प्रकृति से छेड़छाड़ ठीक नहीं!
विकास की अंधी दौड़ में न केवल भारत वरन पूरी दुनिया लगी हुई है। उसका ही दुष्परिणाम है कि हम ग्लोबल वार्मिंग को झेल रहे हैं। मौसम का संतुलन बिगड़ गया है। तेजी के साथ वृक्ष कट रहे हैं। नदियां प्रदूषित हो रही हैं। तालाब धीरे-धीरे पटते जा रहे हैं। आने वाला समय में पर्यावरण कितना भयावह होगा, उसकी कल्पना तक नहीं की जा सकती। धरती को निरंतर खोदने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है । और अब तो पहाड़ों के साथ भी निरंतर छेड़खानी हो रही है। वहां बड़े-बड़े टनल (सुरंग) बनाए जा रहे हैं ताकि आवागमन सुगम हो सके। लेकिन इसका खामियाजा भी भुगतना पड़ रहा है। उत्तराखंड में पहाड़ों के साथ छेड़छाड़ के कुपरिणाम समय-समय पर दिखाई देते हैं। खासकर बारिश के समय होने वाली तबाही किसी से छिपी नहीं है। पहाड़ को जितना अधिक खोदेंगे, उतना वहां भूस्खलन बढ़ेगा। पहाड़ कमजोर होंगे और वह कहीं न कहीं से धसकते ही जाएंगे। अभी हाल ही में हमने देखा कि उत्तराखंड में एक टनल के भीतर काम करते हुए कैसे स्खलन हुआ और 41 मजदूर उसमें फँस गए। गनीमत है कि मिट्टी, पत्थर मजदूरों पर नहीं गिरे वरना बहुत बड़ी जनहानि हो जाती। वे केवल टनल के बीच में सत्रह दिन फंसे रहे। हालांकि उनके बाहर निकालने का काम युद्ध स्तर पर चलता रहा। और सबसे अच्छी बात यह है कि जहां बड़ी-बड़ी मशीनें फेल हो गई, वहां मनुष्यों के हाथ ही आगे बढ़े । यानी 'रेट माइनर्सÓ ( हाथ से मिट्टी खोदने वाले मजदूर) की मदद से मिट्टी हटाई गई और मजदूरों को बाहर निकाला गया। इससे एक बात यह भी समझ में आती है कि सिर्फ मशीन ही हमारी मदद नहीं करती, आपातकाल में मजदूरों के हाथ ही कारगर साबित होते हैं । उत्तराखंड में हमने यह देखा। इसलिए होना यह चाहिए कि मशीन के साथ-साथ श्रमवीरों के हाथों का भी निरंतर सम्मान होता रहे । और सबसे बड़ी बात, जो मैं कहना चाहता हूँ, वह यह है कि पहाड़ों को अनावश्यक रूप से जख्मी करने की कोई जरूरत नहीं। ठीक है कि उत्तराखंड में अनेक पवित्र स्थल हैं। वहाँ तक आसानी से पहुंचने के लिए टनल आदि बनाए जा रहे हैं। लेकिन ईश्वर तक पहुंचने के लिए भक्तों को थोड़ा श्रम करना चाहिए। वे पैदल जाएं। घोड़े पर सवार होकर जाएं। लेकिन यह मानसिकता ठीक नहीं है कि भगवान के दरवाजे तक हम कार से पहुंच जाएँ। समाज का एक बड़ा वर्ग जो खा-पी करके अघा चुका है, वह ईश्वर की भक्ति भी अपनी सुविधा के साथ करता है। यही कारण है कि उन सबों को ध्यान में रखकर उत्तराखंड जैसे राज्य में पहाड़ों के साथ निरंतर अत्याचार किया जा रहा है। बड़े-बड़े संयंत्र लगाने की कोशिश हो रही है। टनल बनाए जा रहे हैं। इस बात की किसी को परवाह नहीं कि इस पहाड़ी क्षेत्र में भीषण बारिश के कारण कभी यह टनल भी नष्ट हो सकते हैं। लोगों की जाने जा सकती हैं। लेकिन इतनी गहराई से सोचता ही कौन है। जबकि इस पर गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए। बेशक आप पहाड़ों पर सड़क बनाएं, टनल बनाएं लेकिन यह सावधानी रहे कि उस पर बहुत अधिक दबाव न रहे। अभी तो एक बड़ा हादसा होते-होते बच गया। भविष्य में ऐसा कुछ न हो कि बड़ी जनहानि हो जाए, इसलिए पहाड़ पर विकास के मामले में फूँक- फूँक कर कदम रखने की ज़रूरत है।
नि:संदेह विकास हमारे समय की जरूरत है। विकास होना भी चाहिए लेकिन अगर विकास के लिए हम पेड़ों का विनाश करेंगे, तो हम भले ही मालामाल हो जाएंगे लेकिन हमारी भावी पीढ़ी उसके अभिशाप से मुक्त न हो सकेगी। आज पूरी दुनिया ग्लोबल वार्मिंग से चिंतित है । इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि भारत ही नहीं, पूरी दुनिया में वृक्षों की बेधड़क कटाई और पहाड़ों की तबाही हो रही है।
पेड़ों के महत्व को उत्तराखंड के सामाजिक आंदोलनकर्ता सुंदरलाल बहुगुणा ने समझा था। इसलिए उन्होंने पेड़ों को बचाने के लिए 'चिपको आंदोलनÓ भी चलाया था। लोग पेड़ों से चिपक जाते थे और पेड़ काटने वालों को रोकते हुए कहते थे, 'पहले हमें काटो फिर पेड़ों को काटना!Ó धीरे-धीरे पूरे उत्तराखंड में यह चिपको आंदोलन फैला। वह इतना लोकप्रिय हुआ कि बाद में पूरे देश में फैल गया। लोगों में जागरूकता आई। सब ने पेड़ों का महत्व समझा और पेड़ों की निर्मम कटाई में बहुत हद तक रोक लगी। बिना अनुमति के पेड़ काटना दंडनीय अपराध घोषित किया गया। पेड़ काटने के जुर्म में जेल और जुर्माने का प्रावधान किया गया। लेकिन इसमें एक छेद भी इस व्यवस्था ने ऐसा कर दिया, जिसके कारण पेड़ों की कटाई का सिलसिला अबाध गति से चलता ही रहा। सभी राज्य सरकारों ने यह प्रावधान किया कि प्रशासन की अनुमति के बगैर पेड़ नहीं काटे जाएंगे। लेकिन पेड़ तो कट रहे हैं। पहाड़ों का भी सीना छलनी हो रहा है।
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)