चुनावी रणनीति का शिकार हुई संसद

चुनावी रणनीति का शिकार हुई संसद
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अवधेश कुमार

संसद के शीतकालीन सत्र ने अपने माननीय सांसदों के निलंबन का रिकॉर्ड बना दिया। पूरा देश सांसदों के व्यवहार और निलंबन देखकर विस्मित था। दोनों सदनों को मिलाकर 146 सांसदों के निलंबन की कभी कल्पना नहीं की गई होगी। सत्र समाप्त होने के साथ आईएनडीआईए के सदस्यों ने पहले संसद से विजय चौक तक विरोध मार्च निकाला और बाद में जंतर-मंतर पर धरना दिया व विरोध प्रदर्शन किया। इस प्रदर्शन को नाम दिया गया था, लोकतंत्र बचाओ देश बचाओ। ठीक विपरीत सत्ता पक्ष की ओर से विपक्ष पर लोकतंत्र के अपहरण का आरोप लगाया है। संसदीय कार्य मंत्री प्रहलाद जोशी ने कहा है कि दृश्य ऐसा था मानो विपक्षी सांसद अपने निलंबन करने के लिए गिड़गिड़ा रहे हों। इसमें सबसे चिंता का विषय सरकार और विपक्ष की लड़ाई का लोकसभा के अध्यक्ष और राज्यसभा के सभापति बनाम विपक्ष में परिणित हो जाना है। प्रत्यक्ष तौर पर भले यह न दिखे पर सच्चाई यही है। अगर माननीय सांसद सर्वसम्मति से निर्धारित आचरण को तोड़ते हुए बेल में जाते हैं, तख्तियां दिखाते हैं, नारे लगाते हैं, आसन की ओर कागज फेंकते हैं तो यह सरकार का नहीं आसन यानी अध्यक्ष और सभापति का अपमान होता है।

उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ तथा कांग्रेस अध्यक्ष एवं राज्यसभा में विपक्ष के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे के बीच का पत्र व्यवहार देखकर अनुमान लगाया जा सकता है कि स्थिति कितनी चिंताजनक है। धनखड ने खड़गे और राकांपा प्रमुख शरद पवार को पत्र लिखकर कहा है कि स्वीकार नहीं की जाने वाली मांगों के जरिए सदन को पंगु बनाने का प्रयास दुर्भाग्यपूर्ण है। उन्होंने लिखा है कि पीड़ा के साथ कह रहा हूं कि मेरे आग्रह और प्रयासों को सदन में स्वस्थ कामकाज के लिए आपका समर्थन नहीं मिला। अनुभवी नेता के तौर पर आप जानते हैं कि पीठासीन अधिकारी के साथ बातचीत उच्च प्राथमिकता होती है। सभापति के लिए इससे अधिक पीड़ादायी कुछ नहीं हो सकता है कि मुलाकात का आग्रह स्वीकार नहीं किया गया। यह संसदीय परंपरा के अनुरूप नहीं था। उनकी एक पंक्ति देखिए,- यह देखकर दुख हुआ कि कुशल राजनीतिज्ञ का दृष्टिकोण प्रदर्शित करने और उच्च सदन की गरिमा बनाए रखने के बजाय अनुभवी सदस्यों ने भी दलगत भावना से प्रेरित दृष्टिकोण अपनाया। दूसरी ओर खड़गे ने अपने पत्र में इतनी बड़ी संख्या में सांसदों के निलंबन को भारत के संसदीय लोकतंत्र के मूल सिद्धांतों के लिए हानिकारक बताते हुए कहा है कि वह इससे व्यथित और चिंतित हैं और निराश व दुखी महसूस कर रहे हैं। उनकी पंक्ति देखिए, - मैं आपके संज्ञान में लाना चाहता हूं कि संसद की सुरक्षा में सेंध के मुद्दे पर राज्यसभा के नियम और प्रक्रियाओं से संबंधित नियमों के तहत कई नोटिस दाखिल किए गए थे। खेद का विषय है कि न तो इनको स्वीकार किया गया और न ही मुझे या विपक्षी दलों के किसी अन्य सदस्य को बोलने की अनुमति प्रदान की गई। इन पंक्तियों के बाद किसी को संदेह रह जाता है कि खड़गे अंतत: किसे आरोपित कर रहे हैं?

संसद के दोनों सदन में अध्यक्ष व सभापति का निर्णय ही मान्य होता है। खड़गे कह रहे हैं कि हमने आपको नोटिस दिया लेकिन आपने चर्चा नहीं करायी। वे उपराष्ट्रपति से मिलने की बात कर रहे हैं किंतु इसमें भी उन्होंने लिखा है कि आपसी सहमति से निर्धारित तिथि पर वह उनसे मामले पर चर्चा करें और उनकी चिताओं का निवारण करें। इस तरह की भाषा में लिखा गया पत्र ही बताता है कि स्थिति कितनी बिगड़ चुकी है। सरकार के साथ तनाव, मतभेद व संघर्ष समझ में आता है किंतु अध्यक्ष और सभापति तक की बातें न मानी जाएं और उन्हें आरोपित किया जाए तो इनमें बीच का रास्ता नहीं निकल सकता। इससे पता चलता है कि सदन के अंदर कितनी विकट स्थिति रही होगी। अगर 2024 लोकसभा की चुनावी रणनीति का शिकार संसद को बनाया जाएगा तो ऐसी ही स्थिति पैदा होगी। मान कर चलिए कि इस संसद के अंतिम सत्र यानी बजट सत्र में भी ऐसे ही डरावने दृश्य उत्पन्न होंगे।

जब संसद ने सर्वसम्मति से तय किया है कि तख्तियां लेकर बेल में आने पर निलंबन ही होगा तो जाहिर है जाने वाले सबको पता था। सारे दृश्य स्पष्ट कर रहे हैं कि सांसदों ने जानबूझकर ऐसी स्थिति पैदा की जिनसे उनके निलंबन के अलावा आसन के पास दूसरा विकल्प न रहे। कांग्रेस सांसद शशि थरूर ने एक्स पर लिखा भी कि वे पहली बार तख्ती लेकर बेल में गए और अपने निलंबन की प्रतीक्षा कर रहे हैं। तो यह स्वयं को निलंबित कराने की ऐसी रणनीति थी जिसका दूसरा उदाहरण नहीं मिल सकता। निलंबन पर सांसदों को अफसोस होना चाहिए कि उन्होंने लोकतंत्र की शीर्ष इकाई के शीर्ष प्रतिनिधि वाले आचरण की मर्यादा का उल्लंघन किया। निलंबन पर गर्व महसूस करने और साथियों द्वारा महिमामंडित किए जाने का माहौल बनाया गया।

विधानसभा चुनाव में आईएनडीआईए लगभग अस्तित्वहीन हो गया था तथा कांग्रेस के अहंवादी व्यवहार से इसके कई घटक दलों में नाराजगी थी। कांग्रेस को लगा कि यही स्थिति है जिसमें फिर विपक्ष को भाजपा विरोध पर एकजुट किया जा सकता है। भाजपा विरोध के नाम पर संसद में विपक्षी एकजुटता सबसे आसान रास्ता था और रणनीति के तहत ऐसा व्यवहार किया गया। आज एक तरफ सरकार और दूसरी ओर आईएनडीआईए है। विपक्ष व्यवहार से अपना निलंबन कराने पर तुला हो तो सरकार के लिए विधेयक पारित कराना ज्यादा आसान हो जाता है। यही इस सत्र में हुआ। अंग्रेजों के समय का भारतीय दंड संहिता, भारतीय साक्ष्य अधिनियम और अपराध न्याय प्रक्रिया को आमूल रूप से बदल दिया गया किंतु विपक्षी सदस्य इस पर चर्चा से वंचित रहे।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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