पुस्तक मेला का खेला...
हाल ही में व्हाट्सएप पर एक चुटकुला जैसा कुछ पढ़ने को मिला जो कुछ इस प्रकार था-
'सर, आप अपनी इस पुस्तक पर लिख कर हस्ताक्षर कर दीजिये कि यह पुस्तक आपने मुझे भेंट की है।
क्यों इसकी क्या ज़रूरत है?
जी मैं नहीं चाहता कि लोग मुझ पर आरोप लगाएं कि मैंने आपकी पुस्तक पैसे देकर ख़रीदी है!Ó
यह दृश्य आने वाले पुस्तक मेले को लेकर रचा गया था। मैं यह सोचने को मजबूर हो गया कि आखिर हिन्दी साहित्य का प्रकाशक पुस्तक मेले में करने क्या जाता है। आजकल हिन्दी साहित्य की पुस्तकों का पहला संस्करण छपता है तीन सौ प्रतियों का। प्रकाशक को शिकायत रहती है कि हिन्दी साहित्य की पुस्तकें बिकती नहीं हैं। लेखक को कभी रॉयल्टी नाम की चिड़िया दिखाई नहीं देती। तो फिर पुस्तक मेले में क्या होता है... प्रकाशक इतने महंगे स्टॉल कैसे किराये पर ले पाते हैं। कैसी किताबें बिकती हैं और कौन हैं ख़रीदने वाले।
मगर हिन्दी का साहित्यिक लेखक लोकप्रियता के बुख़ार का स्थाई मरीज़ है। उसे यह भी ग़लतफ़हमी रहती है कि उसके लेखन से समाज में क्रांति आ सकती है। प्रकाशक उसे दो मिनट उसकी औकात दिखाता रहता है मगर लेखक है कि मानता ही नहीं। वह फ़ेसबुक और इंस्टाग्राम पर पोस्ट डालता रहता है कि उसकी कितनी पुस्तकें आगामी पुस्तक मेले के किस प्रकाशक के किस स्टॉल पर उपलब्ध रहेंगी।
धड़ाधड़ पोस्टर तैयार किये जाते हैं। तमाम पोस्टर एक से ही लगते हैं... बस उनमें लेखक और पुस्तक की तस्वीर बदल जाती है। किसी पोस्टर में लिखा रहता है 'मेले में पुस्तकÓ तो दूसरे में दिखाई देगा 'मेले की पुस्तक!Ó
लोकार्पण का वायरल पूरे पुस्तक मेले में इस क़दर फैला रहता है कि उसके लिये अभी तक किसी प्रकार की वैक्सीन का आविष्कार भी नहीं हो पाया है। नये और युवा लेखक तो एक 6 फ़ुट बाई 6 फ़ुट के स्टॉल में अपनी पुस्तक का लोकार्पण भी करवाते हैं और मित्रों एवं वरिष्ठ लेखकों को अपनी-अपनी पुस्तक भेंट करते दिखाई देते हैं। वरिष्ठ भी उनसे पुस्तक स्वीकार करके उन्हें कृतार्थ करते होंठों पर महंगी सी मुस्कुराहट चिपकाए चलते फिरते दिखाई देते हैं।
कुछ प्रकाशक अपने-अपने स्टॉल पर पुस्तक चर्चा का आयोजन भी करते हैं। बेचारा लेखक यहां भी अपना किरदार पूरी शिद्दत से निभाता है। वह समीक्षक और आलोचक का इंतज़ाम तो करता ही है, पांच से दस श्रोताओं को भी आमंत्रित करता है और मिठाई का डिब्बा भी ख़रीद कर लाता है। पुस्तक मेले के नौ दिनों में ऐसे कम से कम नौ लेखक तो हर प्रकाशक को भी मिल ही जाते हैं।
मेले से पहले और मेले के दौरान लेखक और प्रकाशक के रिश्तों का आभास भी किया जा सकता है। जिस प्रकाशक के जिस लेखक के साथ प्रगाढ़ रिश्ते होते हैं, उनके पोस्टर सुरुचिपूर्ण बनते हैं और उन्हें पुस्तक मेले में प्रमोट करने के कार्यक्रम भी रखे जाते हैं। जिनकी किताबें पैसे लेकर छापी जाती हैं वो बेचारे गाते गुनगुनाते दिखाई दे जाते हैं - रहा गर्दिशों में हरदम लेखन मेरा बेचारा...
ईर्ष्या और जलन की देवी 'ईजÓ के नाम की माला हर लेखक के गले में दिखाई दे जाती है। भला उसका लोकार्पण मेरे लोकार्पण से बेहतर कैसे ! हर लेखक को केवल अपनी पुस्तक और अपना प्रकाशक दिखाई देते हैं। कई बार तो ऐसा भी लगता है कि लेखक अपने प्रकाशक की दुकान पर खड़ा अपने माल को बेचने के लिये ग्राहकों को आवाज़ दे-दे कर बुला रहा है।
अतुकांत कवि भी इस ग़लतफ़हमी का शिकार हुए रहते हैं कि उनकी कविताएं साहिर लुधियानवी और शैलेन्द्र के गीतों की तरह किसी से कम नहीं हैं। प्रयत्न उनके भी रहते हैं कि पाठक प्रकाशक की शिकायत की परवाह न करें कि कविता की पुस्तक बिकती नहीं और आगे बढ़ कर उनकी पुस्तकें भी ख़रीदी जाएं।
बहुत से वरिष्ठ लेखकों के प्रयास रहते हैं कि उन्हें एन.बी.टी. के किसी कार्यक्रम में विशेषज्ञ की भूमिका मिल जाए। इससे कुछ जेब गरम होने की भी संभावना बनती है।
पुस्तक मेला चलता है कुल आठ से दस दिन। अब हर लेखक हर रोज़ तो वहां जा नहीं सकता। फ़ेसबुक पर इन दिनों अतिरिक्त वज़न पड़ना शुरू हो जाता है। घोषणाएं पढ़ने को मिलती हैं कि आइये भाइयो आइए, मैं अमुक प्रकाशक के स्टॉल पर उपलब्ध रहूंगा/रहूंगी। कुछ ऐसे निरीह प्राणी भी होते हैं जो दूर दराज़ के शहरों में रहते हैं। उनकी करुणामयी पुकार कुछ ऐसी होती है - मैं स्वयं तो पुस्तक मेले में शामिल हो नहीं सकता / सकती, आप अमुक प्रकाशक के स्टॉल पर मेरी अमुक-अमुक पुस्तक देख सकते हैं।
हिन्दी के तमाम कार्यक्रमों की तरह पुस्तक मेले में भी सबसे अधिक लोकप्रिय स्थान होता है फ़ूड कोर्ट। यहां पुस्तकों की ही तरह चटपटे खानों के स्टॉल मौजूद हैं। यहां के स्टॉल प्रकाशकों के स्टॉल से लोहा लेते दिखाई देते हैं। कुछ ऐसे भी होते हैं जो दफ़्तर की तरह यहां भी टिफ़िन बनवा कर घर से लाते हैं और घास के मैदान पर अकेले ही पेट-पूजा करते दिखाई दे जाते हैं। विदेश में जब कभी कुछ साहित्यिक मित्र एकत्रित होते हैं तो सब अपना-अपना सामान ख़रीदते हैं और उसके पैसे देते हैं। मगर पुस्तक मेले में प्रयास कुछ दूसरे तरह के भी होते रहते हैं... कौन मेहमान और कौन मेज़बान इसी को तय करने में कसरत होती रहती है।
दरअसल हिन्दी साहित्य का कुल जमा संसार कुछ हज़ार लोगों का है। यहां अगर तीन सौ पुस्तकों के पहले संस्करण के बाद दूसरा या फिर तीसरा संस्करण प्रकाशित हो जाता है तो प्रकाशक लेखक पर अहसान जताने लगता है और लेखक मुर्गे की तरह सीना तान कर और कलगी ऊंची करके चारों ओर ऐसी निगाह डालता है जैसे उसे बुकर अवार्ड मिल गया हो।
अब की बार तो पुस्तक मेला वैलेंटाइन डे से बस चार दिन पहले ही शुरू हो रहा है। वातावरण में वैलेंटाइन डे की ख़ुश्बू भी महसूस की जा सकेगी। किसी न किसी स्टॉल पर श्रेष्ठ प्रेम कहानियां तो कहीं वासनायुक्त (तथाकथित बोल्ड) कहानियों के संकलन भी मौजूद रहेंगे। पता चला कि बेचने वाले और ख़रीदने वाले सब एक ही हैं। किताबें बिक रही हैं... पैसे प्रकाशक के पास जा रहे हैं मगर हिन्दी के पाठकों की संख्या नहीं बढ़ रही है।
इस बार पुस्तक मेले की थीम 'बहुभाषी भारत एक जीवंत परंपराÓ (Multilingual India) रखी गई है। इस बार पुस्तक मेला का अतिथि देश सऊदी अरब है। साथ ही, यूनाइटेड किंगडम, फ्रांस, स्पेन, तुर्की, इटली, रूस, ताइवान, ईरान, यूनाइटेड अरब अमीरात, ऑस्ट्रिया, बांग्लादेश, श्रीलंका, नेपाल सहित और भी कई देश इस पुस्तक मेले में हिस्सा ले रहे हैं। नई दिल्ली विश्व पुस्तक मेले में सांस्कृतिक कार्यक्रम भी होंगे। इसमें नाटक, लोक प्रदर्शन, संगीत, बैंड परफॉर्मेंस शामिल है।
हिन्दी साहित्यकारों को अंग्रेज़ी पुस्तकों के कुछ स्टॉल अवश्य देखने चाहियें ताकि यह महसूस किया जा सके कि बिना जुगाड़, मारा-मारी, और सोशल मीडिया के भी कुछ गंभीर काम किये जा सकते हैं। विश्व भर की पुस्तकें वहां मौजूद होंगी... यह तो निर्विवाद है कि अंग्रेज़ी विश्व भाषा है। रवीन्द्र नाथ टैगोर को नोबल प्राइज़ और गीतांजलिश्री को बुकर अवार्ड इस विश्व भाषा में अनूदित होने के बाद ही मिला। विश्व की भाषा के स्टॉल इसलिये देखे जाएं ताकि भाषा (हिन्दी) का भविष्य तय किया जा सके।
(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं एवं लंदन में रहते हैं)