जाति-आधारित जनगणना के भंवर में राष्ट्र

जाति-आधारित जनगणना के भंवर में राष्ट्र
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वज्रपात-बर्तन में ही भेद है, पानी सब में एक

डॉ. आनन्द पाटील

इतिहास साक्षी है, जिन्हें कभी भी इस महादेश (राष्ट्र) से प्रेम नहीं रहा और जो स्वार्थलोलुप थे, उन्होंने प्राय: इस महाभूमि में समय के प्रवाह में, नानाविध परिस्थितियों में उत्पन्न एवं शनै:-शनै: विकसित बहुलता (वैविध्य) को औज़ार-हथियार बना कर सामाजिकों के अन्त:करण में समय-समय पर पार्थक्य (अलगाव) भाव अन्त:क्षिप्त किया और सामाजिक समरसता को ध्वस्त कर पारस्परिक सहयोग एवं सौहार्द के स्थान पर अनबोध्य वैमनस्य, उससे उत्पन्न प्रतिशोध की भावना, नकारात्मकता, प्रतिद्वन्द्विता एवं प्रतिक्रियावादिता को बढ़ावा दिया। और, वे यह सबकुछ, कुछेक हेर-फेर के साथ, राजनीति में अपने पैर जमाने तथा समाज में अपनी गहरी पैठ बनाने के लिए करते रहे हैं।

आज जातिवाद, भाषावाद और क्षेत्रवाद जिस रूप में उग्र दिखायी दे रहा है, उसके पीछे राजनीति में पैर जमाने और समाज में अपनी पैठ बनाने की उच्चाकांक्षाओं से ग्रस्त अतिव्यग्र नेताओं का प्रत्यक्ष योगदान रहा है। और, वे यह सबकुछ करके मालामाल हैं। यह सत्य है कि क्षेत्रीय परिवारवादी दलों ने बहुत-कुछ कांग्रेस से ही सीखा और कालान्तर में, एक ही परिवार के वर्चस्व में सिमटी कांग्रेस ने बहुत-कुछ क्षेत्रीय दलों से सीखा। वर्तमान में ऐसे सारे परस्परानुग्राही राजनीतिक दल मौसेरे भाइयों-सी प्रगाढ़ एकता दिखा रहे हैं एवं परस्पर कल्याण के लिए इस महादेश को नकारात्मक विमर्श के दलदल में धकेल रहे हैं। ऐसे कल्याणकामियों में हिन्दुओं को संगठित करने के लिए अपना जीवन समर्पित करने वाले हिन्दू हृदय सम्राट बालासाहब ठाकरे का वंश भी विभाजितों का अविभाज्य अंग बन चुका है। सच है, सत्ता की पिपासा क्या-कुछ नहीं कराती!

पारस्परिक आदान-प्रदान करने वाले ऐसे ही कुछ महानुभाव पुन: जाति-आधारित जनगणना का मुद्दा परोस कर उसकी भट्टी में या तो अपनी रोटियाँ सेंकने का उपक्रम कर रहे हैं या उस भट्टी की आँच पर अपनी दाल न गलने के कारण इस देश को ही उस भट्टी में झोंकने का उद्यम कर रहे हैं। इससे कुछ हो न हो, सामाजिकों के बीच एक अनिर्णीत वाक् युद्ध छेड़ने में उन्हें सफलता प्राप्त होती-सी प्रतीत हो रही है। जाति-विभेद और विद्वेष की भयंकर मार झेलने वाले तथा विकास पथ पर सबसे पिछड़े राज्य (बिहार) ने जाति-आधारित जनगणना का मार्ग प्रशस्त करने वाला कार्य क्या किया है, राजनीतिक विमर्शकार इस विमर्श में जुट चुके हैं और संदेह प्रकट कर रहे हैं कि इससे 2024 के आम चुनाव में भाजपा को पर्याप्त नुकसान होगा। ऐसे विमर्शों को सुन कर तथा उस चिंतन प्रवाह में बह कर उच्च शिक्षित युवा भी सार्वजनिक रूप से साग्रह कह रहे हैं कि अब जाति-आधारित जनगणना होनी ही चाहिए ताकि पता तो चले कि कहाँ कितना पानी ठहरा हुआ है, या शेष है। ऐसे युवाओं की मति तात्कालिक एवं अदूरदर्शी राजनीतिक विमर्शों की भेंट चढ़ती हुई प्रतीत होती है। सम्भवत: उन्हें अभी 'पानीÓ शब्द में अनुस्यूत प्रवाही व्यञ्जकता का अर्थाभास नहीं है। वास्तव में, ऐसे युवा नहीं जानते कि इससे जातिगत भेदाभेद अत्यधिक तीव्र होंगे। सामाजिकों के बीच जातिगत विद्वेष अधिक व्याप्त और प्रकारान्तर से गहरा होगा। और, सामाजिकता पतनोन्मुख होगी। इतना ही नहीं, जिस 'समताÓ की बात प्राय: प्रत्येक मंच से की जाती है, वह केवल एक दिवास्वप्न बन कर रह जायेगा।

ध्यान दीजिए - 'जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारीÓ में आक्रामक तेवर अतिव्याप्त है। यह नहीं भूलना चाहिए कि कभी कहा गया था कि इस देश के संसाधनों पर अल्पसंख्यकों का पहला अधिकार है। यह सत्य है कि इस देश में अल्पसंख्यक होकर ही बहुत-कुछ सहज प्राप्त किया जा सकता है। इसलिए यहाँ कई लोग लाभ-लोभ में पन्थान्तरण कर जाते हैं और अल्पसंख्यक बन जाते हैं। कुछ तो पन्थान्तरित होकर भी हिन्दुओं की कुप्रथाओं से उपजी जातियों को प्रदत्त संवैधानिक लाभ उठाने से नहीं चूकते। ऐसे में ध्यान देने की आवश्यकता है कि संख्याबल की आक्रामकता से आज तक किसी को कुछ भी (उत्कृष्ट) साध्य नहीं हो सका है। उदाहरण स्वरूप तलवार के बल पर तथा धन एवं छल-बल से विस्तार करने के अभ्यस्त रीलिजन/ मजहब भीतर से खोखले ही रह गये हैं। संख्याबल से कठमुल्लापन तक का यह विस्तारवादी मार्ग किसी भी दृष्टि से उपयुक्त एवं अनुकरणीय नहीं कहा जा सकता। सम्भवत: इसी निकृष्टतम विस्तारवाद एवं कठमुल्लापन को दृष्टिगत रखते हुए विभाजितों के अतिप्रिय मार्क्स ने 'रिलीजन को अफीमÓ कहा था। विस्तारवाद की आकांक्षी चर्च की सत्ता के किस्सों को कौन नहीं जानता! कहना न होगा कि केवल संख्याबल से कुछ भी साध्य नहीं हो सकता।

ध्यातव्य है कि भारत में हिन्दू बहुसंख्यक होकर भी आज तक एकजुट नहीं हो पाये हैं और उनकी एकसूत्रात्मक एकात्म शक्ति जातियों में विभक्त होकर समय-समय पर क्षीण होती रही है, जिसका लाभ प्राय: विस्तारवादी(?) मानसिकता वालों ने उठाया है। जाति-आधारित जनगणना की माँग भारत विखण्डन की दिशा में एक और हठात् प्रयास है। ऐसे प्रयासों से स्वातंत्र्र्य वीर सावरकर, बाबासाहब अम्बेडकर जैसे भारत पुत्रों द्वारा जाति उन्मूलन के लिए किये गये ऐतिहासिक कार्य और भारत को पूर्णावस्था में देखने-पहुँचाने के स्वप्न को ध्वस्त करने का यत्न हो रहा है।

स्पष्ट है कि आज जाति-आधारित जनगणना के पक्ष-विपक्ष आपस में गुत्थमगुत्था हैं। वर्तमान समय में जाति और उसके आधार पर जनगणना का कोई श्वेत और हितकर पक्ष दृष्टिगोचर नहीं होता। यह स्पष्ट है कि इससे जातिगत भेदाभेद, विद्वेष और प्रतिद्वन्द्विता ही बढ़ेगी। इस स्पष्टता के बावजूद प्राय: सुशिक्षित लोग दबे मन से ही सही, जाति-आधारित जनगणना के पक्ष में अपनी मौन स्वीकृति देते दिखायी दे रहे हैं। यदि प्रश्न करें कि क्यों मौन हैं, तो एक स्मित मुस्कान फेंक देते हैं। सर्वज्ञात है कि 'मौनं स्वीकृति: लक्षणम्।Ó ऐसे लोग प्राय: कहते पाये जाते हैं कि भारत विश्व में सर्वाधिक असमानताओं को वहन करने वाले देशों में से एक है, जहाँ अधिकांश संसाधनों एवं नौकरियों पर कथित उच्च जातियों का वर्चस्व है। जबकि उस सत्य पक्ष से भी अब सबको परिचित हो जाना चाहिए कि जाति-आधारित आरक्षण से कुछ विशेष पॉकेट्स को ही लाभ प्राप्त हैं। अब आरक्षण भी परिवारवाद की भ्रष्ट परम्परा की भेंट चढ़ चुका है। वह कुछ परिवारों में पीढ़ी-दर-पीढ़ी आधिकारिक रूप में प्रचलित हो चुका है। उसमें विकसित नवोन्नत वर्ग (क्रिमीलेयर) पर प्राय: सभी मौन हैं। जिन्होंने लाभ उठाया है, वे औरों के लिए कहीं कोई अवसर नहीं छोड़ते। मु_ी भर लोग सबकुछ अपने लिए और अपनों के लिए समेट कर रखने की अन्धी दौड़ में हैं। हमारे समय का यह यथार्थ है कि कुछ पॉकेट्स के बाहर सच्चे अर्थों में वंचितों को कुछ भी प्राप्त नहीं हो पाता है। ऐसे में, यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि जाति-आधारित जनगणना से अर्जित संख्याबल से वे ही भैंस हांक ले जायेंगे, जिनकी पूर्व-परम्परा में उनका कोई पूर्वज मठाधीश बना बैठा होगा। वास्तविक रूप में अभावग्रस्त वंचितों को तब भी कुछ विशेष प्राप्त नहीं होगा। किसी भी बात के होते हुए यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या कोई इस लाठी से इस महादेश की जनता को भेड़ों की भाँति हाँक ले जाने में सफल हो पायेगा? कहते हैं न - 'एक त धिया अपने गोर, दूसरे अइली कमरे ओढ़।Ó शेष, आप समझदार हैं।

(लेखक अखिल भारतीय राष्ट्रवादी लेखक संघ के संस्थापक हैं।)

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