सनातन, एशिया और भारत
पृथ्वी के जिस भाग को आज हम एशिया कहते हैं, वह नाम ज्यादा पुराना नहीं है। भारतीयों के अतीत के इतिहास की प्रामाणिकता सिद्ध करने वाले वाल्मीकि रामायण और महाभारत में उल्लेखित है कि स्वयंभू मनु के पुत्र प्रियव्रत ने समग्र पृथ्वी को सात भागों में विभाजित कर दिया था, जिसे जम्बूद्वीप नाम दिया। इन सात भू-खंडों को जम्बूद्वीप, प्लावश, पुश्कर, क्रोंच, शक, शाल्मली तथा कुश नाम दिए। जम्बूद्वीप अन्य द्वीप के केन्द्र में था और बड़ा भी था, इसलिए इस समूचे भू-भाग को जम्बूद्वीप कहा जाने लगा। वर्तमान में यही एशिया है। एशिया नाम इस भू-खंड को यूनानी नाविकों ने दिया। ग्रीक धातु 'असुÓ का अर्थ होता है 'सूर्योदय।' इन यूनानियों ने जम्बूद्वीप अर्थात बृहत्तर भारत वर्ष को पूर्व अर्थात सूर्योदय होने वाली दिशा में पाया और एशिया कहकर पुकारने लगे। संपूर्ण एशिया अनेक दृष्टियों से अपने में एक इकाई है। इसके प्राय: सभी देशों के आचार-विचार, रहन-सहन, पूजा-पद्धतियां और धर्म में बहुत कुछ समानता है। धर्म इस युग में आचरण का पर्याय था। इसका आदि स्रोत भारत और यहां से गए वे लोग हैं, जो जम्बूद्वीप में जाकर बस गए थे। यही मूल भारतीय आर्य थे, जो न केवल एशिया बल्कि यूरोप भी पहुंचे थे। उस कालखंड में यूरोप को 'हरिदेशÓ कहा जाता था। इन्हीं लोगों ने यहां भारतीय सभ्यता और संस्कृति के मूल्य स्थापित किए। ऐसा इसलिए भी हुआ, क्योंकि एक समय भारत की जनसंख्या बहुत अधिक बढ़ गई थी, इसलिए जो मूल भारतीय आर्य पालायन कर यहां पहुंचे थे, उन्होंने उपनिवेश स्थापित कर अपनी सत्ता भी स्थापित की। यहां बसने वाली सभी संतानें मनु-शतरूपा और ऋषि कश्यप और उनकी दो पत्नियों दिति एवं अदिति की थीं। इनमें अदिति की कोख से उत्पन्न संतानें देव कहलाईं, जबकि दिति से पैदा संतानें असुर कहलाईं।
किंतु समय परिवर्तन और जलवायु की भिन्नता के चलते इन दूरांचलों में बसने वाले लोगों के वर्णों तथा शरीरजन्य कद-कांठी में बदलाव आते गए। यातायात की कमियों के चलते इन लोगों का भारत आना कम हो गया। अंतत: भारत के ये मूल निवासी उसी परिवेश की जलवायु में ढलते चले गए। रहन-सहन और वाणी में परिवर्तन आ जाने से ये प्रवासी भारतीय विदेशी माने जाने लगे। मनु के अनुसार क्रिया लोप हो जाने से ही पौण्ड्र, औण्ड्र, द्रविड, कम्बोज, यवन, शक, वल्लभ, किरात, दरद, खस आदि जातियां बन गईं। इन्हीं में से जो ज्यादा पथ-भ्रष्ट हो गए, उन्हें म्लेच्छ कहा जाने लगा। किंतु इतिहास साक्षी है कि तत्पश्चात भी इन देशों से हमारा कौटुम्बिक और सांस्कृतिक संबंध बहुत लंबे समय तक बने रहे। इसीलिए वर्तमान में हम देख रहे हैं, जहां भी पुरातात्विक उत्खनन होते हैं, वहां हिंदू, संस्कृति और सभ्यता के चिन्हों के साथ हिंदू देवी-देवताओं के मंदिरों के अवशेष भी मिल जाते हैं। अतएव हम कह सकते हैं कि जिन देशों के आज जो वर्तमान नाम हैं, उन्हीं के प्राचीन नाम संस्कृतनिष्ठ हैं। जैसे बर्मा-ब्रह्मदेश, थाईलैंड-श्यामदेश, इंडोचाइना-चंपा, कम्बोडिया-कंबुज (यह वही देश है, जहां दुनिया का सबसे बड़ा हिंदू मंदिर अंगोरवाट है।) मलाया-मलय, इंडोनेशिया-द्वीपों का भारत, जावा-यवद्वीप, सुमात्रा-सुवर्णद्वीप, बोर्निया-वरुणद्वीप, बाली-बाली, अफगानिस्तान-गांधार, ईरान-आर्याना, ईराक-सूमेरू, टर्की-कपादेश, अरब-और्ब और सीलोन-श्रीलंका हैं।
दुनिया में जहां भी सनातन संस्कृति सभ्यता और आर्यों के इतिहास के प्रमाण व जनश्रुतियां विद्यमान थीं, उन्हें वेदव्यास ने एकत्रित करके एक विस्तृत कथा का रूप देकर 'माहाभारतÓ जैसा बड़ा और महान ग्रंथ रच दिया। वेद व्यास ने ही ऋग्वेद की ऋचाओं और मंत्रों को संकलित ग्रंथ में पिरोने का काम किया था। इन दोनों ग्रंथों का ही प्रदेय है कि भारतीय संस्कृति और इतिहास उपजीव्यों के रूप में बारम्बार दुनिया की विभिन्न भाषाओं में लिखे जाते रहे, परिणामत: मूल भारतीय आर्यों की गौरव गाथा अक्षुण्ण बनी रही।
तय है, इसी हिंदू, संस्कृति और सभ्यता की परिणति में भारतीय राष्ट्र का रूप-वैचिर्त्य और रस-गांभीर्य मिला, जो आज भी विद्यमान हैं। भगवान राम ने इसी सांस्कृतिक एकरूपता को बनाए रखने की दृष्टि से उत्तर से दक्षिण भारत की यात्रा कर उन सब विरोधी व विधर्मी शक्तियों का खात्मा किया, जो भारत राष्ट्र को नियंत्रण में लेना चाहती थीं। इसी दृष्टि से भगवान कृष्ण ने पश्चिम से पूरब की यात्रा कर सनातन संस्कृति व धर्म के वैभव को सुदूर पूर्वोत्तर क्षेत्र तक विस्तृत किया। इसलिए हमारे राष्ट्र की अवधारणा वह नहीं है, जो पश्चिमी विद्वान हम पर थोपते रहे हैं। अतएव हम 'राष्ट्रÓ शब्द का अर्थ अंग्रेजी भाषा के शब्द 'नेशनÓ से नहीं समझ सकते? जैसे कि हम 'धर्मÓ शब्द को अंग्रेजी के शब्द रिलीजन से नहीं समझ पा रहे हैं। दरअसल 'राष्ट्रÓ शब्द संस्कृत के अलावा किसी अन्य भाषा में उस अर्थ में नहीं है, जो हमारे व्याकरण से निकले शब्द-रूप में प्रस्तुत है। 'राष्ट्रÓ का संधि-विग्रह 'राजÓ और 'त्रÓ का अर्थ है। 'राजÓ का अर्थ है प्रकाशित होना और 'त्रÓ का अर्थ है 'रक्षण करनाÓ। अर्थात जो प्रकाशित हो रहा है और उसकी रक्षा भी हो रही है, वह 'राष्ट्रÓ है। ऋषि-मनीषियों ने इस स्वभाव वाले राष्ट्र का नाम रखा 'भारतÓ जो एक तरह से राष्ट्र के ही अर्थ का पर्यायवाची है। अर्थात 'भाÓ का अर्थ है 'प्रकाशÓ यानी जहां प्रकाश में यानी ज्ञान की साधना में निरंतर लगे रहने वाले लोग दुनिया में मिलते हैं, वही भारत है। 'रतÓ यानी 'सततÓ या 'साधनाÓ में लगे रहने वाले लोगों की जो सनातन परंपरा है, वह भारत की विलक्षणता है और यही भारत राष्ट्र है। यह भारत इसी परिभाषा के अनुरूप भारत बना रहे, इस हेतु ऐसी नीतियां आवश्यक हैं, जो इसके संस्कार में एकरूपता का संचार करती रहें।
(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं पत्रकार हैं)