सहेजने की प्रक्रिया में मासूमियत का बिखराव सही नहीं

सहेजने की प्रक्रिया में मासूमियत का बिखराव सही नहीं
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आज की आधुनिक दिनचर्या, भागता वक़्त, व्यस्त अभिवावक इन तीनों चीजों से जो महत्वपूर्ण पहलू सबसे ज्यादा प्रभावित हो रहा है वो है मासूम बचपन।ये तय है कि माता पिता हमेशा अपने बच्चों का भला चाहते है,उन्हें कितनी भी कमी हो पर अपने बच्चों के लिए वो दुनिया की सारी खुशियां सहेजना चाहते है बस इसी सहेजना की प्रकिया में एक चीज बिखर जाता है वो है मासूमियत बच्चों का।उनके कई सवाल सवाल ही बनकर रह जाते हैं और बचपन बढ़ता चला जाता है।

लेखिका - राधा शैलेन्द्र

दुर्भाग्य की बात है कि हम आधुनिक कहलाने की हौड़ में पाश्चात्य शैली को अपनाने लगे है।हम विकास की बड़ी बड़ी बातें करते है पर जब हमारे बच्चें अपने शारीरिक और मानसिक विकास की बाते करते है,तो हम उन सवालों के जवाब में झेंप महसूस करते है ऐसे में वो बच्चें इन सवालों का जवाब अपने आप ही ढूंढ़ने की कोशिश करने लगते है,तब शुरुआत होती होती है भटकाव की!मोबाइल,इंटरनेट,साइबर ये सब तो माध्यम है अधकचरे सवालों का।असली गुनाहगार तो हम है,जो उनकी भावनाओं को,उनकी समस्याओं को समझ ही नहीं पाते।अगर हम बच्चों के दोस्त बनकर मिलेंगे तो कोई कारण नही रह जाता कि वो अपनी बातें शेयर न करे।पहले सयुंक्त परिवार हुआ करते थे।बड़ों की छाया में बचपन सुरक्षित रहता था और निश्चित भी ।परिवार के सभी सदस्यों के बीच बचपन फलता -फूलता था।एक दूसरे के प्रति सबों का व्यवहार ,बड़ों का सम्मान, छोटों पर अधिकार कुछ ऐसी बातें थी जो संस्कार की नींव मजबूत रखती थी।पर आज एकाकी परिवार ने बच्चों के पास समय बीताने के लिए टी .वी रख छोड़ा है या इंटरनेट,मोबाइल और उसपर आने वाले तरह तरह के कार्यक्रम।गलत कुछ नहीं,अगर चुनाव सही हो।अगर हम बच्चों पर इन कार्यक्रमों के जरिये नजर रखेंगे,तो पता चलेगा कि उनका रुझान किस तरफ है? माँ-बाप दोनों की ही ये सबसे बड़ी जिम्मेदारी है कि वो बच्चों को अच्छी शिक्षा ही नहीं, अच्छे संस्कार भी दे।मंहगे स्कूल,महंगी शिक्षा,महंगे कपड़े स्टेटस सिंबल तो हो सकते है लेकिन आपके अच्छे इंसान होने की गारंटी नही ये मिलती है बच्चों में संस्कार की नींव डालकर जहाँ वो अपनी बात दिल खोलकर आपके सामने रखे।

बच्चों पर सबसे ज्यादा प्रभाव उनके परिवेश के पड़ता है,जैसा वो देखते है वैसा ही अपने स्वभाव में ढालने की कोशिश करते है।पति-पत्नी का आपस संबंध ,बुजुर्गों के साथ सबों का रवैया,बड़ों का सम्मान,छोटो को प्यार,हमारी संस्कृति और उनसे मिलने वाली शिक्षा ये कुछ मूलभूत बुनियादी बातें है जिसपर बचपन टिका होताहै। आपसी सहयोग एक सुरक्षा की भावना विकसित करती है जहाँ बचपन खिलखिलाता है और पुष्पित होता है।बच्चों पर कही बातों से ज्यादा असर उन बातों का होता है जो वो अपने आस-पास घटित होते देखते है।बड़ी ही सरल बात है कि अगर बच्चें ये देखेगे की उनके दादा-दादी का सम्मान उनके माता-पिता बखूबी करते है तो वो खुद उससे प्रेरित होंगे।यहाँ शब्द नहीं एक तुलनात्मक व्यवहार ही उन्हें प्रेरित करने के लिए काफी है।पहले सयुंक्त परिवार की संख्या ज्यादा हुआ करते थे,बच्चों के सामने रिश्तों की एक फौज हुआ करती थी, दादा-दादी, बुआ-फूफा, चाचा-चाची इन सारे रिश्तों के बीच बचपन पनपता था और रिश्तों की मर्यादा खुद ब खुद दिखती थी। आज शहरीकरण के इस युग में परिवार तो एकाकी हो ही गया है ,आवश्यकता इतनी बढ़ गयी है कि माँ-पिता दोनों को ही काम पर जाना पड़ता है।ऐसी स्थिति में या तो बच्चें खुद आत्मनिर्भर होकर अपनी सुरक्षा का जिम्मा उठाते है या उनके देखभाल के लिए एक आया कि आवश्यकता होती है।यहाँ से शुरुआत होती है संगत की,एक बाहरी कितना समझेगी उन बच्चों की जरूरतों को। माँ का दायित्व यहाँ कुछ और बढ़ जाता है कि वो बच्चों की हर गतिविधियों की जानकारी उनसे बातचीत या हाव्-भाव के जरिये लेती रहे।आज का दिन कैसा रहा,आपने क्या-क्या किया,क्या सीखा आज,कोई परेशानी भी हुई ये कुछ सवाल ऐसे है जो उन्हें आपसे जोड़े रखेगी।

एक महत्वपूर्ण बात जिसपर गौर करना सबसे जरूरी है वो है बच्चों के बीच भेद- भाव।लड़कों - लड़कियों के बीच दायरों का बंधन बराबर सीमा रेखा में खींचा जाना चाहिये।बच्चों को सुधारने व बिगाड़ने में पहली भूमिका भी माँ- बाप की ही होती है।उनके जरा सा रूठने पर उनकी सारी फरमाईशें पूरी कर देना बिना उन्हें ये समझायें की सही क्या है और गलत क्या है।आखिर जरूरतें पूरी कैसे की जाये इसमें उन्हें भी शामिल करें ताकि वो माता-पिता की आर्थिक दशा से भी परिचित हो सके।बेटा - बेटी इन्हें भी सभी विषय पर अपनी राय रखने दे ताकि उनकी मनोदशा से आप परिचित ही सके।

कभी कभी बच्चें अपनी बात मनवाने के लिए खाना -पीना छोड़ देते है,जो एक प्रकार की जिद है अपनी सही या गलत बात मनवाने की,ऐसे में माता-पिता को चाहिए जरूरत और सही माँग को खुद समझे और उन्हें भी समझने दे। उनकी जिद को नजरअंदाज भी करना चाहिए ताकिवो हर छोटी मोटी बातों पर ये आदत न दोहराये।

अक्सर परिवार में ये देख जाता है लड़कों को खेलने के लिए खिलौने के तौर पर पिस्तौल,बन्दूक जैसी चीजें देकर आक्रमक बनाया जाता है ये तो एक सिंबल हुआ कि तुम मुझे मरोगे तो मैं पिस्तौल उठाकर मारूँगा।

उन्हें आक्रमक नहीं सकारात्मक बनाईये।घर में बेटी है तो उन्हें बहन की इज्जत करना सिखाईये।दीदी ये कर सकती है तुम ये कर सकते हो,ये गलत है तुम दोनों ही सबकुछ कर सकते हो ये सही सोच है।हमें बेटों के अंदर इस मानसिकता को विकसित करना चाहिए कि बहन भी उनकी ही तरह बराबरी की हकदार है,बेटों को इस बात का एहसास न होने दे की बहन कमजोर है या तुमसे अलग है।लिंग विभेद मामले में अपने बेटों को कभी प्रश्रय न दे।यही काम स्कूलों और कॉलेजों में भी होना चाहिये ताकि लड़के-लड़की का भेदभाव काफी हद तक दूर हो।बच्चों के साथ अभिभावकों का दोस्ताना संबंध रहना चाहिये ताकि वो बाहर होने वाली तमाम बातों को खुलकर बता सकें।बच्चों की बातें को कभी नजरअंदाज नहीं करना चाहिये।इसी लापरवाही के चलते समाज में तरह तरह की घटनाएँ घटित होती है।शिक्षा का मकसद सिर्फ आपको शिक्षित बनाना नहीं बल्कि आपको एक अच्छा इंसान बनाना भी होना चाहिये।। बच्चे जब पढ़ने लगते है तो उनका सामाजिक दायरा भी बढ़ता चला जाता है।एक नया माहौल,शिक्षक,नये-नये दोस्तों और उनकी संगति ये सारी बातें उनके विकास को प्रभावित करती है।अगर माँ बच्चे की पहली पाठशाला है तो विद्यालय दूसरी।यहाँ होने वाली सारी गतिविधियों की जानकारी माता- पिता को होनी चाहिये।स्कूल की सारी बातें उनसे जरूर सुने।आपकी उत्सुकता उनका मनोबल बढ़ायेगी और वो छोटी से छोटी बातें आपसे शेयर करेंगे।

एक बात पर हम गौर करेंगे तो पायेंगे कि आज कल परिवार में किताबों का साहित्य का आगमन अमूनन कम हो गया है।पढ़ने की जगह देखने ने ले ली है।साहित्य समाज का दर्पण होता है,हितोपदेश,पंचतंत्र की कहानियाँ हमारे बचपन में माँ सुना सुनाकर कितनी सारी ज्ञान की बातें हमें सीखा देती थी पर क्या वो कहानियां हम अपने बच्चों को सुना रहे है? उनमें किताबें पढ़ने की आदत विकसित हो इसलिए जरूरी है कि हम भी उनके साथ पढ़ने की आदत डालें।अक्सर हम बच्चों को तोहफे में अनगिनत चीजें देते है लेकिन क्या उनमें कुछ किताबें नहीं हो सकती जो उनमें पढ़ने का रुझान पैदा करे! किताबें इंसान की सबसे अच्छी दोस्त होती है उन्हें समझाना होगा।

समय का सही मूल्यांकन उनके सही उपयोग से होता है।बच्चों को समय की कीमत समझानी होगी ताकि वो अपनी जवाबदेही ले सके।

पढ़ाई, खेलकूद, मनोरंजन इन सब के बीच सामंजस्य बैठाने की कला उन्हें आनी चाहिए। एक अनुशासित जीवन दर्शन बनाने के लिए हमें खुद अनुशासन में रहना होगा।हर दायरे की एक सीमा रेखा होनी चाहिए,अगर खेल का समय तय है तो बस उसी समय में खेल होना चाहिये,पढ़ने का समय निश्चित है तो जरूरी है समय का पालन किया जाये।एक अनुशासित जीवन विकास का मार्ग खोलती है।बालपन में ही डाली हुईं इसकी नींव बुनियाद को मजबूत करती है। बच्चों के साथ क्वालिटी टाइम बिताना,उनके साथ खेलना,घूमने जाना ये कुछ ऐसी बातें है जो उनका आत्मविश्वास और आप पर उनका विश्वास अडिग करता है।

बचपन कई अवस्थाओं से गुजरता है, बालपन की मस्ती कब युवा अवस्था में पहुँच जाती है पता ही नहीं चलता है।तरह तरह कर नये सवाल बच्चों के मन में उमड़ते रहते है,सही दिशा निर्देशन की आवश्यकता तब और भी बढ़ जाती है।तितलियों के पीछे भागता बचपन,बागों और बगीचे की परिकल्पना से निकलकर एक नई दुनिया में भर्मण करने लगता है।बाहरी दुनिया रंग- बिरंगी और घर उन्हें कैद लगने लगता है।दोस्तों की संगति और उनके साथ समय बिताना ,गप्पें मारना बस।ख्वाबों की इस दुनिया में सपने ज्यादा होते है। बचपन या युवा अवस्था जीवन का वो अंतराल है जब मिट्टी से बने साँचें की तरह बच्चों की ढालना माता- पिता की नैतिक जिम्मेदारी हो जाती है।हर बच्चें की अपनी खाशियत और सोच होती हैं।बालमन एक कोरे स्लेट की तरह है जिसपर जितने प्यार और सुंदरता से लिखा जाएगा उतना ही अच्छा फल आयेगा।परवरिश बड़ी नाजुक चीज है क्योंकि माता -पिता दोनों को मिलकर बच्चों की हर गतिविधि पर नजर रखनी होती है।जिस प्रकार हर पौधा अलग अलग खाद और पानी खोजता है वैसे ही हर बच्चा अपने आप में खास होता है , बिल्कुल अलग,हर बच्चें को उनके ही तरह का लालन पालन देना होता है।माँ बाप की जिम्मेदारी और भी बढ़ जाती है जब बच्चें अपनी जिम्मेदारियों से भागते है,उन्हें आत्मनिर्भरता का पाठ पढ़ाना,स्वालंबी बनाना ये सब इन बातों के अंतर्गत आता है। एक बात गौर करने वाली है कि अगर हम बच्चें से अनुशासन की बात करते है तो खुद अनुशासित है कि नहीं।उन्हें कहेंगे बेटा 5 बजे उठा करो ,सेहत के लिए अच्छा है,खुद 9 बजे उठेगे तो क्या ये सही होगा?

होली के रंग हो या दीवाली की रोशनी हम अपने बुजुर्गों का आशीर्वाद लेकर दिन की शुरुआत करते है,इन संस्कारों और व्यवहारों को बच्चें अगर बचपन से देखते आ रहे है तो कोई कारण नहीं कि ये दृष्टिकोण प्रथा में न बदले।बचपन में एक कहानी पढ़ा था मैंने ,आपके समक्ष रख रही हूँ।किसी शहर में एक परिवार हुआ करता था माता-पिता उनके दो बच्चें और दादा-दादी। दादा- दादी बूढ़े हो चले थे और अपनी ही संतान की नजर में बोझ हो चुके थे।उनकी मौत का इंतजार कर रहे संतान ने अपनी

पत्नी से कहा, बहुत हो गया ये तो जाने का नाम ही नहीं लेते ऐसा करता हूँ पास में ही जंगल है एक बड़ा सा गड्ढा खोदता हूँ और उसी में दोनों को ढकेलकर ऊपर से मिट्टी डाल देता हूँ किसी को पता भी नहीं चलेगा,ये बातें उनके दोनों बच्चों ने सुन ली।

अगले दिन सुबह सुबह उन्हें अपने आँगन से जोर-जोर की आवाज सुनायी दी,दौड़ते हुए पहुँचे तो देखा दोनों बच्चें गड्ढे खोद रहे थे,उन्होंने आश्चर्य से पूछा "बेटा आप लोग क्या कर रहे हो,ये गड्ढा क्यों खोद रहे हो,बच्चे ने कहा "पापा कल हमने आपकी बातें सुनी थी,हमें लगा कि कल आप दोनों जब बूढ़े हो जाओगे तो हम आपको इंतजार भी नहीं करवाएँगे सीधे इस गड्ढे में डाल देंगे।" इतना सुनना था कि माँ पिता की आँखे भींग गयी कि हमारे बच्चों ने हमें सही रास्ता दिखा दिया। ऐसा ही होता है इंसान जैसा बोता है वैसा ही फल पाता है यानी उसके कर्मों का प्रतिफल बच्चों के माध्यम से मिल ही जाता है।इसलिए ये नितांत जरूरी है कि अपने व्यवहार से बच्चों के सामने एक आदर्श प्रस्तुत करें।

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