। हालांकि जन विरोध के बाद यह आदेश वापस भी ले लिए गए।

हाईकोर्ट ने दिया निर्णय -

गत वर्ष मई 2020 में इलाहाबाद (प्रयागराज) हाई कोर्ट ने अपने निर्णय में कहा है कि अजान देना इस्लाम का मजहबी भाग है लेकिन लाउडस्पीकर से अजान देना इस्लाम भाग नहीं है इसलिए मस्जिदों से मोइज्जिन बिना लाउडस्पीकर अजान दे सकते हैं। कोर्ट ने कहा कि ध्वनि प्रदूषण मुक्त नींद का अधिकार व्यक्ति के जीवन के मूल अधिकारों का हिस्सा है। किसी को भी अपने मूल अधिकारों के लिए दूसरे के मूल अधिकारों का उल्लंघन करने का अधिकार नहीं है। इसी क्रम में वर्ष 2017 में मद्रास हाई कोर्ट ने भी इसी तरह का एक फ़ैसला दिया था और ये माना था कि मस्जिदों पर लगे लाउडस्पीकर की आवाज़ कम होनी चाहिए।

समाज की भागीदारी -

कोर्ट के निर्णय तो आ जाएंगे लेकिन क्या प्रत्येक सुधार के लिए कानून और प्रशासन की सख्ती आवश्यक है? क्या समाज को खुद आगे बढ़कर स्वयं के और मनुष्य मात्र के हित के लिए इस तरह के परिवर्तन नहीं अपनाने चाहिए? आज यह जरूरी हो जाता है कि देश और दुनियाँ के प्रगतिशील मुस्लिम बुद्धिजीवी वर्ग आगे आए और सामाजिक कुरीतियों को दूर कर एक स्वस्थ और शांत पर्यावरण बनाने में समाज को प्रोत्साहित करे।

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