रामलला और मीडिया का स्व

रामलला और मीडिया का स्व
लाजपत आहूजा

शीर्षक थोड़ा चौंका सकता है। राम जी के विभिन्न पक्षों पर विद्वान काफी कुछ लिख रहे हैं। अभी रामलला प्राण प्रतिष्ठा समारोह की छवियाँ आँखों के सामने से हट नहीं रही है। जगद्गुरु रामभद्राचार्य जी की दृष्टिबाधित आँखों से बहते अविरल आंसुओं के साथ, देश के करोड़ों नेत्र छलक रहे थे। नृत्यांगना हेमामालिनी का नृत्य हर्ष-उल्लास का था। एक दशक पहले तक जो असंभव लगता था। वो संभव हो गया। यह देश के महानायक का प्रभाव था। मीडिया, विशेषकर अंग्रेज़ी के न्यूज़ चैनलों पर लगातार कवरेज किसने सोचा था। मीडिया से वर्षों से जुड़ा हूँ इसलिए केवल मीडिया की बात करूँगा। उस पर भी अपने समय का प्रभाव सिर चढ़कर बोलता है। यहाँ, भले ही किसी को कुछ तकलीफ पहुँचे, पर देश के प्रथम प्रधानमंत्री की बात करना पड़ेगी। सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण के समय जो उनकी भूमिका रही उससे मीडिया में भी हिन्दुत्व एक गाली-सा बन गया था, उसके गर्व बनने में बहुत समय लगा। हालांकि देश के कालक्रम में यह अवधि बहुत नहीं कही जा सकती। प्रथम प्रधानमंत्री तो अंतरिम सरकार में बने पर उनमें वैचारिक निवेश दलों/विचारों ने बहुत पहले प्रारंभ कर दिया था।

इरफ़ान हबीब की किताब 'भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन और राष्ट्रवादÓ में स्पष्टता से लिखा है कि सीपीआई ने नेहरू को अपना समर्थन दिया। यह अक्टूबर 1947 की बात है। उनके अनुसार यह इसलिये किया गया क्योंकि कांग्रेस के अंदर सरदार पटेल के नेतृत्व में दक्षिण पंथ मजबूत हो रहा था। कांग्रेस में घुसने का निर्णय भी लिया गया। नेहरू के प्रथम कार्यकाल में उनके और पहले राष्ट्रपति के बीच प्रथम विवाद ही इस बात का था कि राष्ट्रपति सोमनाथ न जायें। अपने समय के प्रसिद्ध पत्रकार दुर्गादास की किताब 'इंडिया- कज़र्न टू नेहरू एंड आफ्टरÓ में एक समूचा अध्याय ही 'प्रेसिडेंट एंड प्राइम मिनिस्टरÓ शीर्षक से है। वे डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को पुनर्जागरणवादी मानते थे। पं. नेहरू डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को दूसरा कार्यकाल देने के पक्ष में नहीं थे। इस संबंध में खबर देने पर उन्होंने दुर्गादास को बुलाकर पूछताछ भी की थी।

लुब्बोलुबाब यह है कि इन सब बातों का असर मीडिया पर भी पड़ा और मीडिया में लंबे समय तक हिन्दू की बात करने वाला तिरस्कृत भाव से 'संघीÓ कहलाता था, भले ही उसका राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से कोई संबंध न हो। इन सब कारणों से एक पत्रकार को यह किताब तक लिखनी पड़ी कि- ए संघी हू नेवर वैन्ट टू शाखा। देश इस दौर से अब उबर रहा है। मीडिया में ऐसे तत्व अभी भी बहुत हैं। भोपाल के पत्रकारिता के निजी विश्वविद्यालय के एक डीन ने बड़ी शान से सोशल मीडिया पर रावण की भक्ति की पोस्ट शेयर की हैं। हालाँकि उन्हें राष्ट्रभाव के वरिष्ठ पत्रकार ने सटीक जवाब दे दिया है (उनका भी संघ से सीधा कोई संबंध नहीं है।) यह दूसरे महानायक का प्रभाव है। जोश में होश न खोएँ, विजय में विनय का यह काल चक्र है।

(लेखक पूर्व संचालक जनसंपर्क हैं)

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