मप्र: अटकलों के शोर में कुछ चेहरों की चर्चा
अगर ऐसा है तो अगली गुत्थी: फिर शिवराजसिंह चौहान के राजनीतिक जीवन का अगला पड़ाव क्या होगा, जो मध्यप्रदेश की महाविजय के एक बड़े हिस्सेदार हैं? महारानी वसुंधरा राजे सिंधिया महलों से निकलकर कहां जाएंगी, जो यह मानकर अपने बुर्ज पर अडिग हैं कि उनके बिना राज्य कैसा, राजनीति कैसी? रमनसिंह क्या करेंगे, विपक्ष में रहते हुए जिनके पास वैसे तो कुछ खास नहीं था किंतु अब एक स्वर्णिम अवसर द्वार पर है! पिछले बीस साल से तीनों राज्यों के पोस्टरों पर दो या तीन या चार बार सीएम की कुर्सी पर वे रहे हैं। अनुभवी हैं। उनके बराबर का कौन? यह स्वाभाविक दावेदारी है।
अब अलग-अलग दिशाओं के तीर-
जैसे-शिवराजसिंह चौहान पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष हो सकते हैं। बीजेपी में राष्ट्रीय अध्यक्ष होना कांग्रेस का राष्ट्रीय अध्यक्ष होना नहीं है। सोलर संचालित मूविंग हाईमास्ट और पुराने पीले फ्यूज बल्व या बुझी हुई लालटेन जितना अंतर है। उस चेयर पर कठिन संघर्ष के दिनों में अटल और आडवाणी जैसे विराट व्यक्तित्व रहे हैं, जिन्होंने पार्टी को कहां से कहां पहुंचा दिया। अकेली बीजेपी है, जिसमें योग्य नेताओं से सुशोभित इस शक्तिशाली कुर्सी ने देश की राजनीतिक दिशा तय की है। ये नेता किसी परिवार के नहीं थे। वे साधारण कार्यकर्ता की हैसियत से इस ऊंचाई पर पहुंचे थे। उनकी अपनी दृष्टि थी, उनका परिश्रम था। श्यामला हिल्स से आगे शिवराजसिंह चौहान की यह एक बिल्कुल नई उड़ान होगी।
कुछ अगर-मगर भी जोड़ लीजिए!
क्या वसुंधरा और रमन सिंह को मोदी कैबिनेट में जाने के लिए कहा जाएगा और कहा गया तो क्या वे मन मसोसकर ही रायपुर-जयपुर से नहीं निकलेंगे? दिल्ली में वेकेंसी तो काफी हैं। फग्गनसिंह, प्रहलाद पटेल, नरेंद्र तोमर, तीन तो यही खाली हैं। अगर ऐसा होता है तो तीनों राज्यों में आने वाले दिनों में एक नई बीजेपी को आकार लेता हुआ हम देखेंगे, नई बीजेपी का नेतृत्व सरकार में भी दिखाई देगा और संगठन में भी। वह अटल-आडवाणी के समय की कुछ पुरानी पड़ चुकी टेक्नोलॉजी से मुक्त केवल 'मोदी की गारंटीÓ वाली बीजेपी होगी! 2024 में तीन शब्दों का यही मारक मंत्र गूंजने वाला है-'मोदी की गारंटी।Ó
एक दूर की कौड़ी
मध्यप्रदेश में परिवर्तन की स्थिति बनी तो क्या सीएम के लिए शिवराजसिंह चौहान की सहमति भी ली जाएगी? और वे किस नाम पर सहज-सहमत होंगे? प्रहलाद सिंह पटेल को अपना उत्तराधिकारी बनाना चाहेंगे, कैलाश विजयवर्गीय को या नरेंद्र सिंह तोमर को? इस अटकल पर नरेंद्रसिंह तोमर अवश्य अपने बेटे के वीडियोगेम को कोस रहे होंगे, असमय जिसका वर्ल्ड प्रीमियर हो गया! निकालने को राजनीति में हाथी सुई के छेद से निकाला जा सकता है और रोकने को बाल की खाल से भी नए-नए तत्व निकाले जा सकते हैं। कैलाश विजयवर्गीय इनमें अकेले हैं, जो सबसे ज्यादा तपे-गले हैं। बंगाल की भट्टी में पूरे सात साल तक। क्या पार्टी उन्हें नए सिरे से चमकाकर चार्ज करेगी? अगर वे सीएम बने तो प्रहलाद पटेल की पोजीशन क्या होगी और तोमर साहब की कुर्सी कहां लगेगी, फिर मूंछों पर ताव देते राकेश सिंह भी हैं, जो माननीय पूर्व प्रदेश अध्यक्ष हैं?
यही प्रश्न प्रहलाद पटेल के सीएम बनने की स्थिति में हैं कि बाकी कौन किधर बैठेगा? मगर इन सबके बीच विष्णुदत्त शर्मा को मत भूलिए, जो खम ठोककर अभी अध्यक्ष हैं और प्रधानमंत्री ने हर रोड शो में खुली कार में अपने दाएं हाथ उन्हें बुलाकर रखा है! वे विशुद्ध संगठन के हैं, जिन्होंने बूथ स्तर पर कार्यकर्ताओं का नेटवर्क 'पावर बैंक के रूप में फुल चार्ज रेडीÓ रखा। सबको एकमुश्त चौंकाते हुए क्या पोस्टर पर उनका चेहरा चमक सकता है? एक सांसद, जो केंद्र में मंत्री भी हैं, वे हैं ज्योतिरादित्य सिंधिया। इन सारी अटकलों और अनुमानों में क्या यह भी संभव है कि जयविलास तक कोई संदेश आ भी गया हो और वहां उनके रथवान रथों को सजाने में जुटे हों? अगर नई बीजेपी का ऐसा लोकार्पण होता है तो फिट होने के लिए कैलाश, प्रहलाद, नरेंद्र सिंह, वीडी, राकेश सिंह आदि के खाने कौन से होंगे?
राजनीति संभावनाओं का खेल है और इस खेल में कुछ भी नामुमकिन नहीं है, लेकिन वीडी शर्मा के संदर्भ में वह प्रश्न और अधिक वजनदार हो जाता है कि अगर वे राज्य की कमान संभालते हैं तो दिल्ली से आए बाकी दिग्गजों के सिंहासन कहां सजेंगे? सोचिए, यह काम टिकट बांटने से कितना अधिक जटिल और कठिन है। इधर घरों में बेटे बाप की नहीं सुनते और भाई हमेशा आंखें तरेरते हैं! इस दृष्टि से बीजेपी वाकई एक बहुत अनूठा परिवार है, जहां सर्वाधिक विरोध परिवारवाद का है! इनमें से किसी के भी मुख्यमंत्री बनने की स्थिति में उनकी संभावित कैबिनेट में भी अनेक अलग नए विधायक उम्मीद से होंगे। 12 तो थोक में हारे ही हैं। 163 के लाट में से इतने चेहरे तो नए ही उठेंगे। हर अगली संभावना कई नए प्रश्न सहित है। कैलाशजी के साथ वे चेहरे कौन होंगे, प्रहलाद हुए तो कौन होंगे, वीडी बने तो कौन होंगे और सिंधियाजी किन-किन को लाएंगे? क्या नीचे के सारे चेहरे भी ऊपर भी तय होंगे? अब मध्यप्रदेश के दूरदराज क्षेत्रों में, जहां चर्चाएं जोरों पर गरम हैं। सबके फोन फुल चार्ज हैं। हर घंटी पर आंखें टिकी हैं। नंबर या नाम देखकर दिलों की धड़कनें बढ़ी हुई हैं। सब एक-दूसरे को टटोल रहे हैं। पता नहीं किसके पास किन भाईसाहब से प्राप्त किसी सूचना का कोई सिरा या संकेत मिल जाए?
भोपाल में एक नए चेहरे के आने पर दूरदराज के कई नए लोगों की अनंत आस टिकी हैं। हर पार्टी में ऐसे लोग होते हैं, जिनके जीवन में केवल संघर्ष ही होते हैं। बीजेपी में भी हैं, जिनके जीवन का ज्यादा समय केवल जूझते हुए बीता। शत्रुओं से अधिक मित्रों से। ये समय उनके लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। क्या पता, उम्र के उत्तरार्द्ध में ही कोई अवसर उनका द्वार खटखटा दे। पार्टी में ऊपर चमकी हर नई किरण को नीचे अंधेरों में टिमटिमाते हुए हरेक दीए का ध्यान रखना है। आशाएं उफान पर हैं।
झाबुआ क्षेत्र में दौलतराम भावसार एक नाम है, जो कुशाभाऊ ठाकरे के समय का एक सम्मानित नाम है। वे जिला अध्यक्ष रहे। एक बार किसी बात पर रूठ गए तो ठाकरे साहब ने मनाकर बुलवाया और कहा कि काम करने वाला यहां है कौन? जहां भेजा वहां लगे। कोई बड़े अवसर नहीं मिले। 80 के ऊपर होंगे, मगर जाने किस आशा में अपने शुभेच्छुओं से अब भी पूछ रहे हैं- भाई साहब, भोपाल से क्या खबर है और दिल्ली में क्या चल रहा है? धार के विनोद शर्मा और उज्जैन के शील लश्करी भी संघर्ष के समय के योद्धाओं में गिने जाते हैं, जिनके बायोडाटा और अधिक समृद्ध होने चाहिए थे मगर नहीं हुए।
नीमच के करणसिंह परमाल, जो सदा संगठन की बिसात पर बिछते रहे। उनके पिता लालाराम परमाल की प्रतिष्ठा संघ में तब के समय की है, जो तप का विकट समय था, जिन्होंने पटवाजी जैसे प्रचारक निकाले थे। खंडवा के हरीश कोटवाले, सपरिवार मीसाबंदी, जिनके पिता जॉर्ज फर्नांडीस के साथ बंदी थे। 1995 में एक बार पार्षदी मिली थी। बस। युवा मोर्चा के चेहरों में गुना के गोविंद राठी, जो तोमर और चौहान के साथ के हैं। गुना से बाहर निकलकर चमकने का अवसर नहीं आया तो नहीं आया। गुना के पास बमोरी के समाजसेवी ओपी शर्मा, बिल्लियों ने जिनका रास्ता हर बार काटा, वर्ना वे बमोरी में दस साल से अपने बूते ही अपना मजबूत आधार बना चुके हैं और जीत को अपने कर्मों से पक्की करने वाले बेदाग और विश्वसनीय चेहरे हैं, जिनके पास लक्ष्मी की कृपा वैसी ही है, जैसी रतलाम के चेतन कश्यप या बैतूल के हेमंत खंडेलवाल की है। ये ऐसे लोग हैं, जो अपनी मेहनत की कमाई से पार्टी की जड़ों को सींचते हैं। खाने-कमाने यूं ही नहीं चले आते। मैंने सुना ही है कि कश्यप तो विधायकी का वेतन तक नहीं लेते। खंडेलवाल खानदान ने पार्टी के कठिन समय में तिजोरी, जेबें और सबसे पहले दिल को खोलकर रखा। उन्हें केवल सम्मान चाहिए और वे दस गुना लौटा देंगे। ओपी शर्मा टिकट से वंचित रहे, इस लहर में बीजेपी बमोरी से ही वंचित हो गई!
जबलपुर के धीरज पटेरिया नई पीढ़ी के वंचित नेताओं में सर्वाधिक ध्यान देने योग्य नाम है। वे अकेले प्रदेश युवा मोर्चा अध्यक्ष हैं, जो हमेशा हाशिए पर रहे। अभिलाष पांडे उनके जूनियर हैं, एमएलए बन गए हैं। पटेरिया ने 2018 में निर्दलीय चुनाव लड़ा और तीस हजार वोटों की ताकत दिखाई। पार्टी ने उन्हें वापस लिया, स्वयं अमित शाह मिले मगर उनके धीरज की परीक्षा अभी खत्म नहीं हुई है। पन्ना के सुधीर अग्रवाल, हरदा के गौरीशंकर मुकाती, बैतूल के राजा ठाकुर, रीवा के केशव पांडे और छिंदवाड़ा के कन्हई राम रघुवंशी तक एक लंबी लिस्ट है, जो बीजेपी के राजमहलों की नींव की मजबूत शिलाएं हैं।
इंदौर में रमेश मेंदोला, जिनकी प्रसिद्धि दादा दयालु की है। एक लाख से अधिक वोटों से जीते रमेश किसी भी सीट से उतार दिए जाएं, एक लाख से कम में क्या निकलेंगे? जिस पार्टी में धाराप्रवाह भाषण किसी भी नेता की एक बड़ी योग्यता मानी जाती है, वहां दादा दयालु भाषणवीर नहीं है। वे मितभाषी हैं। मगर भय और प्रेम के मिलेजुले रसायन ने राजनीति का एक वैज्ञानिक रूप उन्हें भी प्रदान किया है। कैलाश विजयवर्गीय के साथ उनकी जोड़ी इंदौर के मोदी-शाह की जोड़ी जैसी रही है। दादा उन भाग्यशालियों में तो हैं जिन्हें कम से कम विधायकी मिली। वर्ना हर जिले में ऐसे नेताओं की कमी नहीं है, जिनके हाथों में केवल कर्म की रेखाएं ही आयुपर्यंत गहराती रहीं, कहीं से फल नहीं टपके!महाविजय के बाद बीजेपी का अगला कदम क्या होगा, यह अगले कदम के उठने के बाद ही सबको ज्ञात होगा, इसके पहले किसी को नहीं। मगर मध्यप्रदेश के नए सफर में एक तेवर की कमी भी रह जाएगी। वे डॉ. नरोत्तम मिश्रा हैं, जिनके रथ के पहिए दतिया के दुर्गम रण में फंस गए। जब सब तरफ से वातावरण अनुकूल था, तब मौसम वहीं बिगड़ना था। उन्नत ललाट पर चमकते तिलक की पहचान वाले पंडितजी कहकर तो लौटे हैं कि उतरते समंदर को देख घर न बना लेना, मैं लौटकर आऊंगा!
बीते वर्षों में अक्सर यह सवाल उठता रहा है कि मध्यप्रदेश में शिवराजसिंह चौहान के बाद कौन? इसके उत्तर में एक तरफ कैलाश विजयवर्गीय तो दूसरी तरफ से नरोत्तम मिश्रा के विकल्पों पर गुणा भाग होते रहे हैं, दोनों की अंकसूचियों के प्लस-माइनस के साथ। नरोत्तम की अगली पोजीशन पर भी उनके फैंस क्लबों की दृष्टि रहेगी। अगर कुंडली के सितारे व्यक्ति के उत्थान और पतन में कोई भूमिका रखते हैं तो इस समय तीन राज्यों में अनेक कुंडलियों के अनेक सितारे सर्वाधिक व्यस्त और गतिशील होंगे। वे किसके खाते में क्या लाएंगे, यह दिल्ली से उपजी खबर होगी, जो भोपाल, रायपुर और जयपुर में चमकेगी!