अयोध्या के संदेश को पढ़ने में नाकाम हैं विपक्षी दल
अयोध्या में सदियों बाद वह घड़ी आ रही है, जब भगवान राम भव्य-नव्य मंदिर में विराजने जा रहे हैं। उनके बाल रूप विग्रह की प्राण प्रतिष्ठा होने जा रही है। प्राण प्रतिष्ठा का मूल अर्थ है-मूर्ति को जीवन देना। प्राण प्रतिष्ठा समारोह वैदिक विधि-विधान और पौराणिक अनुष्ठान के माध्यम से होने जा रहा है। इसका अपना विशेष महत्व है। ऐतिहासिक अवसर है। अनेक शताब्दियों के बाद सप्तपुरी का विराट वैभव लौट रहा है। अयोध्या सप्तपुरी है। 'अयोध्या मथुरा माया काशी कांची अवन्तिका पुरी द्वारावती ह्येता: सप्तैता: मोक्षदायिका: मान्यता है, भारत में सात ऐसे स्थान हैं, जिन्हें मोक्षदायिनी सप्तपुरी कहा जाता है। देश के कुछ विघ्न-संतोषी दल, धर्माचार्य प्राण प्रतिष्ठा के ऐतिहासिक अवसर पर तरह-तरह के वितंडावाद फैला रहे हैं। अधूरे मंदिर में प्राण-प्रतिष्ठा करने का दुष्प्रचार कर रहे हैं। उन्हें इसका भान नहीं है कि वे अपनी ऐसी ओछी हरकतों से एक व्यापक जन समुदाय, बहुसंख्यक सनातनियों की भावनाओं को आहत कर रहे हैं। न उन्हें अपनी परंपराओं का बोध है, न वह भारत की महान विरासत को समझने में सक्षम हैं। मसलन उन्हें यह याद रखना चाहिए कि प्राण प्रतिष्ठा से पहले केवल गर्भगृह को पूरी तरह से तैयार करने की आवश्यकता होती है। गर्भगृह तैयार होने पर विग्रह की प्राण प्रतिष्ठा हो जाती है। साथ ही साथ काम भी चलता रहता था। ऐसे अनेक उदाहरण हैं। भोपाल के नजदीक भोजेश्वर महादेव भी अधूरा था पर वहां नियमित पूजा-अर्चना होती रही। इसे करीब 900 साल बाद पूरा किया गया।
दक्षिण भारत में भी ऐसे अनेक बड़े मंदिर हैं, जहाँ प्राण प्रतिष्ठा होने के बाद भी मंदिर का काम जारी रहा। चिदम्बरम् मन्दिर को कुलोतुंग द्वितीय के पिता ने शुरु कराया। इस मंदिर को 11वीं से 13वीं ईस्वी के दौरान द्वितीय कुलोथुंगा चोल, विक्रमा चोल, तृतीय कुलोथुंगा चोल द्वारा विकसित किया गया था। लेकिन गर्भगृह में पूजा अर्चना विक्रम चोल के समय ही शुरू हो गई थी। ऐसे में अधूरे मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा का नैरेटिव खड़ा करने वालों से यह पूछा जाना चाहिए कि हिन्दू धर्म के किस शास्त्र में लिखा है कि अधूरे मंदिर में मूर्ति स्थापना नहीं हो सकती। बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद एक टेंट के नीचे इतने वर्ष रामलला विराजमान रहे। वहां भी उनकी पूजा होती रही। करोड़ों लोगों ने उनके दर्शन भी किए। क्या यह शास्त्रोक्त नहीं था?
काशी के एक प्रसिद्ध विद्वान के आग्रह पर टोडरमल ने 1586 में विश्वनाथ मंदिर का निर्माण करवाया था। उन्होंने अपनी पुस्तक त्रिस्थली सेतु में साफ लिखा है कि देवस्थान महत्वपूर्ण है, इमारत नहीं है। उन्होंने अपनी पुस्तक में यह भी कहा है कि यदि विदेशी आक्रांताओं ने देव प्रतिमा को क्षति पहुंचाई है या खंडित की है तो दूसरी प्रतिमा लगाई जा सकती है। देश में इसके कई उदाहरण हैं जब स्वयंभू प्रतिमाओं प्रकट होती हैं। पहले उनकी तो प्राण-प्रतिष्ठा होती है। फिर बाद मंदिर बनते हैं। ऐसे में राष्ट्रकवि दिनकर की एक कविता का स्मरण हो रहा है-'भग्न मंदिर बन रहा है, स्वेद का जल दो, रश्मियाँ अपनी निचोड़ो, ज्योति उज्ज्वल दो।Ó रामलला स्थायी मंदिर में विराजे, देश-विदेश के असंख्य राम भक्तों-श्रद्धालुओं की यह लालसा थी। न जाने कितनी पीढ़ियों ने इस दिन विशेष के लिए अपना बलिदान दिया।
सनातनियों का सौभाग्य है कि उन्हें किसी पोप, इमाम, मौलवी या आचार्य को अंतिम सत्य नहीं मानना पड़ता! चारों शंकराचार्य राम मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम के विरोध में हैं, यह झूठी खबर फैलाई गई है। श्रृंगेरी शारदा पीठ और द्वारका शारदा पीठ के शंकराचार्य ने तो चि_ी लिख कर खबरों का खंडन किया है। उन्होंने प्राण प्रतिष्ठा के कार्यक्रम का बहिष्कार नहीं किया। कहा है कि धर्मद्वेषियों ने उनके बारे में झूठी खबर प्रचारित की है। वे इस शुभ कार्यक्रम का स्वागत करते हैं और यथावसर वहां जाकर दर्शन भी करेंगे। यह लोक-धर्म-सम्मत सार्वजनिक घोषणा, सम्मानित पीठों के गौरव के अनुरूप है। सनातन परंपरा में शंकराचार्य साक्षात् शंकर (शिव की इकाई) के प्रतिरूप मान्यता प्राप्त होती है। इसलिए स्वयं शिव के वचन/वाचन को तर्क-वितर्क की कसौटी पर कसना मूढ़ता के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। सभी को इस विषय पर बयान देने से बचना चाहिए। याद रखिए आस्था के सामने सब तर्क बौने साबित होते हैं। राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा एक ऐतिहासिक अवसर है। यह भारत के सनातन धर्म और संस्कृति की विजय का प्रतीक है। यह न केवल भारत की सभ्यता के गौरव, बल्कि लोकतंत्र एवं सौहार्द के प्रति उसकी प्रतिबद्धता का भी प्रतीक होगा। इसे लेकर अब कोई भ्रम नहीं होना चाहिए। ऐसे में कुछ विघ्नसंतोषियों की अनदेखी करना ही उचित है।
(लेखक पूर्व संगठन सचिव नॉर्थ ईस्ट बीजेपी एवं वर्तमान में लोक नीति भारत के अध्यक्ष हैं)