सनातन विरोधियों का स्वार्थ,क्या प्रपंच यह पंच रचा

सनातन विरोधियों का स्वार्थ,क्या प्रपंच यह पंच रचा
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पिछले वज्रपात - 'ईसाई मिशनरियों का हिन्दी प्रचार: पाँच पहर धन्धे गयाÓ में मैंने हिन्दी प्रचार-प्रसार के मिथ के आलोक में आत्महन्ता हिन्दी समाज के आचरण एवं व्यवहार का रेखांकन किया था। इधर उदयनिधि स्टालिन का 'सनातन को मिटानेÓ वाला बयान बहुचर्चित हुआ है। इस कथन का डीएनए ईसाई मिशनरियों के धर्म प्रसार अभियान से पूर्णत: मेल खाता है। तथ्यत: मिशनरियों ने 'सनातन को मिटानेÓ के प्रयासों से ही भारत में अपना विस्तार किया है। उन्होंने सनातन को मिटाने के लिए सर्वप्रथम हिन्दी और फिर धर्म प्रसार के माध्यम से विस्तारवाद की तीव्र इच्छा से प्रत्येक भारतीय भाषा को अपने अभियान का आधार बनाया। आज देश के प्रत्येक कोने में चर्चों की उपस्थिति इस बात को प्रमाणित करती है कि मिशनरियों ने प्रत्येक समाज की भाषा को आत्मसात कर, वहाँ के निवासियों को कन्वर्ट करने का उपक्रम सतत जारी रखा है। यह अत्युक्तिपूर्ण न होगा कि उनके द्वारा भारतीय भाषाओं का स्वीकार सनातन (भारत) को तोड़ने के लिए ही हुआ है, परन्तु दुर्भाग्य कि सनातनी (हिन्दू) भाषा(ओं) की आड़ में होने वाले प्रयासों से अनभिज्ञ मिशनरियों द्वारा प्रयुक्त अपनी भाषा(ओं) के प्रयोग-प्रचार पर ही मुग्ध रहे हैं।

ध्यातव्य है कि द्रमुक (डीएमके) सनातन विरोध के कारण ही ईसाइयत के संवाहकों का दीपदान बना हुआ है। यद्यपि उदयनिधि के सनातन विरोधी बयान को 'विवादास्पदÓ कहा जा रहा है, किन्तु क्या सत्य नहीं कि बिना कुछ कहे ही सनातन को उखाड़ फेंकने के 'सायास प्रयासÓ प्रथमत: इस्लामिक आक्रान्ता, तद्नन्तर औपनिवेशिक युग से मिशनरियों के माध्यम से होते रहे हैं? अत: विस्मरण न हो कि उदयनिधि का यह आवाहन उसी 'सायास प्रयासÓ की महत्वपूर्ण कड़ी है। और, यह भी न भूलें कि ऐसी अनेकानेक कड़ियाँ हैं और सबका एकमात्र घोषित उद्देश्य है - भारत (सनातन) को ध्वस्त करना।

क्या यह सत्य नहीं कि सनातन को तोड़ने के लिए ही जाति-आधारित विमर्श के साथ-साथ अस्मितामूलक विमर्श आरम्भ किये गये हैं? ऐसे सनातन तोड़क प्रयासों के कारण ही आज भारतीय समाज में एक धारा विकसित हुई है, जो स्वयं को सनातन से भिन्न मानकर स्वयं को सनातन परम्परा से आग्रहपूर्वक पृथक् करती है। सनातन से पृथक् अस्तित्व बनाने के लिए ही नये अस्तित्वों का विशेषीकरण और उन्हें विशेष सन्दर्भों के साथ जोड़ कर नये स्पर्शभाव के साथ प्रचारित किया जा रहा है। अनुसूचित जनजातियों (वनवासी) को बतला दिया गया है कि 'आप ही भारत के मूल निवासी हैं।Ó आर्य-द्रविड़ (श्रेष्ठ-कनिष्ठ) का भेद सृजित कर द्रविड़ (दक्षिण) निवासियों को बतला दिया गया है कि 'भारत के मूल निवासी आप ही हैं। वे (आर्य) तो आपको खदेड़कर यहाँ के निवासी (शासक) बनें।Ó अर्थात् यह भ्रान्ति द्रविड़ राज्यों में, विशेष कर तमिलनाडु के जनमानस में अन्त:क्षिप्त की गयी है। तात्पर्य है कि यदि आर्य हिन्दू थे, तो द्रविड़नाडु का समाज हिन्दू कैसे हो सकता है? पेरियार ने सनातन विखण्डन के लिए जो बीजारोपण किया था, उसी से बने वृक्ष को द्रमुक आज तक सींच रहा है। अनुसूचित जातियों को इसी प्रकार बरगलाया गया है। परिणामत: भारतीय समाज में जातिवाद की नयी और उल्टी लहर बहा दी गयी है। 23 जुलाई 2023 को प्रकाशित वज्रपात - 'आवारा मसीहा नहीं होते : मन ही गयन्द है, अंकुश दै दै राखुÓ में मैंने उत्क्रमित जातिवाद (रिवर्स कास्टिज़्म) का नीर-क्षीर परीक्षण प्रस्तुत किया है।

सनातन को उखाड़ फेंकने के सन्दर्भ में पेरियार ई. वी. रामास्वामी की दृष्टि को नहीं भूलना चाहिए। पेरियार के सन्दर्भ में शम्भुनाथ ने अपने ग्रन्थ 'भारतीय नवजागरण : एक असमाप्त सफरÓ में कुछ तथ्य प्रस्तुत किये हैं। प्रसंगावधान से शम्भुनाथ को उद्धृत किया जा सकता है - 'पेरियार आर्य-द्रविड़ के मामले में 19वीं सदी से शुरू किये गये नस्लवादी औपनिवेशिक प्रचार से प्रभावित थे। वे ब्राह्मणवाद के विरोध के साथ तमिल अन्ध-राष्ट्रवाद के रास्ते पर आ खड़े हुये। उन्होंने तमिल को सभी दक्षिण भारतीय भाषाओं का सूत्र बनाना चाहा और द्रविड़नाडु या द्रविड़स्तान की मांग की। उन्होंने 1940 में 'द्रविड़ कळगमÓ पार्टी बनायी और पृथकतावादी आन्दोलन छेड़ दिया।Ó (पृ. 444) ध्यातव्य है कि भारत से पृथक् होने के लिए सांस्कृतिक दृष्टि से पृथकत्व का स्थिरीकरण आवश्यक माना जाता रहा है। पाकिस्तान ऐसी मानसिकता से ही पृथक् हुआ। सनातन को समूल मिटाने के अभियान में नस्लवादी औपनिवेशिक दृष्टि एवं पृथकतावादी दृष्टि पर बारम्बार ध्यान जाना चाहिए ताकि एकजुट बने रहने के कारणों की खोज की जा सके, अन्यथा पृथक् होकर अन्य 'स्तानोंÓ की भाँति पतनोन्मुख बनने में क्या औचित्य है?

शम्भुनाथ ने इसी ग्रन्थ की भूमिका में लिखा है - 'समूचे भारतीय नवजागरण का परिप्रेक्ष्य बनाने की जगह प्रदेशगत या समुदायगत अध्ययन ज्यादा सामने आये। ऐसी चर्चाओं में उन औपनिवेशिक रणनीतियों पर विचार नहीं होता, जिनका बुरा असर नवजागरण के आन्दोलनों पर पड़ा, सामाजिक खाइयाँ बनी रह गयीं और 21वीं सदी में वे फिर चौड़ी कर दी गयीं। 19वीं सदी की मतान्धता से प्रेरित प्रति-नवजागरण की घटनाओं का इतिहास तो लिखा ही नहीं गया।Ó बौद्धिक संकीर्णता एवं निजी स्वार्थों का वह दौर वर्तमान में विस्तारित ही हुआ है। क्षेत्रीय दलों ने भारत को संकीर्णताओं के दलदल में धकेलने में कोई कमी नहीं रखी।

ऐसे प्रत्यक्ष-परोक्ष प्रयासों से भारत प्राय: बंटा-सा प्रतीत होता है। आई.एन.डी.आई.ए. (इण्डियन नेशनल डेवलपमेण्टल इन्क्लूसिव एलायंस) जैसे समय-समय पर बनाये जाने वाले परस्पर विरोधी कृत्रिम गठबन्धन भारत विभाजन के प्रत्यक्ष-परोक्ष प्रयासों की प्रक्रिया के ही अंग हैं। 'इण्डियाÓ नाम धारण कर इन दलों ने स्वयं ही सिद्ध कर दिया कि वे भारत की अवधारणा से पूर्णत: पृथक् धारा हैं। विस्मरण न हो कि इण्डिया में औपनिवेशिक दासत्व विद्यमान है। ये इण्डिया वाले उसी दासत्व के संवाहक हैं। ऐसे संवाहक प्राय: बाहरी शक्तियों से परिचालित होते हैं और बाहरी शक्तियाँ भारत को प्राय: बाज़ार के रूप में ही देखती रही हैं। भारत की आत्मनिर्भरता, समकालीन समय में सनातन का पुनर्जागरण बाहरी शक्तियों और देशान्तर्गत उनके एजेण्टों के लिए चिन्ताजनक बनी हुई है। अत: वे भारत को पुन: 'एक भारत, श्रेष्ठ भारतÓ के रूप में एकरूप, एकरंग, एकरस और अखण्ड बनाये रखने के प्रयासों को रोकने के लिए सनातन पर ही प्रहार करते हैं।

सर्वविदित है कि वर्तमान केन्द्रीय सत्ता सोशल इंजीनियरिंग के सहारे भारत की अखण्डता सुनिश्चित करने का प्रयास कर रही है। आज विश्व स्तर पर भारत शक्ति केन्द्रों के साथ प्रतिष्ठा पा रहा है। ऐसे में भारत में अशान्ति का वातावरण निर्मित कर विश्व को विपरीत सन्देश देने के उद्देश्य से अतिवादी कथन किये जाते हैं। ऐसे में सनातनियों को वैचारिक धैर्य के साथ एकजुट रहने की आवश्यकता है। यह भी ध्यान रखना होगा कि अविचारी उत्साह भारतघाती सिद्ध हो सकता है। अत: उससे बचने की नितान्त आवश्यकता है। वे सनातनियों को उकसाकर अपनी रोटी सेंकने में वे सिद्धहस्त हैं। औपनिवेशिक सत्ता के अंशधारकों से और क्या अपेक्षा की जा सकती है? शम्भुनाथ ने उपरोक्त ग्रन्थ में यद्यपि पेरियार के सम्बन्ध में लिखा है, किन्तु प्रकारान्तर से वह सनातन विरोधियों के सम्बन्ध में शतश: सत्य है - 'विचित्र बात यह है कि उन्हें अंग्रेज़ अच्छे लगते थे जो आर्य नस्ल के अंग बताये जा रहे थे।Ó ईसाई मिशनरियों की सनातन विरोधी धारा को पेरियार ने आगे बढ़ाया था। पेरियार की धारा को द्रमुक के उदयनिधि जैसे नेता आगे बढ़ा रहे हैं। जबकि इस धारा के विपरीत तमिलनाडु का जनमानस सनातन के प्रवाह में आप्लावित है। कुछ दिनों पूर्व आयी तमिल फ़िल्म 'वातीÓ (गुरुजी) में माँ सरस्वती की प्रतिमा का बारम्बार चित्राङ्कात किया जाना निरर्थक नहीं कहा जा सकता। शेष क्रमश: अगले 'वज्रपातÓ में।

(लेखक अखिल भारतीय राष्ट्रवादी लेखक संघ के संस्थापक हैं)

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