कोरोना तो जाएगा पर इन जाहिलों से कैसे निपटें
रोहित सरदाना नहीं रहे। टीवी न्यूज़ की दुनिया के चर्चित नाम रोहित पहले कोरोना ग्रस्त हुए और फिर उन्हें दिल का दौरा पड़ा, जिसकी वजह से आज सुबह उनका देहांत हो गया। रोहित से नियमित मिलना-जुलना नहीं होता था, लेकिन किसी कार्यक्रम या फिर सेमिनार में मुलाक़ात हो जाया करती थी। हम लोगों की आपसी बातचीत आख़िरी दफ़ा इसी 3 अप्रैल को हुई थी, एक्सचेंज4मीडिया के वर्चुअल सेमिनार में। वरिष्ठ पत्रकार आलोक मेहता सत्र की अध्यक्षता कर रहे थे, साथ में सूत्रधार के तौर पर भ्रामक सूचनाओं की बाढ़ से कैसे निबटा जाए, इस पर हम लोगों से बात भी कर रहे थे। रोहित से मेरी आख़िरी बातचीत उसी दौरान हुई थी।
रोहित के साथ आमने-सामने की बातचीत ज़ी न्यूज़ नेटवर्क में मेरे तीसरे कार्यकाल, 2017-19 के दौरान कई बार हुई। मेरे वहां रहते हुए ही रोहित ने लंबी पारी खेलने के बाद उस संस्थान से विदाई ली थी और आजतक ज्वाइन किया था। संस्थान से बाहर एक दफ़ा आईआईएमसी में भी एक कार्यक्रम के दौरान हमारी लंबी बातचीत हुई। हमेशा मैंने रोहित को सहज पाया, अपनी बात बेबाक़ी से रखते देखा। समाज, राजनीति और इतिहास की अच्छी समझ रखते थे और यही बात उनके डिबेट शो के दौरान दिखती भी थी। हिंदी भाषा पर अच्छी पकड़, आक्रामकता और शालीनता का सामंजस्य, सवालों में तीखापन लेकिन चेहरे पर उत्तेजना नहीं। हर मुद्दे पर बेबाक़ राय, लीक से अलग हटकर, इसलिए मीडिया के एक बड़े वर्ग के लिए असहज भी थे वो। लेकिन रोहित अपनी सोच के पक्के। राष्ट्रहित सर्वोपरि, रोहित की पत्रकारिता के मूल में था।
इस देश में राष्ट्रवादी होना और वो भी घोषित तौर पर, लंबे समय तक उपहास का प्रतीक रहा है। जो कुछ भी भारतीय है, देसी है, हमारी मूल प्रकृति से जुड़ा है, उससे वामपंथी, उदारवादी हमेशा से असहज रहे हैं।आख़िर मार्क्स, माओ और लेनिन का झंडा ढोने वाले लोगों के लिए मूल भारतीय तत्व तो परेशानी करने वाला ही है। धर्म को अफ़ीम मानने वाला यही वर्ग भारतीय संदर्भ में बाक़ी धर्मों की भावनाओं का ख़्याल रखने के लिए किसी भी सीमा तक जा सकता है, अतार्किक बातों को भी सहन कर सकता है, लेकिन हिन्दुत्व में कुछ भी अच्छा होना इनकी सोच में संभव ही नहीं है। इनके लिए राष्ट्रवादी होना भी कट्टर हिंदूवादी होना है और इसीलिए फ़ासिस्ट शब्द खटाक से ऐसे लोगों पर चस्पाँ कर दिये जाते हैं, जो अपनी सोच में भारतीय संस्कृति के क़रीब हैं, राष्ट्रवादी हैं।
रोहित राष्ट्रवादी पत्रकार थे, अवसरवादी नहीं। हाल के दिनों में 'राष्ट्रवादी' पत्रकारों की लाइन लग गई है, बाढ़ आ गई है। फ़्लेवर ऑफ द सीज़न है ये, क्योंकि केंद्र में एक ऐसी पार्टी, बीजेपी, सत्ता में बैठी है, जो इन्हीं तत्वों के इर्द-गिर्द अपनी सियासत की जड़ें जमाते हुए इतनी मज़बूत हो चुकी है कि न सिर्फ़ केंद्र, बल्कि देश के कई राज्यों में सत्तारुढ है, लगातार अपना विस्तार कर रही है। ऐसे में सत्ता के क़रीब दिखने के लिए रातोंरात, मई 2014 में नरेंद्र मोदी के पीएम बनने के बाद, ऐसे पत्रकारों की तादाद तेज़ी से बढ़ गई, जो उससे पहले यूपीए के नेताओं के इर्द-गिर्द घुमा करते थे।
लेकिन रोहित ऐसे अवसरवादियों में से नहीं थे। पढ़े-लिखे थे, इसलिए एक निश्चित सोच थी उनकी और उसके आधार पर उनकी पत्रकारिता विकसित हुई थी। ज़ाहिर है, ऐसे लोग देश में कम हैं और ये उन तत्वों की आँखों में हमेशा खटकते हैं, जो तत्व पत्रकारिता के अभिजात्य वर्ग का बहुतायत हिस्सा रहे हैं, सेक्युलर, लिबरल, समाजवादी और वामपंथी चोले के साथ। रोहित जैसे लोग उनकी भी आँखों में खटकते थे, जो बात तो दिन-रात धार्मिक सहिष्णुता और गंगा-जमुनी तहज़ीब की करते हैं, लेकिन असल में कट्टर संप्रदायवादी हैं। रोहित ऐसे ही तमाम तत्वों के चेहरे से महत्वपूर्ण विषयों पर बहस के दौरान नक़ाब उठाते थे और निजी हमले का शिकार होने के बावजूद अपनी धार कम नहीं करते थे। रोहित ने अपने शो में असहज सवाल करना कभी बंद नहीं किया, छद्म धर्मनिरपेक्षवादियों को एक्सपोज़ किया, इनकी कथनी और करनी में अंतर को बताया और वो भी बिना उत्तेजना के, सामने बिठाकर बताया। इन सब कारणों से इस जमात की नाराज़गी उनसे स्वाभाविक थी।
रोहित की असमय हुई मौत के बाद ऐसे ही तत्वों का रुख़ देखकर दंग हूँ मैं। भारत की सनातन परंपरा में अगर दुश्मन भी मर जाए, तो भी उसको मौत के तुरंत बाद गाली निकालने की परंपरा नहीं है, बल्कि उसकी मौत पर भी दुख जताने की परंपरा है। लेकिन रोहित की मौत की ख़बर आने के महज़ कुछ घटों के अंदर सोशल मीडिया पर जिस तरह की प्रतिक्रियाएं आईं, उसने हिला दिया। एक तरफ़ देश के राष्ट्रपति और पीएम से लेकर तमाम गणमान्य लोगों और रोहित के लाखों प्रशंसकों के शोक संदेश थे तो दूसरी तरफ़ ऐसे नीच और जाहिल लोगों के पोस्ट, जो खुले तौर पर रोहित की मौत का जश्न मना रहे थे। इसमें वो भी थे, जो दिन रात दूसरों को पाठ पढ़ाते हैं, मानवता और उदारता की बात करते हैं, सेक्युलरिज्म का झंडा उठाकर चलते हैं। कुछ ने हद ही कर दी, चाहे शर्जिल उस्मानी जैसे उन्मादी रहे हों या फिर दलित राजनीति के सहारे एक पार्टी से दूसरी पार्टी में कूद लगाते हुए अपनी ज़मीन तलाश करते उदित राज। इनके ट्वीट को उद्धृत करना भी किसी पाप से कम नहीं है।
लेकिन ये हालात चिंताजनक हैं। समाज का कोई हिस्सा अपने एजेंडे और विचारों को ज़बरदस्ती थोपने की प्रक्रिया के तहत किस हद तक गिर सकता है, अपने को मिल रही चुनौती पर किस तरह बिलबिला सकता है, वो आज देखा मैंने। मन दुखी है, स्तब्ध है। इस देश में ऐसे जाहिलों की तादाद बड़ी है, लगा कि कोरोना से तो हम निबट लेंगे, लेकिन इन जाहिलों से निबटना आसान नहीं, जो अपनी कमियों को देखने को तैयार नहीं, बल्कि इनकी कमियों को जो उजागर करता है, उस पर चर्चा करता है, उसे कट्टर दुश्मन मानते हुए उसकी मौत पर भी ये भांगड़ा कर सकते हैं। ये स्थिति असह्य है, देश के लिए भी और समाज के लिए भी। सबको सोचना होगा, इस स्थिति से कैसे निबटा जाए, शोक के मौक़े पर भी जो ज़हर की खेती कर रहे हैं, उनको कैसे रास्ते पर लाया जाए। रोहित ने जाते-जाते भी इस मुद्दे पर चर्चा के लिए मजबूर कर दिया है। हे ईश्वर, रोहित को अपने पास बिठाकर डिबेट करवाना, जिसमें रोहित शायद आपको भी बता सकें कि भारत की धरती पर जाहिलों की तादाद कैसे कम की जा सके। विदा रोहित! भगवान आपकी आत्मा को शांति प्रदान करें!
(वरिष्ठ पत्रकार ब्रजेश कुमार सिंह के फ़ेसबुक पेज से साभार)