श्रीराम: मनुष्य से देवत्व की यात्रा
वेबडेस्क। आप सभी को श्रीराम मंदिर के उद्घाटन की ढ़ेर सारी शुभकामनाएं। वास्तव में श्रीराम ने अपने जीवन में मनुष्य से देवत्व तक की यात्रा को न केवल तय किया है, बल्कि चरित्र के सर्वश्रेष्ठ स्तर को हासिल करने का उदाहरण भी प्रस्तुत किया है। उन्होंने हर स्थिति और व्यक्ति के साथ संबंध निभाकर जीवन का प्रबंधन समझाया है और समाज के अंतिम तबके को अपने साथ जोड़कर समाजवाद को भी परिभाषित किया है।
चलिए चर्चा करते हैं त्रेतायुग में अयोध्या में जन्में श्रीराम के मनुष्य से देवत्व को हासिल करने की यात्रा पर। बालपन में ही अपने छोटे भाईयों के प्रति स्नेह हो या गुरू के आश्रम पहुंचकर शिक्षा ग्रहण करना, बात माता-पिता की आज्ञा पालन की हो या सखाओं से मित्रता निभाने की, उन्होंने हमेशा ही अपने कर्मों से मर्यादा को प्रस्तुत किया और देवत्व की ओर यात्रा पर बढ़ चले।
जब गुरूकुल से शिक्षा-दीक्षा पूरी कर श्रीराम अयोध्या वापस लौटे तो वहां ऋषि विश्वामित्र का आगमन हुआ। उन्होंने राजा दशरथ से कहा कि मुझे राम को अपने साथ ले जाना है इस पर राजा चिंतित हो गए और कहने लगे कि आप मेरी सेना ले जाईये, मुझे साथ ले चलिए, आप राम ही को क्यों ले जाना चाहते हैं। इस पर ऋषि विश्वामित्र ने कहा कि यौवन, धन, संपत्ति और प्रभुत्व में से एक भी चीज किसी को हासिल हो जाए तो उसमें अहंकार आ जाता है, आपके पुत्र के पास यह चारों हैं लेकिन फिर भी वह विनम्र है इसलिए इसे ले जा रहा हूं। ऋषि विश्वामित्र के साथ वन जाकर श्रीराम ने राक्षसी ताड़का का वध किया, वहीं शिला बन चुकीं अहिल्या देवी का उद्धार किया। जनकपुरी में वे सीता स्वयंवर में पहुंचे। यहां बड़े-बड़े राजा जिस शिव धनुष को हिला भी न सके थे उसे प्रत्यंचा चढ़ाते हुए श्रीराम ने तोड़ दिया। इससे क्रोधित भगवान परशुराम को श्रीराम ने स्वयं मीठी वाणी बोलकर शांत किया। इसके साथ ही उनका देवी सीता से विवाह हुआ।
आज छोटी-छोटी चीजों पर हम डिप्रेशन में आ जाते हैं, वहीं जरा कल्पना कीजिए जिस युवक का अगली सुबह राजतिलक होने वाला हो और उसे रात में कहा जाए कि उसे वनवास पर जाना है। इस निर्णय को श्रीराम ने कितने रचनात्मक ढंग से लिया और वनवास जाने के लिए सहज तैयार हो गए। उन्होंने जहां एक ओर अपने पिता के वचन की लाज रखी, वहीं मां कौशल्या से कहा कि पिताजी ने मुझे जंगल का राज्य सौंपा है, वहां ऋषियों के सानिध्य में मुझे बहुत सेवा करने का अवसर मिलेगा। इसी कारण वन जाने से पहले जो अयोध्या के राजकुमार थे, वन से लौटकर वह मर्यादा पुरूषोत्तम कहलाए।
वनवास के दौरान श्रीराम ने खर, दूषण और सुबाहू जैसे कई राक्षसों का अंत किया। उन्होंने किसी राजा से बात नहीं की न ही किसी राज्य का आश्रय लिया। बल्कि उन्होंने वंचितों से बात की। आदिवासियों से मिले, केवट के माध्यम से गंगा पार की, शबरी के जूठे बेर खाए और समाज के अंतिम तबके से मिले। हर व्यक्ति को समाज की मूल धारा में जोड़ने के लिए श्रीराम ने समाजवाद की स्थापना की।
श्रीराम ने शौर्यवान, शक्तिशाली और पराक्रमी होने के बावजूद कभी धैर्य का साथ नहीं छोड़ा और सत्य पर अडिग रहे। इसलिए रावण वध को हम असत्य पर सत्य की जीत के रूप में याद रखते हैं। अयोध्या लौटने पर जब श्रीराम राजा बने तो उन्होंने सदा प्रजा के हित का विचार किया। इसके साथ ही रामराज्य की स्थापना हुई। जो आज भी इतिहास की सबसे श्रेष्ठ प्रशासनिक व्यवस्था के रूप में जाना जाता है।
अंत में बस इतना बताना चाहूंगा कि श्रीराम किसी धर्म या देश के नहीं बल्कि श्रीराम तो पूरी कायनात के हैं। श्रीराम तो वह हैं जो हर भक्त के चिंतन में हैं और सृष्टि के कण-कण में हैं। राम तो करूणा में हैं, शांति में राम हैं, राम ही हैं एकता में, प्रगति में राम हैं। राम हम सब के मन में हैं। हम सबकी आस्था में हैं।
अयोध्या में राम मंदिर
वेदों एवं पुराणाों के अनुसार उत्तर प्रदेश की अयोध्या नगरी का इतिहास प्राचीन है। श्रीराम के पूर्वजों के राज्य में अयोध्या राजधानी रही, श्रीराम का जन्म भी यहीं हुआ। श्रीराम ने भी अयोध्या को ही राजधानी बनाकर पूरे राज्य में शासन किया और इसका विस्तार किया।
आज यहां श्रीराम के मंदिर का निर्माण पूरा हो गया है, यह सभी रामभक्तों की आस्था का केंद्र है। पूरे देश में इस उद्घाटन समारोह को लेकर उत्साह है और इसे दीपावली की तरह मनाया जा रहा है। मैं सभी रामभक्तों को इस उद्घाटन पर्व की शुभकामनाएं देता हूं।