असम के प्राथमिक विद्यालयों से हिंदी हटाने की तैयारी
इसे बिडंबना ही कहेंगे कि नई शिक्षा नीति में प्राथमिक शिक्षा में मातृभाषाओं पर जोर दिए जाने के बावजूद असम के हिंदीभाषी समूहों को अपनी मातृभाषा हिंदी के लिए संघर्षरत होना पड़ रहा है। असम की बराक घाटी के सैकड़ों उच्च प्राथमिक विद्यालयों के शिक्षण से हिंदी को विदा करने की तैयारी है। इसे लेकर यहां का हिंदीभाषी समुदाय सकते में है। वह असम सरकार से अपनी चिंता साझा करने की कोशिश कर रहा है, लेकिन उनकी बात सुनने को कोई तैयार नहीं है।
असम के स्कूलों से हिंदी की पढ़ाई को हटाने के सरकारी आदेश और उससे उपजे हालात की चर्चा से पहले असम की स्थानीय स्थिति को जानना जरूरी है। असम की ख्याति उसके चाय बागानों को लेकर है। अंग्रेजों ने जब चाय के बागानों को विकसित किया तो उसमें काम करने के लिए पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, राजस्थान और उड़ीसा से भारी संख्या में मजदूर लाए गए। इन मजदूरों की अब यहां तीसरी पीढ़ी है। सबसे ज्यादा हिंदीभाषी राज्य की बराक घाटी के तीन जिलों कछार, हेलाकांडी और करीमगंज जिले में हैं। यहां के करीब तीन सौ चाय बागानों में काम करने वाले लोग बुनियादी रूप से पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार और झारखंड से हैं। राज्य की ब्रह्मपुत्र घाटी के भी कुछ जिलों मसलन गुवाहाटी, तिनसुकिया, होजाई जिलों में भी हिंदीभाषी, विशेषकर भोजपुरीभाषी काफी संख्या में हैं। इन जिलों में कारोबारी के तबके के तौर पर राजस्थानी मूल के लोगों की भी अच्छी-खासी संख्या है। बेशक इन जिलों में काम करने वाले लोग अब असम के औपचारिक नागरिक हैं, लेकिन उनकी जड़ें चूंकि बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश, राजस्थान आदि में हैं, लिहाजा उनका नाता अपनी भाषा, अपनी सांस्कृतिक परंपराओं आदि से बना हुआ है।
आजादी के बाद से ही इस वर्ग के बच्चों की पढ़ाई के लिए राज्य में त्रिभाषा फॉर्मूले के तहत राज्य के ब्रह्मपुत्र घाटी में असमिया, अपनी भाषा यानी हिंदी और अंग्रेजी की पढ़ाई होती थी। इसी तरह बराक घाटी में असमिया की जगह बांग्ला और बोडोलैंड इलाके में बोडो पढ़ाई जाती थी। लेकिन असम के प्राथमिक शिक्षा विभाग ने राज्य के उच्च प्राथमिक या मिडिल स्कूलों में अब नई व्यवस्था लागू करने की तैयारी की है। बीते 17 अगस्त 2023 को प्राथमिक शिक्षा निदेशालय की बैठक हुई। जिसमें मिडिल एजूकेशन स्कूल यानी उच्च प्राथमिक विद्यालयों में 2011 से 2016 और 2016 से 2021 के बीच हिंदी अध्यापकों की हुई भर्ती के आंकड़े जुटाने का आदेश दिया गया है। इसी बैठक में तय किया गया है कि अब राज्य के उच्च प्राथमिक विद्यालयों में त्रिभाषा फॉर्मूले के तहत असमिया और दूसरी भाषा के रूप में अंग्रेजी पढ़ाने की तैयारी है। बराक घाटी में हिंदीभाषी लोगों के अधिकारों के लिए संघर्षरत दिलीप कुमार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ता हैं। उनकी अगुआई में सरकार के इस फैसले का विरोध तेज हो गया है।
दरअसल राज्य सरकार द्वारा संचालित इन स्कूलों में सबसे ज्यादा निम्न मध्यवर्गीय लोगों और चाय मजदूरों के बच्चे ही पढ़ते हैं। इन हिंदीभाषियों के बच्चों को राज्य के कई इलाकों विशेषकर बराक घाटी के सैकड़ों स्कूलों में त्रिभाषा फॉर्मूले के तहत बांग्ला भाषा पढ़ना पड़ रहा है। कुछ जगह अपने हिसाब से बच्चे हिंदी पढ़ लेते हैं तो वहां हिंदी अध्यापक ना होने की वजह से उन्हें मातृभाषा हिंदी का जवाब भी बांग्ला में लिखना पड़ रहा है। इसे लेकर राज्य का हिंदीभाषी समुदाय पहले से ही संघर्षरत है। अभी इस समस्या का कोई माकूल समाधान हुआ नहीं कि राज्य के अधिकारी नया फॉर्मूला लेकर आ गए। इससे हिंदीभाषियों की चिंता बढ़ना स्वाभाविक है। हिंदीभाषियों का तर्क है कि राज्य सरकार धीरे-धीरे हिंदी की पढ़ाई बंद कर देगी। फिर हिंदी के अध्यापकों की भर्ती बंद की जाएगी और इस तरह राज्य की अर्थव्यवस्था की रीढ़ रहे हिंदीभाषी चायबागान मजदूरों के बच्चे अपनी ही मातृभाषा हिंदी से वंचित हो जाएंगे।पूर्वोत्तर भारत के राज्यों में हिंदीविरोध या हिंदी उपेक्षा का भाव नहीं रहा है। अलबत्ता पूर्वोत्तर के कई लोग अपनी हिंदी की वजह से हिंदीभाषी इलाकों में समादृत रहे हैं। राज्य के मुख्यमंत्री हिमंत विस्वसर्मा की आज अगर एक तेज-तर्रार राजनेता के तौर पर राष्ट्रव्यापी पहचान है, तो उसकी एक बड़ी वजह उनकी तुर्श मिजाज वाली मीठी हिंदी भी है। पता नहीं, उनके अधिकारी इस तथ्य को समझते हैं या नहीं। बेशक असम में उल्फा के उभार के बाद राज्य के हिंदीभाषियों को निशाना बनाया गया और इस बहाने हिंदी भी निशाने पर रही। लेकिन बाकी राज्य अपनी अर्थव्यवस्था के प्रमुख स्तंभ चाय बागानों के हिंदीभाषी मजदूरों की मातृभाषा की राह में रोड़ा नहीं बना। लेकिन राज्य के प्राथमिक शिक्षा विभाग के इस आदेश के बाद राज्य के उस इलाके से भी हिंदी की विदाई की तैयारी होती नजर आ रही है, जहां हिंदीभाषी समुदाय की प्रभावी उपस्थिति है। वैसे तो समूचा देश भी सांस्कृतिक रूप से एक है। कामाख्या देवी की वजह से असम का समूचे देश से गहरा सांस्कृतिक रिश्ता है। असम की चाय तो समूचे देश के सुबह की शुरूआत का प्रतीक है। इस चाय को तैयार करने वाले ज्यादातर हाथ हिंदीभाषियों के ही हैं। उन हाथों की जुबान का सम्मान होना चाहिए। लेकिन दुर्भाग्यवश ऐसा नहीं हो रहा है। असम सरकार को इसे देखना चाहिए। बेशक वहां की स्थानीय भाषा भी पढ़ाई जाती रहे। लेकिन हिंदी को अंग्रेजी की कीमत पर अलग नहीं किया जाना चाहिए। यहां चर्चा की जरूरत नहीं है कि मातृभाषाओं में शिक्षा की क्या अहमियत है। इसे अब पूरी दुनिया स्वीकार कर चुकी है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति तो इसे शिद्दत से मान रही है। बेहतर होगा कि असम सरकार इस नजरिए से हिंदी की पढ़ाई पर ध्यान दे और अपनी अर्थव्यवस्था के मजबूत हाथों की जुबान के प्रति अधिकारियों ने जो उपेक्षाबोध भरा है, उसे दूर करे।
(लेखक प्रसार भारती के सलाहकार हैं)