ओबीसी फार्मूले से वापसी की जुगत...

ओबीसी फार्मूले से वापसी की जुगत...
X
आलोक मेहता

संसद और विधानसभा में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण के नए कानून में पिछड़े वर्ग की व्यवस्था को लेकर कांग्रेस पार्टी ने संसद में अपने गठबंधन के सहयोगी दलों से अधिक ऊँची आवाज और संशोधन प्रस्ताव रखने के प्रयास किए। सोनिया गाँधी, राहुल गाँधी, पार्टी अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे सहित कांग्रेसी नेताओं ने लालू यादव , नीतीश कुमार, अखिलेश यादव की पार्टियों से अधिक ताकत दिखाकर क्या सचमुच पिछड़े वर्ग के वोट बैंक पर एकाधिकार का सपना देख लिया है? गाँधी परिवार ओबीसी आरक्षण के वीपी सिंह और लालू मुलायम के तीर कमान से घायल हो केंद्र और राज्यों की सत्ता खोते रहे हैं। राहुल गाँधी तो दिशाहीन हैं , लेकिन सोनिया गाँधी और कांग्रेस के अन्य बड़े नेता क्या राजीव गाँधी के विचारों प्रयासों नीतियों को गंगा यमुना नदी में प्रवाहित कर चुके हैं या नए राजनीतिक गठजोड़ के समक्ष समर्पण कर चुके हैं? इस चक्रव्यूह से क्या वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी भारतीय जनता पार्टी को चुनावी मैदान में पराजित कर सकेंगे ?

श्रीमती इंदिरा गांधी 1975 में प्रधानमंत्री थीं तो 'टूवर्ड्स इक्वैलिटीÓ नाम की एक रिपोर्ट आई थी। इसमें हर क्षेत्र में महिलाओं की स्थिति का विवरण दिया गया था। इसमें महिलाओं के लिए आरक्षण की भी बात थी। इस रिपोर्ट तैयार करने वाली कमिटी के अधिकतर सदस्य आरक्षण के खिलाफ थे। राजीव गाँधी तो सत्ता में आने के बाद संविधान में प्रदत्त आरक्षण व्यवस्था को सुधार करने के विचार के साथ इसका विस्तार किए जाने के पक्ष में नहीं थे। इस सन्दर्भ में मुझे प्रधानमंत्री के रूप में राजीव गाँधी द्वारा 2 मार्च 1985 को दिए गए एक इंटरव्यू के दौरान आरक्षण के मुद्दे पर उत्तर का उल्लेख उचित लगता है। यह इंटरव्यू उस समय नव भारत टाइम्स में प्रकाशित हुआ था। आज भी रिकार्ड्स में उपलब्ध है। राजीव गाँधी ने उत्तर दिया था - मैं यह मनाता हूँ कि आरक्षण की पूरी नीति पर ही नए सिरे से विचार होना चाहिए। 35 साल पहले सामाजिक समस्याओं के समाधान के लिए यह व्यवस्था की गई थी। लेकिन पिछले वर्षों के दौरान उसका राजनीतिकरण कर दिया गया। दूसरी तरफ इतने वर्षों में हमारा समाज बहुत बदल गया है। तरक्की हुई है। शिक्षा का विकास हुआ है। इसलिए अब समय आ गया है, जब हमें गंभीरता के साथ साथ इस नीति और सुविधाओं पर पुन: विचार करना है। हमें वास्तविक दबे और पिछड़े गरीब लोगों के लिए कुछ आरक्षण रखना होगा। लेकिन यदि इसका विस्तार किया गया तो योग्य लोग कहीं नहीं आ पाएंगे। हम अति सामान्य लोगों (उन्होंने बुद्धू शब्द तक का इस्तेमाल किया) लोगों को बढ़ावा दे रहे होंगे और इससे पूरे देश को नुक्सान होगा। यह बहुत तीखी टिपण्णी थी। आज कोई कहता और छपता तो हंगामा हो जाता।

राजीव गाँधी उसे कम तो नहीं कर पाए। लेकिन बोफोर्स मुद्दे पर उनका विरोध कर अन्य दलों का साथ लेकर सत्ता में आए विश्वनाथ सिंह ने पिछड़ी जातियों को भी आरक्षण देने का बड़ा राजनीतिक दांव खेल दिया। यही नहीं जनता दल के प्रतिद्वंदी देवीलाल को भी मात दे दी। उन्हें तात्कालिक लाभ अवश्य हुआ, लेकिन बाद में यह दांव उल्टा पड़ा और उनकी सत्ता ही चली गई। मंडल आयोग की सिफारिश लागू करने पर देशभर में विरोध हुआ और राजीव गाँधी तथा कांग्रेस ने कड़ा विरोध जताया। राजीव गांधी संसद में मंडल कमीशन के खिलाफ जमकर बोले थे और वह सब रिकॉर्ड में है। 1997 में कांग्रेस और तीसरे मोर्चे की सरकार ने प्रमोशन में आरक्षण बंद कर दिया था। वह तो अटल जी की सरकार थी, जिसने फिर से एससी-एसटी समाज को न्यारय दिलाया।

हाँ राजीव गांधी ने अपने प्रधानमंत्री काल में 1980 के दशक में पंचायत और स्थानीय निकाय चुनाव में महिलाओं को एक तिहाई आरक्षण दिलाने के लिए विधेयक पारित करने की कोशिश की थी, लेकिन राज्य की विधानसभाओं ने इसका विरोध किया था। उनका कहना था कि इससे उनकी शक्तियों में कमी आएगी। पहली बार महिला आरक्षण बिल को एचडी देवेगौड़ा की सरकार ने 12 सितंबर 1996 को पेश करने की कोशिश की। सरकार ने 81वें संविधान संशोधन विधेयक के रूप में संसद में महिला आरक्षण विधेयक पेश किया। इसके तुरंत बाद देवगौड़ा सरकार अल्पमत में आ गई। देवगौड़ा सरकार को समर्थन दे रहे मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद महिला आरक्षण बिल के विरोध में थे। जून 1997 में फिर इस विधेयक को पारित कराने का प्रयास हुआ। उस समय शरद यादव ने विधेयक का विरोध करते हुए कहा था, 'परकटी महिलाएं हमारी महिलाओं के बारे में क्या समझेंगी और वो क्या सोचेंगी।Ó

1998 में 12वीं लोकसभा में अटल बिहारी वाजपेयी की एनडीए की सरकार आई। इसके क़ानून मंत्री एन थंबीदुरई ने महिला आरक्षण बिल को पेश करने की कोशिश की। लेकिन सफलता नहीं मिली। एनडीए सरकार ने 13वीं लोकसभा में 1999 में दोबारा महिला आरक्षण बिल को संसद में पेश करने की कोशिश की। लेकिन सफलता नहीं मिली।

वाजपेयी सरकार ने 2003 में एक बार फिर महिला आरक्षण बिल पेश करने की कोशिश की, लेकिन प्रश्नकाल में ही जमकर हंगामा हुआ और बिल पारित नहीं हो पाया। एनडीए सरकार के बाद सत्तासीन हुई यूपीए सरकार ने 2010 में महिला आरक्षण बिल को राज्यसभा में पेश किया। लेकिन सपा-राजद ने सरकार से समर्थन वापस लेने की धमकी दी। इसके बाद बिल पर मतदान स्थगित कर दिया गया। बाद में 9 मार्च 2010 को राज्यसभा ने महिला आरक्षण बिल को एक के मुकाबले 186 मतों के भारी बहुमत से पारित किया। जिस दिन यह बिल पारित हुई उस दिन मार्शल्स का इस्तेमाल हुआ। लोक सभा में यह अटक गया।

भारतीय जनता पार्टी ने 2014 और 2019 के चुनाव घोषणा पत्र में 33 फ़ीसदी महिला आरक्षण का वादा किया। इस मुद्दे पर उसे मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस का भी समर्थन हासिल हो गया। कांग्रेस संसदीय दल की नेता सोनिया गांधी ने 2017 में भी प्रधानमंत्री को चि_ी लिखकर इस बिल पर सरकार का साथ देने का आश्वासन दिया था। वहीं कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद राहुल गांधी ने 16 जुलाई 2018 को प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर महिला आरक्षण बिल पर सरकार को अपनी पार्टी के समर्थन की बात दोहराई थी। लेकिन अब 2023 में प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी को श्रेय मिलता देख कांग्रेस ने लालू अखिलेश का दामन थाम ओबीसी को लेकर तूफान खड़ा करने की कोशिश की। बहरहाल यह कानून संसद से पारित हो गया। यह ऐतिहासिक विजय है। संवैधानिक औपचारिकता और जनगणना और परिसीमन के बाद 2029 में भारतीय संसद में एक तिहाई महिला सांसद आ सकेंगी। फिलहाल देखना यह होगा कि 2024 के चुनाव में कांग्रेस कितना लाभ उठाएगी।

(लेखक पद्मश्री सम्मानित देश के वरिष्ठ संपादक है)

Next Story