एक राष्ट्र एक चुनाव
मेजर सरस त्रिपाठी
अगस्त महीने का अंतिम दिन और सितंबर महीने का पहला दिन विपक्ष के लिए बहुत ही अचंभित करने वाला प्रमाणित हुआ। 31 अगस्त को सरकार ने घोषित किया कि 18-23 सितम्बर तक संसद का पांच दिन का विशेष अधिवेशन बुलाया जाएगा। अभी विपक्ष अनुमान ही लगा रहा था कि यह विशेष अधिवेशन किस लिए बुलाया जा सकता है कि सरकार ने दूसरी अचंभित करने वाली घोषणा 1 सितंबर को कर दी। सरकार ने कहा की पूर्व राष्ट्रपति श्री रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया जाएगा जो भारत में 'एक राष्ट्र एक चुनावÓ विषय पर विचार विमर्श कर सरकार को सलाह देगी। इन दोनों विषयों को लेकर भारत की विपक्षी पार्टियों में काफी अफरातफरी प्रारंभ हो गई। 'एक राष्ट्र-एक चुनावÓ का विषय राष्ट्र चिंतकों के बीच सदैव से चर्चा का विषय रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2014 में सत्ता ग्रहण करने के साथ ही इस विषय पर अपने विचार खुलकर प्रकट किए थे और उन्होंने कहा था कि वह 'एक राष्ट्र- एक चुनावÓ के पक्ष में है।
ज्ञातव्य है कि 1967 तक लोकसभा और प्रदेश की विधानसभाओं के चुनाव साथ-साथ होते थे। सन 1951-52, 1957, 1962 और 1967 के लोकसभा चुनाव के साथ ही सभी राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव हुए थे और यह हमेशा पांच वर्षों के अंतराल पर ही होते थे। श्रीमती इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री बनने के बाद 1967 से यह सारा समीकरण बिगड़ गया क्योंकि उन्होंने प्रदेश की अनेक सरकारों को, जो उनकी पार्टी की नहीं थी, एक या दूसरा बहाना बनाकर अपदस्थ कर दिया। विभिन्न राज्यों में गैर कांग्रेसी सरकारों के अपदस्थ होने का परिणाम यह हुआ कि वहां मध्यावधि चुनाव हुए और सारा का सारा यह समीकरण बिगड़ गया। यह भी जानना बहुत आवश्यक है कि स्वर्गीय इंदिरा गांधी 17 वर्ष के अपने प्रधानमंत्री के कार्यकाल में 25 राज्य सरकारों को अपदस्थ कर चुकी थीं। इससे अधिक राज्य सरकारों को अपदस्थ करने का किसी का भी रिकॉर्ड नहीं है।
प्रश्न यह है कि 'एक राष्ट्र एक चुनावÓ क्यों होने चाहिए? यह प्रश्न और इसका उत्तर बहुत ही महत्वपूर्ण है। सबसे पहले कुछ आंकड़े देख लेते हैं। 1967 के बाद अधिकतर ऐसा हुआ है कि देश हमेशा प्रतिवर्ष ही कहीं न कहीं चुनाव कराता रहा है। पिछले तीन दशकों से तो स्थिति यह है कि प्रतिवर्ष लगभग चार पांच विधानसभाओं के चुनाव होते हैं, जिसमें काफी धन का अपव्यय होता है। सेंटर फार मिडिया स्टडीज के एक आंकलन के अनुसार 2019 के लोकसभा चुनाव में लगभग 60,000 करोड़ रुपए खर्च हुए थे। यदि विधानसभा के चुनाव भी इसी के साथ होते तो लगभग इसी खर्चे में लोकसभा और सभी विधानसभाओं का चुनाव हो जाता। लेकिन क्योंकि विधानसभा का चुनाव लोकसभा चुनाव के साथ नहीं होता इसलिए इतना ही या इससे अधिक रुपया विधानसभाओं के चुनाव पर भी खर्च होता है। 60,000 करोड़ रुपए कोई छोटी धनराशि नहीं है। इसका अनुमान हम इस तरह लगा सकते हैं कि दुनिया के कुल 201 देशों में से 50 देश ऐसे हैं जिनका देशगत कुल सकल घरेलू उत्पाद (त्रष्ठक्क) इतना नहीं है। इसे इस तरह भी समझ सकते हैं कि मध्य एशिया के दो मध्यम आय के देशों, किर्गिस्तान और ताज़िकिस्तान की कुल जीडीपी इस राशि के लगभग बराबर है।
60,000 करोड़ रुपए को अगर हम अमेरिकी डालर में बदलें तो यह लगभग 8 बिलियन (खरब) अमरीकी डालर आता है। इतनी बड़ी राशि हम पांच साल में दो-दो बार खर्च करते हैं, सिर्फ इसलिए क्योंकि हम विधानसभा और लोकसभा का चुनाव एक साथ नहीं करा सकते। भारत जैसे विकासशील देश के लिए इस धन के महत्व का अनुमान इस बात से लगाइए कि अमेरिका के राष्ट्रपति के पिछले चुनाव में 6.5 बिलियन डॉलर खर्च हुए। अगर हम इसे रुपए में बदले तो यह 48,530 करोड़ रुपए आता है। मतलब यह हुआ कि हमारे देश में लोकसभा और विधानसभा के चुनाव में जो पैसा खर्च होता है वह अमेरिका के राष्ट्रपति के चुनाव से लगभग एक चौथाई यानी 25 प्रतिशत अधिक होता है। जबकि हम पूरे आठ बिलियन डालर यानी 60,000 करोड़ रुपए को बचा सकते हैं, यदि लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ हों। यह धन हमारे देश के विकास और गरीबी उन्मूलन के लिए खर्च किया जा सकता है।
संवैधानिक स्थिति
संविधान में 'एक राष्ट्र एक चुनावÓ के लिए कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं है जिसके अंतर्गत लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ कराए जाने की बाध्यता हो। ऐसा लगता है कि संविधान निर्माताओं ने यह बात सोची ही नहीं थी कि ऐसा भी हो सकता है कि विधानसभा और लोकसभा के अलग-अलग समय पर चुनाव कराने पड़ें। संविधान के अनुच्छेद 83 (2) में लोकसभा के कार्यकाल से संबंधित विवरण है और उसकी कालावधि पांच वर्ष निर्धारित की गई है। इसी प्रकार अनुच्छेद 172 (1) कहता है कि राज्य विधानसभाओं का कार्यकाल पांच वर्ष के लिए होगा जब तक कि उसे समयपूर्व भंग न किया जाए। लेकिन कहीं यह नहीं लिखा है कि लोकसभा और विधानसभा के चुनाव साथ-साथ होंगे।
लोकसभा और विधानसभाओं का एक साथ चुनाव कराने में आने वाली चुनौतियां
एक राष्ट्र एक चुनाव में आने वाली कुछ संवैधानिक चुनौतियां हैं, जैसे अनुच्छेद 356 कहता है कि बिना वैध कारण के किसी भी विधानसभा को भंग नहीं किया जा सकता। इस कारण जिन विधानसभाओं में विपक्षी दलों की बहुसंख्या है या जहां विपक्ष की सरकारें हैं वहां पर बड़ी अड़चन आ सकती है। उन्हें यह लग सकता है कि यह भारतीय जनता पार्टी का एक षड्यंत्र है जिसके अंतर्गत उनकी सरकार के कार्यकाल को छोटा किया जा रहा है। इसके लिए आवश्यक है कि इस पर 'एक राष्ट्र एक चुनावÓ के लिए एक राष्ट्रव्यापी सहमति हो जिसमें सभी विपक्षी दल इस बात पर सहमत हो कि उनकी विधानसभा का जो भी कार्यकाल बचा है उसे समाप्त कर दिया जाए और लोकसभा के साथ ही उनके चुनाव कराए जाएं। यदि ऐसा हो जाता है तो लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ हो सकते हैं।
परंतु चुनौती यहीं समाप्त नहीं होती। सबसे बड़ी चुनौती है कि मान लीजिए किसी कारणों से किसी विधानसभा में किसी भी दल को बहुमत नहीं मिलता या पार्टियां टूट जाती है जिसके कारण विधानसभा को भंग करना पड़ता है तो उस स्थिति में क्या होगा? क्योंकि कई बार ऐसी स्थिति होती है कि कोई भी दल सरकार बनाने की स्थिति में नहीं होता और नया चुनाव कराना विधानसभा के लिए आवश्यक होता है। 1989 से 2014 तक हमने यह भी देखा कि किस तरह से स्वयं लोकसभा का चुनाव बार-बार होता रहा क्योंकि किसी भी पार्टी को बहुमत नहीं मिला या कोई सरकार पांच साल तक बहुमत बनाये नहीं रख सकी। इस तरह चुनौती लोकसभा के साथ भी हो सकती है। ऐसी स्थिति में क्या किया जाए कि लोकसभा और विधानसभा के चुनाव साथ ही हों। यदि सभी पार्टियों में इच्छाशक्ति हो और राष्ट्रहित को सर्वोपरि रखें तो यह संभव है। इसका उपाय यह हो सकता है की अविश्वास प्रस्ताव तब तक स्वीकार न किये जाए जब तक अविश्वास प्रस्ताव लाने वाला समूह यह प्रमाणित न कर दे की उसके पास सरकार बनाने और चलाने का विकल्प है। दूसरा, यदि सरकार बिना अविश्वास प्रस्ताव के अपने आप ही गिर जाय तो वहां शेषावधि के लिए राज्य को या तो राष्ट्रपति शासन में रखा जाय या सर्वदलीय सरकार बनायी जाय। इन सबके लिए गहन विवेचन, सहमति और संवैधानिक संशोधन की आवश्यकता होगी।
एक राष्ट्र-एक चुनाव के लाभ
सबसे बड़ा लाभ तो यह होगा की राष्ट्र को 'पॉलिसी पैरालिसिसÓ से बचाया जा सकता है, क्योंकि बार-बार जब चुनाव होते हैं तो चुनाव संहिता लागू होने के कारण नीतिगत निर्णय नहीं लिए जा सकते जिससे विकास के कार्य में बाधा पड़ती है। दूसरा, चुनाव आयोग को भी प्रतिवर्ष मतदाता सूची का नवीनीकरण करना पड़ता है जिससे जल्दबाजी में कई बार ठीक तरीके से नवीनीकरण नहीं होता और काम भी बढ़ता है। इस से भी छुटकारा मिलेगा। तीसरा, आर्थिक दृष्टि से सबसे अधिक महत्वपूर्ण होगा कि जो राष्ट्र के ऊपर इतना बड़ा बोझ आता है वह कम होगा और हमें लगभग 60,000 करोड रुपए या आठ बिलियन डॉलर या इससे अधिक की बचत होगी। चौथा, सुरक्षाबलों को जब चुनाव ड्यूटी में लगाया जाता है तो वह राष्ट्र के महत्वपूर्ण सुरक्षा कार्यों को छोड़कर चुनाव ड्यूटी करते हैं। इस तरह यदि चुनाव बार-बार न हों तो उनको राष्ट्रीय सुरक्षा में अधिक समय देने का अवसर प्राप्त होगा। इसके अतिरिक्त एक राष्ट्र एक चुनाव से देश में भ्रष्टाचार सीधे कम होगा, क्योंकि चुनाव में पैसा खर्च करने के लिए प्रत्याशियों को और पार्टियों को भी पैसा चाहिए होता है। यदि एक ही साथ चुनाव होते हैं तो सरकार और पार्टियों का भी पैसा कम खर्च होगा जिससे भ्रष्टाचार कम होगा। विद्यालय के शिक्षकों की ड्यूटी प्रतिवर्ष चुनावों के लिए कभी यहां कभी वहां लगती रहती है जिससे बच्चों की शिक्षा पर असर पड़ता है। शिक्षकों को अधिक समय मिलेगा ताकि वह बच्चों के शिक्षण कार्य में अपना अधिकांश समय लगा सके ना कि चुनाव ड्यूटी में। कुल मिलाकर 'एक राष्ट्र एक चुनावÓ राष्ट्र के परम हित में है और इसका जो कुछ भी मूल्य हो उसे अदा करके 'एक राष्ट्र एक चुनावÓ की ओर राष्ट्र को बढ़ना चाहिए। (लेखक भारतीय सेना में मेजर रहे हैं)