प्रामाणिक पत्रकारिता के पर्याय मामाजी

प्रामाणिक पत्रकारिता के पर्याय मामाजी
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शक्ति सिंह परमार

माखनलाल चतुर्वेदी, लोकमान्य तिलक और गणेश शंकर विद्यार्थी की पत्रकारिता विशुद्ध रूप से देश के आजादी आंदोलन को क्रांतिकारी विचारों की ऊर्जा देने का मिशन लिए हुए थी। उस कठिन दौर में इन विभूतियों ने अपने पत्रकारिता धर्म को स्वतंत्रता संग्राम के लिए समर्पित कर दिया था, इसलिए आजादी के पहले की पत्रकारिता एवं पत्रकारों का कोई जोड़ नहीं। अगर आजादी के बाद की पत्रकारिता पर नजर डालें तो...वह कौन हैं..? जिनके अखबार और स्वयं ने अभावों में भी ईमानदारी एवं पूरी निष्ठा के साथ अपने पत्रकारिता धर्म को निभाया..? तब एक ही चेहरा सामने आता है, ध्येयनिष्ठ पत्रकारिता के पितामह श्री माणिकचंद्र वाजपेयी 'मामाजीÓ का। जिन्होंने असहनीय पीड़ा, अभाव एवं सत्ताधीशों के शिकंजे से विचलित हुए बिना अपने पत्रकारिता के फर्ज को कर्ज समझकर अंतिम सांस तक निभाया। 7 अक्टूबर 1919 बटेश्वर जिला आगरा (उप्र) में जन्मे प्रखर विचारक, लेखक और संपादक श्री माणिकचंद्र वाजपेयी 'मामाजीÓ प्रामाणिक पत्रकारिता के पर्याय रहे। उन्होंने शिक्षक के रूप में, प्राचार्य के रूप में, संगठनकर्ता के रूप में, ध्येयनिष्ठ पत्रकार के रूप में, प्रामाणिक संपादक के रूप में, स्पष्ट राजनेता के रूप में, प्रतिबद्ध लेखक के रूप में और यहां तक कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक के रूप में सभी दायित्वों के साथ अपने जीवन को समरस करके दिखाया। मुझे पत्रकारिता के उस महामना ऋषि एवं अपने अंत:करण में संपूर्ण पत्रकारिता का विश्वविद्यालय समेटे हुए विभूति के दर्शन का अंतिम अवसर वर्ष 2004 में प्राप्त हुआ। जब वे अस्वस्थ होने के बावजूद व्हीलचेयर पर प्रेस काम्प्लेक्स में दैनिक स्वदेश इंदौर के नवनिर्मित 'स्वदेश भवनÓ का अवलोकन करने पहुंचे थे।

मामाजी के लिए पत्रकारिता के संपूर्ण विश्वविद्यालय का संबोधन इसलिए सटीक बैठता है, क्योंकि उन्होंने इस विधा में प्रत्येक क्षेत्र के चरमबिंदु तक पहुंचकर दायित्व निर्वाह करके दिखाया। उस समय पत्रकारिता के क्षेत्र में तीन प्रमुख विभाग होते थे। पहला संपादकीय, दूसरा मशीनी अर्थात प्रिंटिंग और तीसरा प्रबंधन...मामाजी ने एक ही समय में अनेक बार इन तीनों विभागों का दायित्व पूर्ण निष्ठा के साथ संपादित किया...बात चाहे रिपोर्टिंग, समाचार संपादन, आलेख व संपादकीय लेखन की रही हो या फिर ट्रेडल मशीन पर छपाई की अथवा अखबार के बंडलों को मूल गंतव्य तक पहुंचाने की। मामाजी को प्रत्येक काम की चिंता रहती थी और जरूरत पड़ने पर वे उसे पूरी दक्षता के साथ निष्पादित भी किया करते थे।'स्वदेशÓ के रजत जयंती वर्ष के उपलक्ष्य में 'मामाजीÓ ने लिखा था- 'स्वदेश के मार्ग में कठिनाइयां आनी थीं, सो वे पग-पग पर आईं, पर राष्ट्रनिष्ठ पाठकों व जनता ने 'स्वदेशÓ को हर क्षण संबल दिया। उस संबल के ही सहारे 'स्वदेशÓ सभी कठिनाइयों को सहजता से पार करता गया। कांटों के बीच पनपता रहा, विस्तार पाता रहा, अपनी वैचारिक सुगंध बिखेरता रहा। कंटकाकीर्ण मार्ग उसे डिगा न सका, प्रलोभन भ्रमित न कर सके? यही नहीं, पथिक का एकाकी होना भी 'स्वदेशÓ को निराश न कर सका, क्योंकि 'स्वदेशÓ स्व-स्वीकृत पथ पर चलता ही रहा और चलता रहेगा...Ó यह वैचारिक विश्वास 'मामाजीÓ ने अपने लेख में इसीलिए व्यक्त किया था कि उन्हें विश्वास था कि 'स्वदेशÓ पथ से कभी भी विचलित नहीं होगा...और यह 'मामाजीÓ को विनम्र आदरांजलि है कि जो विश्वास उन्होंने 'स्वदेशÓ के रजत जयंती वर्ष में व्यक्त किया था, उसे 'स्वदेशÓ ने स्वर्ण जयंती पड़ाव पूर्ण करने के बाद भी चिरस्थायी बनाए रखा है। मामाजी की तपस्या का ही परिणाम है कि स्वदेश गत विजयादशमी पर 58वें वर्ष में प्रवेश कर चुका है.. 'मामाजीÓ पत्रकारिता जगत के ऐसे साहसी योद्धा थे, जो दो टूक शब्दों में बिना किसी किंतु-परंतु के अपनी बात बयां करते थे, फिर चाहे उनसे कोई राजी रहे या नाराज, सहमत रहे अथवा असहमत। तभी तो कलम के प्रति उनकी निष्ठा, प्रामाणिकता, ध्येयनिष्ठता और कर्मठता आज भी उनके लेखन में उतनी ही ताजगी व सामयिकता के साथ जीवंत है। इसलिए पत्रकारिता के नवाक्षरों के लिए वे आज भी पत्रकारिता के ऐसे पितामह हैं, जिनके अंदर पूरा पत्रकारिता विश्वविद्यालय समाया था, है और रहेगा। समाज एवं राष्ट्रहितैषी पत्रकारिता से ओतप्रोत 'मामाजीÓ की ध्येयनिष्ठता हमें 'पतझड़Ó में भी 'वसंतÓ आने की राह दिखा रही है। पुण्य स्मरण दिवस (27 दिसंबर) पर 'मामाजीÓ के चरणों में स्वदेश परिवार का शत्-शत् नमन।

(लेखक इंदौर स्वदेश के संपादक हैं)

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