मीन सदा जल में रहै, धोये बास न जाय

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वज्रपात: आलोचक का द्वन्द्व

डॉ. आनन्द पाटील

भारत में 'शक्ति का अर्थ और उसकी व्याप्ति अत्यन्त प्रदीर्घ है। वह देवी-स्वरूपा है। वह अपने रूप-वैविध्य एवं गुण-वैविध्य के साथ सर्वत्र विद्यमान है। अत: वह अतुलनीय है। शक्ति के भयाक्रान्त करने वाले रूप में भी बोधगम्य सौन्दर्य है। वह सौन्दर्य संस्कारोचित भी है और संसारोचित (लोकोचित) भी। अत: वह कदापि चमत्कृत नहीं करता। उसमें शिवत्व (कल्याण) अन्तर्निहित (अन्तर्गुम्फित) है। और, जो भारतीय ज्ञान परम्परा को जान रहा है, वह देख-जान रहा है कि शिव में शक्ति (मांगल्य) अभिन्न रूप में प्रस्तुत है। शिव एवं शक्ति में द्वन्द्व सदैव एवं सर्वथा अनुपस्थित है। उस एकाकार स्वरूप के कारण ही 'शिवशक्ति जैसा पद प्रयोग में है। शक्ति प्राय: शिवत्व के साथ ही प्रस्तुत होती है। इसलिए शक्ति की आकांक्षा, आराधना एवं अंगीकार व्यक्ति नहीं, अपितु मानवीय अर्थात् सामाजिक अर्थात् सांसारिक उत्थान हेतु होती रही है। अत: भारती-भूषण कवियों ने भी शक्ति की दृढ़ आराधना की है। प्रसंगावधान से 'राम की शक्ति-पूजा की पंक्तियाँ स्मरणीय हैं - हे पुरुष-सिंह, तुम भी यह शक्ति करो धारण, आराधन का दृढ़ आराधन से दो उत्तर, तुम वरो विजय संयत प्राणों से प्राणों पर, रावण अशुद्ध होकर भी यदि कर सका त्रस्त तो निश्चय तुम ही सिद्ध करोगे उसे ध्वस्त, शक्ति की करो मौलिक कल्पना, करो पूजन। किन्तु, जब शक्ति-अर्जन के उपरान्त व्यक्ति स्वार्थान्धता में शक्ति के वास्तविक स्वरूप (शिवत्व) व मौलिक कल्पना (आइडिया) को विस्मृत कर निज हित-सिद्धि हेतु शक्ति-प्रयोग करता है, तब वह रावण की ही भाँति त्याज्य वा अशुद्ध कहलाता है। भारतीय कवियों ने अपने कविकर्म में शक्ति की मौलिक कल्पनाएँ की हैं और शिवत्व ही रचा-परोसा है, किन्तु आयातित सिद्धान्तपोषक आलोचकों की दृष्टि में काव्य में शिवत्व अगोचर ही रह गया है। उन्होंने कृषि एवं श्रम प्रधान देश की साहित्य में परम्परा के विपरीत प्रतिमानों की खोज की है।

ध्यातव्य है कि किसी भी प्रकार के शक्ति-अर्जन के लिए अथवा उसे दीर्घकाल तक संयत एवं प्रभावी बनाये रखने हेतु रचनात्मक संवादधर्मिता, परम्परानुशीलता, धैर्य एवं संयम की आवश्यकता होती है। नवरात्रि का सम्पूर्ण पर्व व सन्दर्भ धैर्य, संयम एवं संसारोचित कृत्य को ही व्याख्यायित करता है। नौ दिनों के युद्ध के उपरान्त दसवें दिन महिषासुर का वध, उसी धैर्य एवं संयम का संसारोचित रूपान्तरण है। इस कालजयी पक्ष को विविध सन्दर्भों में देखने और उन सन्दर्भों को संसारोचित व संस्कारोचित दृष्टि से लागू करके देश व समाज को रचनात्मकता की ओर उन्मुख करने की आवश्यकता है। किन्तु, प्राय: शक्ति-अर्जन के उपरान्त व्यक्ति हमारी आख्यान परम्परा में प्रस्तुत सन्दर्भों में उपलब्ध संकेतों को विस्मृत कर 'एको अहं, द्वितीयो नास्तिÓ में व्यक्त स्वानुकूलित (अहं)भाव में पथभ्रष्ट हो जाता है। परिणामत: विपरीत परिणाम मिलते हैं। आधुनिक भारतीय साहित्य में आयातित सिद्धान्ताधारित आलोचना ने वर्तमान विमर्शों में उसी पथभ्रष्टता का प्रसार किया है।

स्मरणीय है कि वाणी (कथन) में अकारण वक्रता, असंयम एवं दर्प भाव, और विचार में शिथिलता अथवा अविचारिता अथवा उग्रता से सामाजिक स्थैर्य एवं नैरन्तर्य का प्रभावशाली संयोग गड़बड़ाता है और सामाजिकों के मध्य समन्वय हेतु संचालित उपक्रम क्षतिग्रस्त होते हैं। इसलिए प्राय: हमारे सन्तों ने वाणी में वक्रता, असंयम, दर्प इत्यादि से बचने का उपदेश दिया है। कहा कि उससे बच कर तथा वाणी में मधुरता से ही सर्व सिद्धि योग बनता है। तुलसी बाबा के 'मधुर वाणी उपदेशÓ को भला कौन भूल सका है? उन्होंने वशीकरण हेतु मधुर वचनों के प्रयोग का उपदेश दिया है। कहा कि 'वशीकरण एक मन्त्र है, परिहरु वचन कठोर।Ó और अपनी वाणी में टनाटन टंकार उत्पन्न करने वाले कबीर बाबा ने भी कहा है कि 'कुटिल बचन सबसे बुरा, जा से होत न चार।Ó किन्तु, मेरा विचार है कि आलोचक पर उपरोक्त उपदेशों का विशेष प्रभाव न होना संसारोचित तथा सर्वार्थ संस्कार के लिए सर्वथा उचित है। इस विषय में आलोचक को 'चिकना घड़ाÓ बने रहना चाहिए। यदि वह उपरोक्त काव्यांश में प्रस्तुत मन्त्र की चपेट में आ जायेगा, तो आलोचना की परिभाषाएँ ही गड़बड़ा जायेंगी। बल्कि गड़बड़ा क्या जायेंगी, कालबाह्य ही सिद्ध हो जायेंगी। किन्तु, यह स्पष्ट हो कि आलोचक को आयातित सिद्धान्तों की चपेट में साहित्य, समाज व देश का अहित नहीं करना चाहिए। आप जानते हैं कि आलोचक मनुष्यों में सबसे महान प्राणी होता है। अत: उसका यह उत्तरदायित्व होता है कि वह अपनी महानता को विस्मृत न होने दे क्योंकि इस महानतम उत्तरदायित्व की विस्मृति से 'दूसरी परम्परा की खोजÓ का अनुकरणीय अध्याय आरम्भ होता है। और, स्मरण रहे कि आलोचना में न तो 'दूसरी परम्परा की खोजÓ अच्छी है और न ही 'परम्परा की दूसरी खोजÓ ही। परम्परा की ऐसी खोज से न परा विद्या (पारलौकिक) का ज्ञान सम्भव है, न अपरा विद्या (लौकिक एवं शास्त्रीय) का ही। कहना न होगा कि आलोचक को संसारोचित एवं संस्कारोचित (परम्परानुशील) कार्य ही करना चाहिए। और, विस्मृत नहीं होने देना चाहिए कि आलोचना-कर्म चमत्कारिक कर्म नहीं, अपितु अनेक अर्थों में परम्परानुशील सांसारिक कर्म है।

खरी-खोटी सुनाने वाले कबीर बाबा ने किसी प्रसङ्ग में कहा है कि 'कागा काको धन हरै, कोयल काको देत। मीठा शब्द सुनाय के, जग अपनो करि लेत।Ó कहा कि यह सत्य है कि कौआ किसी के धन की लूट-छिनैती नहीं करता और कोयल किसी को धन-सम्पदा नहीं देती, किन्तु कौए की कर्कश ध्वनि किसी को नहीं भाती और कोयल वृक्ष की किसी अदृश्य डाली पर अलख बैठ कर भी अपनी मधुर एवं मुग्ध कर देने वाली कूक से सबका ध्यान अपनी ओर आकृष्ट कर लेती है। इस प्रकार अपनी कर्णवेधी मधुरता के कारण सबकी प्रिय हो जाती है। मेरे विचार में आलोचक कौए, मेंढक, कुत्ते और इस धारा के अन्य कर्कश कण्ठधारी जीवों की श्रेणी में पड़ता है। इस कथन को केवल 'कण्ठध्वनिÓ तक ही सीमित करना उचित होगा। उन जीवों के गुणों की दृष्टि से आलोचक का मूल्यांकन करने से अनर्थ ही होगा और आलोचकों के प्रकोप को कौन नहीं जानता! अपने शब्दों और कथनों से औरों को भस्म करने की शक्ति आलोचक को प्राप्त है। वे इसके अभ्यस्त भी हो चुके हैं। इसलिए उस प्रकोप के भय और 'कौआ कान ले गयाÓ और 'कौआ चले हंस की चाल, भूल गया अपनी ही चालÓ जैसी लोकोक्ति में व्यक्त अर्थ भाव में विद्यमान अनर्थ भाव को देख कर सम्भल जाना चाहिए। आलोचकों के भय से अनेक कवियों ने कविताएँ लिखना छोड़ दिया। मैं भी उस आतंक से प्राय: भयभीत रहता हूँ।

अब, थोड़ा और आगे बढ़िए। मैंने यह अनुभव किया है कि कुत्तों को फिर भी मानव हृदय का अच्छा ज्ञान हो गया है। दिनकर ने 'श्वानों को मिलते दूध-वस्त्र, भूखे बालक अकुलाते हैंÓ काव्य-पंक्ति में अकारण ही 'हुंकारÓ नहीं भरी है। किन्तु, यह अच्छा हुआ कि अब तक दिनकर की इन काव्य-पंक्तियों की पेटावादी या ब्लूक्रॉसवादी आलोचना नहीं हुई। क्या पता आने वाले समय में साहित्य के विभाग इस दिशा में भी पहल कर दें! अस्तु, अपनी बात यह थी कि कुत्तों ने लाड़-दुलार-पुचकार के प्रभाव में दुम हिलाते हुए केवल अपने स्वामी तथा स्वामी भक्तों के प्रति कर्कशता छोड़ी है। औरों के प्रति उनकी कण्ठीकर्कशता अब भी शेष बनी हुई है। और, जो शेष बचा हुआ है, वह विशेष है। स्वामी उसी शेष-विशेष का लाभ उठा कर औरों पर भौंकने के लिए उन्हें छोड़े देता है। आप जानिए कि इस संसार में कुत्ता ही सबसे समझदार प्राणी है। वह व्यक्ति देख कर तथा स्थिति भाँप कर अपनी कण्ठीकर्कशता का प्रदर्शन करता है। मनुष्य ने कुत्ते की समझदारी को गुणग्राही मान कर उसका समयोचित एवं समायोजित अंगीकार किया है। यह बात और है कि कुछेक आलोचकों ने भी उस गुण को अंगीकार करते हुए साहित्य में अपना-पराया का भेद किया है। और, यथा-इच्छा औरों पर कुत्ते छोड़ दिये हैं। इस प्रकार आलोचना में परम्परा के विरुद्ध हठात् 'दूसरी परम्पराÓ विकसित की गयी है। (क्रमश:)

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