संसद भवन- याद आते रहेंगे यादगार भाषण

संसद भवन- याद आते रहेंगे यादगार भाषण
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विवेक शुक्ला

आज से लगभग 97 साल पहले संसद भवन (तब काउंसिल हाउस) का 18 जनवरी 1927 को भारत में ब्रिटिश वायसराय लॉर्ड इरविन ने उद्घाटन किया था। जो शानदार इमारत देश की आजादी से पहले और बाद में ना जाने कितने खास लम्हों की गवाह रही है, वो कल (मंगलवार) से इतिहास के पन्नों में दाखिल हो गई। इधर ना जाने कितनी सारगर्भित चर्चांये हुईं और सधे हुए भाषण दिये गये। बीते सालों- दशकों के दौरान पंडित नेहरू से लेकर इंदिरा गांधी और अटल बिहारी वाजपेयी से लेकर राम मनोहर लोहिया के रूप में ढेरों प्रखर वक्ताओं के भाषण संसद भवन में हुये। ये सब करिश्माई नेता थे और ओजस्वी वक्ता थे। विरोधियों से भी सम्मान पाते थे। ये सभी जनता से संवाद कर लेते थे।

इसी संसद में कई नेताओं को सुनने के लिये दर्शक दीर्घा से लेकर पत्रकार दीर्घा भरी हुई होती थी। बेहतर और बांधने वाला भाषण वही होता है,जब वक्ता अपने विचारों को लेकर साफ-स्पष्ट होता है। भाषण के अंदर कोई बात छिपी हुई नहीं होती

याद रखें कि शहीद भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने 8 अप्रैल,1929 इधर ही बम फेंका था। इसी में पंडित जवाहरलाल नेहरू की सरपरस्ती में बनी अंतरिम सरकार में उनके वित्त मंत्री लियाकत अली खान ने 2 फरवरी,1946 को अंतरिम बजट पेश किया। वे आगे चलकर पाकिस्तान के पहले प्रधानमंत्री भी बने।

-पंडित जवाहरलाल नेहरू ने 14-15 अगस्त, 1947 की रात को इसी संसद भवन में आयोजित हुए एक गरिमामय कार्यक्रम में स्वतंत्र भारत के पहले प्रधानमंत्री पद की शपथ ली थी। इस अवसर पर उन्होंने अपना यादगार भाषण दिया था, जिसे ट्रिस्ट विद डेस्टिनी के नाम से याद किया जाता है। यह भाषा बीसवीं शताब्दी के महानतम भाषणों में से एक है।

नई-पुरानी संसद को बनाने वाले

नई संसद भवन को खड़ा करने में दर्जनों आर्किटेक्ट, इंजीनियरों और हजारों मजदूरों ने दिन-रात एक किये। सरकार ने टाटा प्रोजेक्ट्स लिमिटेड को ठेका दिया था कि वह नई संसद को खड़ा करे। अगर बात पहली संसद की करें तो उसके ठेकेदार सिंध के लछमन दास नाम के सज्जन थे। तब लगभग सभी मजदूर राजस्थान के जयपुर,जोधपुर,भीलवाड़ा वगैरह से आये थे। ये सपत्नीक आए थे। इन्हें शुरूआती दिनों में पहाड़ी धीरज में रहने की जगह मिली थी। खुशवंत सिंह बताते थे कि इन राजस्थानी मजदूरों को बागड़ी कहा जाता था। इन्हें शुरूआती दिनों में पहाड़ी धीरज में रहने की जगह मिली थी। ये सब अपने गांव-देहातों से पैदल ही दिल्ली आए थे। इन सीधे-सरल मजदूरों को रोज एक रुपए और महिला श्रमिकों को अठन्नी मजदूरी के लिए मिलते थे। अगर मजदूर मुख्य रूप से राजस्थान से यहां पर आए थे,तो संगतराश आगरा और मिर्जापुर से थे। कुछ भरतपुर से भी थे। ये सब पत्थरों पर नक्काशी और जालियों को बनाने के काम करने में उस्ताद थे।

बहरहाल, जिन्होंने पहली संसद भवन की इमारत को अपने हाथों से खड़ा किया था उनके बच्चे अब सामाजिक-आर्थिक रूप से बहुत बेहतर स्थिति में हैं। वे मंत्री तक बने। दिल्ली में मदन लाल खुराना की सरकार में सुरेन्द्र रातावाल मंत्री थे। उनके दादा और कई दूसरे संबंधियों ने संसद भवन को बनाया था। बेशक, जिन्होंने नई संसद को खड़ा किया है उनकी आने वाली पीढ़ियां भी अपने हिस्से का आसमान छू लेंगी। ये तय है।

संसद भवन, 8 नवंबर,1962

अब पुराने हो रहे संसद भवन के लिये 8 नवंबर,1962 अहम दिन था। उस दिन संसद में उस प्रस्ताव को रखा गया था जिसमें चीन से देश के उस हिस्से (अक्सईचिन) को वापस लेने के संबंध में जिसपर चीन ने 1962 की जंग के बाद कब्जा लिया था। प्रस्ताव में कहा गया था- 'ये सदन पूरे विश्वास के साथ भारतीय जनता के संकल्प को दोहराना चाहता है कि भारत की पवित्र भूमि पर से आक्रमणकारी को खदेड़ दिया जाएगा। इस बाबत भले ही कितना लंबा और कठोर संघर्ष करना पड़े।Ó सदन ने इस प्रस्ताव को 14 नवंबर को पारित कर दिया। बहस में 165 सदस्यों ने भाग लिया। सभी ने चीन को अक्सईचिन से खदेड़ने की वकालत की। बहस बेहद भावुक हुई।

संसद में ललकारा पाकिस्तान को

जब देश की पहली संसद भवन का इतिहास लिखा जायेगा तब उसमें 22 फरवरी,1994 का अवश्य उल्लेख होगा। उस दिन संसद ने एक प्रस्ताव ध्वनिमत से पारित करके पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (पीओके) पर अपना हक जताते हुए कहा था कि वह भारत का अटूट अंग है। पाकिस्तान को उस भाग को छोड़ना होगा जिस पर उसने कब्जा जमाया हुआ है।

संसद के प्रस्ताव का संक्षिप्त अंश कुछ इस तरह से है-

ये सदन भारत की जनता की ओर से घोषणा करता है-

(1) जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है और रहेगा। (2) भारत में इस बात की क्षमता और संकल्प है कि वह उन नापाक इरादों का मुंहतोड़ जवाब दे जो देश की एकता, प्रभुसत्ता और क्षेत्रियअंखडता केखिलाफ हो।

हां, ये भी सच है कि पहले संसद भवन में बहसों के दौरान खूब हल्ला होने लगा था। अनेक बार स्थिति अराजक हुई। उम्मीद करनी चाहिए कि नई संसद में वाद, विवाद और संवाद के लिये सबको खूब मौका मिलेगा।

दिल्ली की धरोहर बेकर का संसद भवन

नई संसद भवन के उदघाटन के बाद भी पहली संसद भवन का महत्व का कम नहीं होगा। अब वहां पर संग्रहालय बनाने का प्रस्ताव है। सच में स्वतंत्र भारत के अहम क्षणों से करीब से जुड़ी है यह इमारत। इसका महत्व तो बना ही रहेगा।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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