न्याय तंत्र में बड़े बदलाव की जरूरत

न्याय तंत्र में बड़े बदलाव की जरूरत
लालजी जायसवाल

भारत में जैसे-जैसे प्रतिव्यक्ति आय एवं समृद्धि बढ़ेगी, वैसे-वैसे न्यायालयों के ऊपर भी कार्य का दबाव बढ़ेगा। इस स्थिति से निपटने के लिए न्यायालयों एवं न्यायाधीशों की संख्या बढ़ाये जाने की बात की जाती है। लेकिन फिलहाल न्यायाधीशों की नियुक्तियों में जो देरी की जा रही है, उससे लगता है कि इसमें अभी काफी सुधार की आवश्यकता है। विदित हो कि किसी भी लोकतांत्रिक देश की मजबूती में स्वतंत्र और निष्पक्ष न्यायपालिका का होना पूर्व शर्त होती है। एक स्वतंत्र एवं निष्पक्ष न्यायपालिका हमेशा देश के लोकतांत्रिक हितों के अनुरूप कार्य करती है। एक प्रकार से कहें तो स्वतंत्र और निष्पक्ष न्यायपालिका किसी भी लोकतांत्रिक देश की रीढ़ के समान होती है। हाल ही में भारत के राष्ट्रपति ने न्यायपालिका की विविधता में वृद्धि करने हेतु उपेक्षित सामाजिक समूहों की भागीदारी को बढ़ाने के लिये अखिल भारतीय न्यायिक सेवा के गठन की बात कही है। संविधान दिवस पर आयोजित एक कार्यक्रम में उन्होंने कहा कि देश की युवा-शक्ति को न्यायपालिका में उसी तरह के कॅरियर का मौका मिलना चाहिए, जैसा अन्य अखिल भारतीय सेवाओं के मामलों में है। उन्होंने न्यायपालिका के विशेष स्थान को रेखांकित करते हुए कहा कि अपनी विविधता का सदुपयोग करते हुए हमें ऐसी प्रणाली विकसित करने की आवश्यकता है, जिसमें योग्यता आधारित प्रतिस्पर्धी और पारदर्शी प्रक्रिया से विभिन्न पृष्ठभूमि से आने वाले न्यायाधीशों की भर्ती की जा सके।

क्या है अखिल भारतीय न्यायिक सेवा: बता दें कि अखिल भारतीय न्यायिक सेवा सभी राज्यों में अतिरिक्त ज़िला न्यायाधीशों एवं ज़िला न्यायाधीशों के स्तर पर न्यायाधीशों के लिये एक प्रस्तावित केंद्रीकृत भर्ती प्रणाली है जिसका लक्ष्य संघ लोक सेवा आयोग मॉडल के समान न्यायाधीशों की भर्ती को केंद्रीकृत करना तथा सफल उम्मीदवारों को राज्यों का कार्यभार सौंपना है। वर्ष 1958 और 1978 की विधि आयोग की रिपोर्टों की सिफारिशों के अनुसार अखिल भारतीय न्यायिक सेवा का उद्देश्य अलग-अलग रिक्तियों पर भर्ती और मानकीकृत राष्ट्रव्यापी प्रशिक्षण जैसे संरचनात्मक मुद्दों का समाधान करना है। संविधान का अनुच्छेद 312 केंद्रीय सिविल सेवाओं के समान ही राज्यसभा के कम-से-कम दो-तिहाई सदस्यों द्वारा समर्थित एक प्रस्ताव पर अखिल भारतीय न्यायिक सेवा की स्थापना का प्रावधान करता है। हालाँकि अनुच्छेद 312 (2) में कहा गया है कि अखिल भारतीय न्यायिक सेवा में ज़िला न्यायाधीश से नीचे स्तर के किसी भी पद को शामिल नहीं किया जा सकता। मालूम हो कि अनुच्छेद 236 के अनुसार एक ज़िला न्यायाधीश के अंतर्गत नगर सिविल न्यायालय का न्यायाधीश, अपर ज़िला न्यायाधीश, संयुक्त ज़िला न्यायाधीश, सहायक ज़िला न्यायाधीश, लघुवाद न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश, मुख्य प्रेसीडेंसी मजिस्ट्रेट, अपर मुख्य प्रेसीडेंसी मजिस्ट्रेट, सेशन न्यायाधीश, अपर सेशन न्यायाधीश और सहायक सेशन न्यायाधीश हैं। इस प्रकार अगर न्यायिक सेवा गठित होती है तो न्यायिक भर्तियां बड़ी आसान हो जायेगी।

न्यायिक सेवा गठन पर एकमत हो: सरकार ने पिछले साल ही अखिल भारतीय न्यायिक सेवा परीक्षा कराने का प्रस्ताव रखा था लेकिन तब नौ हाईकोर्ट में इस प्रस्ताव का विरोध किया था जबकि आठ ने प्रस्तावित ढांचे में बदलाव की बात कही थी, सिर्फ दो हाईकोर्ट ने सरकार के इस प्रस्ताव का समर्थन किया था। इसके पहले वर्ष 1961, 1963 और 1965 में मुख्य न्यायाधीशों के सम्मेलन में अखिल भारतीय न्यायिक सेवा के गठन का पक्ष लिया गया था लेकिन ये प्रस्ताव कागजों से आगे नहीं बढ़ सका। विधि आयोग की रिपोर्ट में भी इस तरह की परीक्षा कराने की सिफारिश की गई थी। सवाल उठता है कि आखिर जब सब चाहते हैं कि देशभर में अखिल भारतीय न्यायिक सेवा आयोग बने और न्याय को गति मिले तथा युवा हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में न्यायाधीश के रूप में पहुंचें तो आखिर क्या वजह है कि लगातार साठ साल से ज्यादा समय से प्रस्ताव के बाद भी ऐसा आयोग नहीं बन पा रहा है?

अवसर बनाम चुनौतियां: कुछ विद्वानों का मानना है कि अखिल भारतीय न्यायिक नियुक्ति सेवा के लागू होने के बाद एक राज्य से दूसरे राज्य में स्थानांतरण होने लगेगा और भाषा की समस्या आएगी। इसके लिए सरकार को अधीनस्थ अदालतों के न्यायिक कार्यों में स्थानीय भाषा के इस्तेमाल के तथ्य को ध्यान में रखते हुए इस सेवा के गठन के लिए प्रयास करना चाहिए। अभी ज़िला/अधीनस्थ न्यायालयों के न्यायिक अधिकारियों की भर्ती, नियुक्ति, स्थानांतरण और सेवा की अन्य शर्तें भी संबद्ध राज्य सरकारें ही तैयार करती हैं। इसीलिए कुछ राज्य सरकारें और हाईकोर्ट को लग रहा है कि अखिल भारतीय न्यायिक नियुक्ति सेवा हो जाने के बाद जजों की नियुक्तियों में उनकी भूमिकाएं सिमट जाएंगी तो कुछ राज्य इसे संघीय ढांचे के खिलाफ भी मानते हैं, जिनके नाते अब तक अखिल भारतीय न्यायिक नियुक्ति सेवा का प्रस्ताव कागजों से आगे नहीं बढ़ पाया। बता दें कि अगर अखिल भारतीय न्यायिक सेवा का गठन होता है तो जजों की नियुक्ति में अखिल भारतीय प्रशासनिक सेवा के समान निष्पक्ष एजेंसी की भूमिका होगी। इससे न्यायिक सेवा में प्रतिभावान विधि स्नातक शामिल किए जा सकेंगे, जो सामान्यत: न्यायिक सेवा में भर्ती न होकर सरकारी और निजी क्षेत्र में अन्य ऐसे पदों की तलाश में रहते हैं जहां उन्हें ज्यादा आर्थिक लाभ मिल सके। अखिल भारतीय न्यायिक सेवा आयोग लागू करने से ऐसी भी उम्मीद की जा रही है कि प्रतिभावान युवा कम उम्र में ही न्यायिक सेवा में आ जाएंगे। साथ ही देश के अलग-अलग राज्यों में न्यायिक सेवा में नियुक्ति और पदोन्नति में एकरूपता आ सकती है। न्यायिक सेवा आयोग बनने के बाद लगातार न्यायाधीशों की नियुक्ति में जो पक्षपात के आरोप लगते हैं वह भी समाप्त हो जाएंगे।

(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)

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