भारत में संस्कृत ही प्रार्थना की भाषा
अंग्रेजी आग्रही लोगों के लिए शुभ सूचना नहीं है। लेकिन संस्कृत प्रेमी प्रसन्न हैं। लिथुआनिया यूरोप का विकसित और समृद्ध देश है। उत्तर-पूर्वी यूरोप में बाल्टिक सागर के किनारे स्थित यह देश संप्रति संस्कृत भाषा के आकर्षण में है। जर्मन विद्वान मैक्समूलर संस्कृत और ऋग्वेद पर मोहित थे ही, विलियम जोन्स भी संस्कृत प्रेमी थे। अब लिथुआनिया ने विश्वास प्रकट किया है कि इसकी भाषा और संस्कृति का जुड़ाव भारत की भाषा संस्कृत से है। लिथुआनिया में संस्कृत के विद्वान विटिस विदुनस भारत आए हैं। वे विल्नियस यूनिवर्सिटी के एशियन एवं बहुसांस्कृतिक अध्ययन विभाग में प्रतिष्ठित विद्वान हैं। उन्होंने राष्ट्रीय राजधानी नई दिल्ली के 'इंडिया इंटरनेशनल सेंटरÓ में एक भाषण दिया है। उन्होंने भारत और लिथुआनिया में भाषाई समानता के तथ्य सामने रखे। लिथुआनिया आगे शोध करना चाहता है। कार्यक्रम में भारत लिथुआनिया की राजदूत डायना मिकेविसीन भी मौजूद थीं। उन्होंने कहा कि संस्कृत, लिथुआनियाई भाषा की करीबी बहन है। उन्होंने जानकारी दी कि भारत में लिथुआनिया के दूतावास ने देश भर में दोनों भाषाओं के सम्बंधों की पहचान के लिए प्रयास प्रारम्भ किए हैं। उन्होंने बताया कि दोनों भाषाओं की समानताएँ शब्दावली तक ही सीमित नहीं है। व्याकरण की संरचना में भी समानताएँ हैं।
भारत में ज्ञान, विज्ञान, अर्थशास्त्र, आयुर्वेद, धनुर्वेद, नाटक, संगीत, कला, योगदर्शन और अनुभूति की भाषा संस्कृत है। पाली प्राकृत और अपभ्रंश होते हुए हिन्दी का विकास हुआ। अनेक भाषा विज्ञानी विकास क्रम में भिन्न मत भी रखते हैं। लेकिन प्राकृत के वैयाकरण वररूचि ने लिखा है 'प्रकृति: संस्कृंत/तस्मादुदभूतं प्राकृतं। संस्कृत प्रकृति है। प्राकृत उसी से प्रकट हुई है। भारतीय संस्कृति का विकास और कथन संस्कृत में हुआ था। हिन्दी ने उसे आगे बढ़ाया। संस्कृत को मृतभाषा कहने वाले मित्र दयनीय हैं। भाषा कभी नहीं मरती। उसे बोलने वाले ही भाषा प्राणतेज रहित होते हैं। हिन्दी संस्कृत की उत्तराधिकारी है। बेशक विदेशी सत्ता ने संस्कृति व संस्कृत को दुर्बल बनाया लेकिन संस्कृत को मिटाया नहीं जा सकता। संस्कृत अमरत्व का संधान है।
यूरोपीय सभ्यता का केन्द्र ईसाइयत है। ईसाइयत का विरोध या ईसाइयत की निकटता दोनों परस्पर पूरक हैं। भारतीय सभ्यता सोच विचार और चिन्तन का केन्द्र वैदिक दर्शन है। वैचारिक विविधता तर्क प्रतितर्क और सतत् शोध इस संस्कृति की प्रकृति है। संस्कृत हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं में शोध और बोध की विरासत है। अंग्रेजी ऐसी अनुभूति नहीं देती। लेकिन भारत में अंग्रेजी की ठसक है। अनेक हिन्दी विद्वान भी अंग्रेजी को अंतर्राष्ट्रीय भाषा मानते हैं। गांधी जी हिन्दी लिखने बोलने में कठिनाई अनुभव करते थे। उन्होंने समर्थकों से कहा था 'अंग्रेजी की कोई जरूरत नहीं। वायसराय से भी अपनी भाषा में बात करो।Ó बंकिम चन्द्र भारतीय भाषाओं के प्रेमी थे। उन्होंने लिखा, हम चाहे कितनी ही अंग्रेजी लिख पढ़ लें, अंग्रेजी हमारे लिए मरे हुए शेर की खाल ही सिद्ध होगी। हम उसे पहनकर सिंह गर्जना नहीं कर सकते। अंग्रेजी ने हम सबके भीतर आत्महीन भाव पैदा किया है। अंग्रेजी संस्कारों के कारण ही हम वास्तविक इतिहास बोध से दूर हैं। स्वाधीनता संग्राम के समय अंग्रेजी प्रतीकों से भारत की टक्कर थी।
संस्कृत और हिन्दी व अन्य भारतीय भाषाओं की समृद्धि समय का आह्वान है। संविधान सभा में पं0 नेहरू ने भी स्वीकार किया था कि संस्कृत भारत ही नहीं एशिया के बड़े क्षेत्र में विद्वानों की भाषा थी। आज संस्कृत की स्थिति वैसी नहीं है। संस्कृतविद् प्राय: आधुनिकता की अपेक्षा से दूर है और आधुनिकता प्रेमी संस्कृत से। संस्कृत आधुनिक विज्ञान, तकनीकी, उद्यम और प्रबोधन की भाषा भी हो सकती है। प्राचीन भारत का सारा ज्ञान विज्ञान, हर्ष विषाद और प्रसाद प्रकट करने वाली भाषा आखिरकार आधुनिक जगत् की लोकप्रिय भाषा क्यों नहीं हो सकती? चुनौती बड़ी है। संस्कृत जैसा पूर्ण अनुशासन किसी भी भाषा में नहीं है लेकिन संस्कृत कालवाह्य घोषित हो रही है। हम विशिष्ट संस्कृति के कारण ही विश्व के अद्वितीय राष्ट्र है। संस्कृति और संस्कृत परस्पर एक हैं। संस्कृत और संस्कृतिनिष्ठ नया वातावरण बन रहा है। यह प्रसन्नता का विषय है।भारत में संस्कृत ही प्रार्थना की भाषा है। विवाह और अन्य संस्कारों की भी। इसी तरह मुस्लिम मित्रों के यहां संस्कार आदि की भाषा अरबी है। रोमन कैथोलिक में लैटिन है। यहूदियों में हिबू्र है। आर्थोडाक्स ईसाई ग्रीक का प्रयोग करते हैं। भिन्न भिन्न सभ्यताओं में प्रार्थना और संस्कार की भाषाएं भिन्न-भिन्न हैं। हरेक भाषा के संस्कार होते हैं। वैदिक भाषा के अपने संस्कार हैं। वैदिक समाज ने इसी भाषा को संवाद का माध्यम बनाया था। उन्होंने इसी भाषा माध्यम को समाज गठन का उपकरण भी बनाया। इसी भाषा से दैनिक जीवन के कामकाज भी किए और इसी भाषा के माध्यम से सूर्य, चन्द्र, नदी, पर्वत और वनस्पति आदि से भी संवाद बनाया। यज्ञ कर्मकाण्ड में भी इसी भाषा का प्रयोग होता है।
अभिनय कला भारत में ही विकसित हुई। भरत मुनि ने संस्कृत में उसे नाट्य शास्त्र बनाया। इसे नाट्यवेद की संज्ञा मिली। दर्शन भारत में देखा गया। द्रष्टा ऋषि कहे गये। 'अर्थशास्त्रÓ संस्कृत में ही उगा पहली बार। कौटिल्य 'अर्थशास्त्रÓ के प्रथम प्रवक्ता हैं। आयुर्विज्ञान भी संस्कृत में प्रकट हुआ। ज्ञान विज्ञान और कला कौशल सहित राष्ट्रजीवन के सभी अनुशासन संस्कृत में ही प्रवाहमान हुए। सामूहिक हुए। एक से अनेक हुए। अनेक से एक हुए। संस्कृत ने एक संस्कृति दी और एक संस्कृति ने एक राष्ट्र। भतृहरि ने शब्द और अर्थ के सभी संकल्पों और विकल्पों को व्यवहारजन्य ही बताया था। आस्था ही नहीं इहलौकिक कर्मो के संधान का उपकरण भी संस्कृत ही है। संधान जैसा शब्द दूसरी भाषा में नहीं है। अनुसंधान इसी का छोटा भाई जान पड़ता है। संस्कृत में उल्लेखनीय अनुसंधान हुए हैं। भारत विरोधी मित्र संस्कृत को 'डेड लैंगुएजÓ कहते हैं। विलियम जोन्स ने संस्कृत को लैटिन आदि अनेक भाषाओं से समृद्ध बताया था। लेकिन संस्कृत को छोटा करने के लिए इंडो-यूरोपीय नाम की एक और प्राचीन भाषा का नाम उछाला था। लेकिन इस भाषा का कोई अतापता नहीं है।
हिन्दी प्राणवान भाषा है। हिन्दी के पास संस्कृत का उत्तराधिकार है और पालि, प्राकृत, अपभ्रंश का सिंगार। यह भारतीय संस्कृति की संवाहक है। यह भारत की राष्ट्रभाषा राजभाषा है। ईस्ट इण्डिया कम्पनी यहां अंग्रेजी लाई थी। उसके बाद अंग्रेजी सत्ता आई। भाषा अपने साथ संस्कार भी लाती है। हम अपने प्रिय का स्मरण कर रहे हों, वहीं प्रियजन अचानक आ जाए। हम चहक उठते हैं कि आइए! आइए! आपकी लम्बी उम्र है, आपकी ही चर्चा हो रही थी। अंग्रेजों ने अंग्रेजी में सिखाया 'ओह! थिंक दि डेविल, डेविल इज हियर - शैतान को याद किया शैतान आ गया।Ó अंग्रेजी संस्कार कमोवेश ऐसे ही हैं। ब्रिटिश सत्ता के दौरान अंग्रेजी कप्तान कलक्टर और अदालतों की भाषा बनी। प्रत्येक भाषा अपने लोक और संस्कृति की अभिव्यक्ति होती है। भाषा की अपनी संस्कृति होती है और हरेक संस्कृति की अपनी भाषा। संस्कृत हिन्दी सहित सभी भारतीय भाषाएं भारतीय संस्कृति प्रकट करती हैं। संस्कृति भी इन्हीं भाषाओं में खिलती है और ज्ञान विवेक बनती है।
(लेखक उप्र विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष हैं)