नीतीश का कदम आईएनडीआईए के अंत का द्योतक

नीतीश का कदम आईएनडीआईए के अंत का द्योतक
अवधेश कुमार

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने सत्ता की राजनीति में पलटने और पलटवाने का ऐसा जुगुप्सापूर्ण प्रतिमान रचा है जिसकी तुलना राजनीति में किसी भी पाला बदल से नहीं हो सकती। एक ही सरकार के साढ़े तीन वर्ष में तीन बार शपथ लेने का रिकॉर्ड उनके ही नाम होगा। नि:संदेह, इसका भी विश्लेषण होना चाहिए कि वह ऐसा क्यों करते हैं और दोनों प्रमुख पार्टियां भाजपा तथा राजद उनसे नाराज होकर भी फिर क्यों गले लगाती है। किंतु इस बार का पाला बदल केवल यही तक सीमित नहीं है। बिहार सहित भारतीय राजनीति के लिए इसके मायने ज्यादा महत्वपूर्ण हैं। नीतीश कुमार का राजद सहित अन्य भाजपा विरोधी दलों के गठबंधन से बाहर आकर फिर भाजपा नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में शामिल होने की यह घटना ठीक लोकसभा चुनाव के पूर्व हुई है। स्वाभाविक ही इसका असर आगामी लोकसभा चुनाव पर होगा और यह केवल बिहार तक सीमित नहीं रह सकता। नीतीश कुमार ने जब अगस्त , 2022 में भाजपा का साथ छोड़ा तो उनका तर्क एक ही था कि वे विपक्ष की एकता कायम कर आगामी लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए काम करेंगे। उन्होंने लगातार इसके लिए कोशिश भी की। लंबे प्रयास के बाद जून, 2023 में बिहार की राजधानी पटना में उन्होंने विपक्षी नेताओं की पहली संयुक्त बैठक बुलाने में सफलता पाई। इस पृष्ठभूमि में उनका लोकसभा चुनाव के पहले फिर भाजपा नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में आने का राष्ट्रीय राजनीति की दृष्टि से निहितार्थ क्या हैं यह बताने की आवश्यकता नहीं।

नीतीश कुमार ने राज्यपाल को अपना त्यागपत्र सौंपने के बाद राजभवन के बाहर पत्रकारों से बहुत कुछ नहीं कहा। बावजूद इतना तो कहा ही कि हमने विरोधी दलों को इक_ा करने की कोशिश की, काम करने की कोशिश की, लेकिन कुछ हो ही नहीं रहा था, अच्छा नहीं चल रहा था। यह भी कहा कि बहुत दिनों से तो मैंने बोलना ही बंद कर दिया था। दूसरी ओर दिल्ली में इस समय नीतीश कुमार के विश्वसनीय रणनीतिकार एवं पार्टी के नेता केसी त्यागी ने आईएनडीआईए की अंदरूनी स्थिति और उसमें भी कांग्रेस के व्यवहार पर ज्यादा टिप्पणी की। उनके पूरे वक्तव्य का अर्थ यही था कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके नेतृत्व में भाजपा या राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन से मुकाबले की आईएनडीआईए में तैयारी तो नहीं ही थी, बल्कि एक दूसरे के विरुद्ध नेता और पार्टियां काम कर रहे थे। इसमें उन्होंने कांग्रेस को सबसे ज्यादा निशाने पर लिया। यानी आईएनडीआईए के नाम पर एक दूसरे के साथ बीच-बीच में बैठने वाले नेता भले बयान जो दें , अंदर न कोई वैचारिकता है और न ही संघर्ष करने की मानसिक तैयारी। इस तरह नीतीश ने स्पष्ट कर दिया है कि आईएनडीआईए में एक दूसरे के प्रति विश्वास और सम्मान का पूरा अभाव है।

ध्यान रखिए नीतीश कुमार के अंदर 2010 से ही हमने राष्ट्रीय स्तर पर विपक्ष के नेतृत्व करने की छटपटाहट देखी है। वो हार मान कर अपनी आकांक्षा को बलि चढ़ा रहे हैं तो यह सामान्य पाला बदल की घटना नहीं है। इस नाते बिहार की घटना के निहितार्थ बहुत बड़े हैं। प्रश्न है कि क्या इस तरह की घटना बिहार तक सीमित रहेगी या किसी न किसी रूप में इसकी प्रतिध्वनि देश के अन्य भागों से भी सुनाई पड़ेगी? कारण, इस घटना के साथ विचारधारा जुड़ी है। नीतीश कुमार ने राजग से अलग होने के बाद भाजपा पर सांप्रदायिकता एवं समाज को तोड़ने का भी आरोप लगाया था। कांग्रेस सहित ज्यादातर विपक्षी दलों ने अयोध्या में श्रीराम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा निमंत्रण को ठुकरा कर यही संदेश देने की कोशिश की कि हम भाजपा के यानी सांप्रदायिकता के साथ नहीं है। दूसरी ओर प्राण प्रतिष्ठा ने संपूर्ण भारत को जिस तरह एकाकार किया, शहर-शहर, गांव-गांव में रामायण पाठ से लेकर रामधुन की गूंज सुनाई दी, शोभायात्रा निकली और दीपावली मनाई गई, वह प्रमाण है कि विपक्ष की तथाकथित विचारधारा के साथ देश का बहुमत नहीं है। बहुमत हिन्दुत्व के साथ है और उसे विपक्ष की राजनीति स्वीकारन नहीं। निश्चय मानिए, नीतीश कुमार के निर्णय के पीछे प्राण प्रतिष्ठा भी एक प्रमुख कारक है। देश के राममय और हिंदुत्वमय वातावरण के दबाव में राजनीति के आने का अर्थ हुआ कि आने वाले समय में विपक्षी एकता की हवा और निकलेगी तथा भाजपा की ओर आने का आकर्षण बढ़ेगा। संभव है दूसरे राज्यों में भी भाजपा नेतृत्व वाले गठबंधन की ओर कुछ दल और नेता आएं। पंजाब में शायद मूल अकाली दल के साथ गठबंधन हो जाए। इसी तरह की स्थिति दूसरे राज्यों में भी हो सकती है। इस तरह नीतीश की राजग में वापसी 2024 लोकसभा चुनाव की दृष्टि से विरोधी खेमे की प्रभावी संख्या बल के कमजोर होने तथा भाजपा की शक्ति विस्तार की नई शुरुआत है। यह प्रक्रिया आगे सशक्त होगी। नए शपथग्रहण समारोह में जय श्रीराम के नारे और नीतीश का उस पर पहले की तरह नकारात्मक प्रक्रिया व्यक्त न करना वास्तव में भारत की भावी राजनीति के बदलाव का संकेत है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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