साँच कहौ तो मारन धावै, झूठे जग पतियाना
डॉ. आनन्द पाटील
आज 'वज्रपात का एक वर्ष पूर्ण हो रहा है। लगभग डेढ़ वर्ष पूर्व 'वज्रपात शीर्षक से एक स्तम्भ आरम्भ करने का सद्विचार बना था। वैसे, यह कोई अचानक (आकस्मिक व अप्रत्याशित) निकल कर आया हुआ नाम नहीं था। आंग्ल भाषा में मुहावरा है न - 'ए बोल्ट फ्रॉम दि ब्लू, वैसा कुछ नहीं था। इसके पीछे सुदीर्घ चर्चा और अनुशासनबद्ध विचार-मन्थन था। और, इसके अन्तर्गत क्या-कुछ किया जाना है, वह सुचिन्तित व स्पष्ट था। किन्तु, यहाँ विशेष बात यह है कि 'वज्रपात इस स्तम्भ के लिए चुना हुआ नाम नहीं था। इस नाम के चयन के पीछे एक विशेष व अविस्मरणीय प्रकरण है। उस प्रकरण को मैंने प्रत्येक सप्ताह, वज्रपात करते हुए, पुन:-पुन: जिया है। इस प्रकार उस धार को विचारों में प्रकट करने का प्रयत्न किया है। वह सुदीर्घ चर्चा इस स्तम्भ के लिए सञ्जीवनी का काम करती रही है। वह प्रकरण कुछ ऐसा है कि एक दिन मैं अपने दो सुहृद भाई -डॉ. सुशील तिवारी (इग्नू वाले) और सिद्धार्थ शङ्कर उपाध्याय (दिल्ली सरकार वाले), के साथ अखिल भारतीय राष्ट्रवादी लेखक संघ के मुखपत्र के लिए सम्भावित नामों पर चर्चा कर रहा था। और, चर्चा में निकल कर आने वाले नामों में 'वज्रपात भी था। परन्तु, लेखक संघ के संस्थापक सदस्यों ने, बहुमत से, इस नाम को छोड़ कर अन्य पाँच नाम चुन लिये। जो नाम चुन लिये गये, उनका यहाँ उल्लेख लेखक संघ का नियमोल्लंघन होगा। किन्तु, विशेष उल्लेख यह कि 'वज्रपात छूटा रह गया। कहिए कि परित्यक्त। वैसे, चर्चा में यह संन्देह व्यक्त हुआ ही था कि इसके चुन लिये जाने (शॉर्टलिस्ट) की सम्भावना प्राय: शून्य है, क्योंकि 'राष्ट्रवाद शब्द विशेष प्रभाव के साथ कु-प्रचारित है। तिस पर, उस 'कु-प्रचारित नाम से स्थापित 'लेखक संघÓ के मुखपत्र का नाम 'वज्रपात! माने, बाप रे बाप! मानो, वह कोई विस्फोटक हो। अथवा, किसी भोजपुरी फ़िल्म का 'सारा जिला हिलेला वाला, अंग-प्रत्यंग हिला देने वाला भयंकर ट्रेलर या टीज़र हो। जहाँ 'राष्ट्रवाद से ही मुक्ति की कामना हो, वहाँ 'वज्रपात जैसा प्रहारक नाम त्याज्य ही होता।
'राष्ट्रवादÓ के सम्बन्ध में किसी भी प्रकार के दुष्प्रचार के बावजूद, मेरा यह दृढ़ मताग्रह रहा कि लेखक संघ के नाम में 'राष्ट्रवाद ही होना चाहिए। दुष्प्रचारों की दृष्टि से चिन्तन-मनन करने लग जायें, तो नहीं भूलना चाहिए कि दुष्प्रचारकों ने 'रामायणÓ में भी खोट निकाल दी और प्रभु श्रीराम को आरोपी बना कर खड़ा कर दिया है। वेदादि ग्रन्थों के सम्बन्ध में नाना दुष्प्रचार प्रचारित-प्रसारित हैं। इधर, 'ताड़नाÓ की स्व-इच्छित व्याख्याओं ने तुलसीदास को भी कठघरे में खड़ा कर ही दिया है। तात्पर्य यह है कि दुष्प्रचारों पर अत्यधिक चिन्तन से वैषयिक रागात्मकता का ह्रास होता जाता है। और, एक समय ऐसा आता है कि हम उससे पल्ला छुड़ाने का प्रयत्न करते हैं। अन्ततोगत्वा शनै:-शनै: उसका परित्याग कर ही देते हैं। तो, मेरा आग्रह रहा कि लेखक संघ के नाम में 'राष्ट्रवादÓ शब्द-प्रयोग में कोई परिवर्तन नहीं होना चाहिए।
दर्शनशास्त्री व आचार्य रजनीश कुमार शुक्ल ने कहा कि 'इसमें 'राष्ट्रीयÓ कर दें, तो लेखक संघ को और विस्तार मिलेगा।Ó लेखक संघ के कार्यकारी अध्यक्ष सोमदत्त शर्मा भी इस प्रयुक्ति को छोड़ कर 'राष्ट्रीयÓ जैसा सर्वप्रीतिकर शब्द-प्रयोग करने का विचार प्रकट करते रहे, किन्तु मेरे मताग्रह को अन्तत: सभी वरिष्ठों ने माना। इस प्रकार लेखक संघ में 'राष्ट्रवादीÓ शब्द सम्बद्ध रह गया। यह निर्विवाद है कि 'राष्ट्रीयÓ शब्द की व्याप्ति का फलक अत्यन्त व्यापक है, किन्तु यह सत्य है कि वह सर्वत: मुक्त व्याप्ति उस शब्द-प्रयोग की सबको खुली छूट देता है। उन सभी प्रसंगों का सार-सारांश यह हुआ कि मैंने 'राष्ट्रीयÓ शब्द की व्याप्ति के सम्बन्ध में सहज ही एक व्यंग्य लिख डाला। कुल मिलाकर, यह स्पष्ट है कि किसी भी दुष्प्रचार के बावजूद यदि कोई स्वयं को राष्ट्रवादी कहलाने का साहस करता है, तो उसकी राष्ट्र-निष्ठा असन्दिग्ध होती है। मेरे विचार में, राष्ट्रवादी मनसा-वाचा-कर्मणा राष्ट्रीयत्व से ओत-प्रोत होता है। यह बात और है कि इस शब्द का प्रयोग कर परिवारवादी भी फल-फूल रहे हैं। उसमें उस शब्द की नहीं, व्यक्ति-व्यक्तित्व एवं उनके कर्मों की हीनता को देखा जाना चाहिए। उससे राष्ट्रवाद जैसे शब्द की महत्ता कम व औचित्य समाप्त नहीं हो जाता।
इस पूरे प्रसंग में मैंने अनुभव किया कि कतिपय राष्ट्रनिष्ठ व्यक्ति वा विचारक राष्ट्रवाद शब्द-प्रयोग से प्राय: इस कारण भयाक्रान्त रहते हैं कि उन्हें कोई 'उग्रÓ घोषित न कर दे। अत: वे यदा-कदा प्रसंगवश कबीर की बानी में उपदेश देते हैं - 'कबीर, कहता हूँ कहि जात हूँ, कहा जो मान हमार। जाका गला तुम काटि हो, सो फिर काटै तुम्हार।।Ó माने, कतिपय विद्वानों के विचारानुसार, 'राष्ट्रवादÓ शब्द में उग्रता व हिंसात्मकता का जाग्रत बोध है। अर्थात् अर्थ स्पष्ट है कि 'राष्ट्रवादÓ शब्द दुष्प्रचारित है। राष्ट्र हितैषियों का उस प्रयोग से बचने का एकमात्र कारण है - भय (विकार)। माने, सामाजिक भय। माने, चाहते तो हैं कि यह लोक बचा रहे। यह राष्ट्र बचा रहे, किन्तु जो अतिवादी शक्तियां इसे नोंच-खसोट कर, कुरेद-कुरेद कर जीर्ण-शीर्ण करने में अनथक लगे हुए हैं, कहते हैं- 'उनके सम्बन्ध में सौम्य वाणी में ही कुछ कहना समीचीन होगा।Ó 'सौम्य वाणीÓ- माने गोल-गोल। तोल-मोल के बोल। अतिवादी राष्ट्रकण्टकों के विरुद्ध वाणी के प्रखर होते ही आपके नाम के साथ राष्ट्रवादी, साम्प्रदायिक, हिन्दुत्ववादी और न जाने क्या-क्या, चेप दिया जाता है। सेक्युलरवाद की थोपी हुयी थाती में 'भारतीय चित्तÓ को बन्दी बनाने का सुनियोजित उपक्रम हुआ है। उसी उपक्रम का परिणाम है कि राष्ट्रवाद महापाप से कमतर नहीं है। इस प्रचारित धारणा के कारण 'राष्ट्रवादÓ शब्द-प्रयोग त्याज्य माना जाता रहा है। किन्तु, हमने डंके की चोट पर इसे स्थापित करने का कार्य किया है। कारण स्पष्ट था- राष्ट्र को बचाना हो, तो ढुलमुल-ढुलमुल, गोल-गोल और तोल-मोल के बोल से काम नहीं चल सकता। राष्ट्रवाद के साथ भले ही बुद्धिवादियों ने 'उग्रÓ शब्द जोड़ दिया हो, मेरे विचार में अपने विचारों का बधियाकरण करने से कुछ विशेष लाभ नहीं हो सकेगा। जानिये कि बुद्धिवादियों का हाजमा उन्हीं की शब्दावली से ठीक हो सकता है। बाबा नागार्जुन ने डंके की चोट पर कहा न - 'जनता मुझसे पूछ रही है क्या बतलाऊँ, जनकवि हूँ मैं, साफ कहूँगा, क्यों हकलाऊँ।Ó और, केदार में भी वही प्रखरता है न - 'मैंने उसको जब-जब देखा, लोहा देखा, लोहे जैसा- तपते देखा, गलते देखा, ढलते देखा, मैंने उसको गोली जैसा चलते देखा!Ó मैं कहता हूँ - 'जनकविÓ, 'साफ कहूँगाÓ, 'क्यों हकलाऊँÓ, 'लोहाÓ और 'गोली जैसा चलते देखाÓ में जो उग्रता (वज्र तुल्य रूपता) है, उस पर न किसी आचार्य ने ध्यान दिया, न आलोचक ने ही। आलोचक भला ध्यान क्यों देता? वह पृथक् रूप से वज्र तुल्य प्रहार करने में निमग्न था (है)। यहाँ ध्यान दें- सारी कविता (साहित्य) रक्तस्नात, और विचारों में रक्तपात। वैसी रक्तस्नात रचनाएँ 'ऊधौ मोहिं ब्रज बिसरत नाहींÓ - में व्यक्त भावात्मक अर्थ में, आज तक, पाठ्यक्रमों से लेकर मंच-मचान तक, पूरे प्रवाह में पढ़ी-पढ़ायी जाती हैं। और, मुझे अटल बिहारी वाजपेयी की काव्य-पंक्तियाँ स्मरण आती हैं - 'टूटे हुए सपनों की कौन सुने सिसकी, अन्तर की चीर व्यथा पलकों पर ठिठकी, हार नहीं मानूँगा, रार नयी ठानूँगा, काल के कपाल पे लिखता मिटाता हूँ, गीत नया गाता हूँ।Ó मैंने 'काल के कपाल पेÓ वज्र तुल्य कठोर लिखने का प्रयत्न किया है। यदि 'टूटे हुए सपनों की सिसकियाँÓ सुन कर भी जाग्रत न हुआ जा सका, तो दिनकर के शब्दों में कहना न होगा कि 'जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराध।Ó 'वज्रपातÓ ने कम-से-कम मुझे उस अपराध से बचाने का काम किया है। तो, मैंने बोला है। और, खुल कर बोला है।
तो, लौटते हैं अपनी बात पर- 'वज्रपातÓ शीर्षक का समन्वेशिता के उद्देश्य से परित्याग क्या हुआ, हम तीन भाइयों ने इसे स्तम्भ के रूप में लिखने का निर्णय किया। फिर, पर्याप्त समय बीता। उस मौन व्याप्त समयान्तराल में, मन-मस्तिष्क में विचारों का सोता फूटता रहा। वैसे, आप जानते हैं, सोच-विचार से थोड़ी ही कुछ होता है? माने, 'हत्या पर विचार करनाÓ और 'हत्या करनाÓ में जो क्रियात्मक, संक्रियात्मक एवं प्रक्रियात्मक भेद है, वही भेद सोचने, चर्चा करने और क्रियान्वयन के लिए संकल्पित होकर कार्यसिद्धि में जुट जाने में है। नाम विशेष का निर्धारण, उसके रूप-स्वरूप पर चर्चा और स्तम्भ रूप में उसकी क्रियान्विति में पर्याप्त समय बीता। फिर, एक दिन, डॉ. अजय खेमरिया से 'स्वदेशÓ में स्तम्भ हेतु वार्ता हुई। उनकी ओर से एक यथार्थबोधक चिन्ता प्रकट थी 'स्तम्भ माने निरन्तरता।Ó चर्चान्त में जब वे आश्वस्त हुये, तो स्तम्भ के लिए स्थान निर्धारित हुआ। और, दिन निर्धारित हुआ- रविवार। ताकि पाठकों को पढ़ने के लिए समय मिल सके। इस प्रकार जनवरी 2023 से उस नाम निर्धारण की चर्चा और स्तम्भ लेखन के निर्णय की अन्तिम परिणति 'वज्रपातÓ स्तम्भ-लेखन में हुई।
'वज्रÓ में शस्त्र का बोध है। शास्त्र का बोध है। पुरातनता का बोध है। सनातनता का बोध है। तार्किकता का बोध है। वह प्रचण्ड कठोर है। वह अचूक है। और, वह अकारण ही किसी पर प्रयुक्त नहीं होता। वृत्तासुर जैसे असुरों के वध के लिए महर्षि दधीचि की हड्डियों से निर्मित वज्रास्त्र के आख्यान को भूल कर काम नहीं चल सकता। उस शस्त्र निर्मिति में शास्त्र-बोध है। सृष्टि-बोध है। इसलिए वज्रपात की सार्थकता, सात्विकता को बनाये रखने के लिए मैंने प्राय: अपनी दृष्टि व चिन्तन को अनुशासनबद्ध करने का प्रयत्न किया। राष्ट्र की थाती के लिए ही राणा व शिव ने अपना जीवन समर्पित कर दिया था। यदि हम अपने समय के शिव-राणा नहीं बन सके, तो सब व्यर्थ है। हमारे इस महादेश की स्थिति इतनी विचित्र हो गयी है कि राष्ट्रहितचिन्तक राष्ट्रोद्धार चाहते तो हैं, किन्तु उनका लहजा प्राय: बचावात्मक हो जाता है। और, 'तुलसी मीठे वचन ते, सुख उपजत चहुँ ओरÓ- नीतिपरक उपदेश देने लग जाते हैं। मानो, हमारी सनातनता-पुरातनता ही सन्दिग्ध हो। ऐसे उपदेशों का ही प्रभाव है कि कतिपय वैचारिक मधुमेहग्रस्त हैं। इस कारण जिह्वा लड़खड़ाने लग जाती है।
हमारा यह प्यारा भारतवर्ष, जिसे मैं प्राय: महादेश कहता हूँ- संस्कृति, दर्शन एवं परम्परा की दृष्टि से 'टॉर्च बियररÓ देश है। इसे तोड़ने के अनेक उपक्रम हुए हैं। भारतीय स्वाभाविक रूप से बन्धक का-सा अनुभव करते-करते खण्ड-खण्ड हुआ है। कभी जाति, तो कभी भाषा के नाम पर। कभी प्रान्त, तो कभी सनातन की शाखा-प्रशाखाओं व मत-मतान्तरों के नाम पर। यह जघन्य था, किन्तु हमारी धमनियों में लहू की धार इतनी शिथिल पड़ गयी है कि कोई आक्रमण-अतिक्रमण अखरता ही नहीं। अस्तु, 'मजबूरÓ फ़िल्म का एक गीत है - 'आदमी जो कहता है, आदमी जो सुनता है, ज़िंदगी भर वो सदाएं पीछा करती हैं।Ó मेरे लिए 'वज्रपातÓ वह सब कहने का माध्यम बना, जिसकी अनुगूँज (सदाएँ) आज नहीं तो कल, निश्चय ही सुनी जाएंगी। मैथिलीशरण गुप्त की कविता है - 'सँभलो कि सुयोग न जाए चला, कब व्यर्थ हुआ सदुपाय भला! समझो जग को न निरा सपना, पथ आप प्रशस्त करो अपना। अखिलेश्वर है अवलम्बन को, नर हो न निराश करो मन को। इसलिए, 'दिखावो बन्धु क्रम विक्रम नया तुम।Ó-भूलो न इस देश को, वज्रपात करो तुम!
(लेखक अखिल भारतीय राष्ट्रवादी लेखक संघ के संस्थापक हैं)