श्राद्ध पक्ष अपने पूर्वजों के प्रति श्रद्धा और सम्मान व्यक्त करने का समय
आश्विन मास के शुक्लपक्ष की पूर्णिमा से लेकर आश्विन कृष्णपक्ष अमावस्या तक के काल को श्राद्ध पक्ष या पितृ पक्ष कहा जाता है। यह वो समय है, जिसमें हम अपने उन पूर्वजों के प्रति श्रद्धा और सम्मान व्यक्त करते हैं पितरों को पिंड व जल अर्पित करते हैं। श्राद्ध पक्ष की अमावस्या को महालया भी कहा जाता है। इसका बहुत महत्व है। ये दिन इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि जिन्हें अपने पितरों की पुण्य तिथि का ज्ञान नहीं होता वो भी इस दिन श्रद्धांजलि या पिंडदान करते हैं।
क्या बदल रही है श्राद्ध पक्ष के प्रति धारणा
कहते हैं श्राद्ध में सबसे अधिक महत्व श्रद्धा का होता है। परन्तु क्या आज हम उसे उसी भाव से देखते हैं? कल यूहीं कुछ परिचितों से मिलना हुआ। उनमें से एक ने श्राद्ध पक्ष की अमावस्या के लिए अपने पति के साथ सभी पितरों का आह्वान करके श्राद्ध करने की बात शुरू कर दी। बातों ही बातों में खर्चे की बात करने लगी। फिर बोलीं कि क्या किया जाये महंगाई चाहे जितनी हो खर्च तो करना ही पड़ेगा, पता नहीं कौन सा पितर नाराज बैठा हो। उनको भय था की पितरों के रुष्ट हो जाने से उनके इहलोक के सारे काम बिगड़ने लगेंगे। उनके द्वारा किया गया श्राद्ध कर्म में श्रद्धा से ज्यादा भय था। वहीं दूसरे परिचित ने कहा कि श्राद्धपक्ष में अपनी सासू माँ की श्राद्ध पर वे किसी अनाथ आश्रम में जा कर खाना व कपड़े बाँट देती हैं। पितरों का आह्वान कर जल अर्पित कर देती हैं। उसका कहना है कि जो चले गए वो तो अब वापस नहीं आ सकते पर उनके नाम का स्मरण कर चाहे ब्राह्मणों को खिलाओ या अनाथ बच्चों को, या कौओं को क्या फर्क पड़ता है।
तीसरे परिचित ने बात काटते हुए कहा, 'ये सब पुराने जमाने की बातें है। आज की भागदौड़ भरी जिन्दगी में न किसी के पास इतना समय है न पैसा की श्राद्ध के नाम पर बर्बाद करे और कौन सा वो देखने आ रहे हैं? आज के वैज्ञानिक युग में ये बातें पुरानी हो गयी हैं हम तो कुछ नहीं करते। ये दिन भी आम दिनों की तरह हैं। वैसे भी छोटी सी जिंदगी है खाओ, पियो ऐश करो। क्या रखा है श्राद्ध करने में।
तीनों परिचितों की सोच, श्राद्ध करने का कारण व श्रद्धा अलग-अलग है। प्रश्न ये है की जहाँ श्रद्धा नहीं है केवल भय का भाव है क्या वो असली श्राद्ध हो सकता है? जिनकी वसीयत तो हमने ले ली पर साल में एक दिन भी उनके प्रति श्रद्धा व्यक्त करने में हम 'खाओ, पियो, ऐश करो की संस्कृति में कहीं अपने और आगामी संतानों को अकेलेपन से जूझती कृतघ्न पीढ़ी की ओर तो नहीं धकेल रहे Ó
श्राद्ध के बारे में भिन्न- भिन्न हैं पंडितों के मत
उज्जैन में संस्कृत विश्वविद्यालय के प्रमुख 'संतोष पंड्याÓ के अनुसार, श्राद्ध में भय का कोई स्थान नहीं है। कुछ लोग जरूर भय रखते होंगे जो सोचते हैं कि हमारे पितृ नाराज न हो जाएं, लेकिन ऐसा नहीं होता। जिन लोगों के साथ हमने जीवन के इतने वर्ष बिताएं हैं, वे हमसे नाखुश कैसे हो सकते हैं। उन आत्माओं से भय कैसा? वहीं इलाहाबाद से 'पं. रामनरेश त्रिपाठीÓ भी मानते हैं कि श्राद्ध भय की उपज नहीं है। इसके पीछे एक मात्र उद्देश्य शांति है। श्राद्ध में हम प्याज-लहसुन का त्याग करते हैं, खान-पान, रहन-सहन, सब कुछ संयमित होता है। इस तरह श्राद्ध जीवन को संयमित करता है, ना कि भयभीत जो कुछ भी हम अपने पितरों के लिए करते हैं, वो शांति देता है।
क्यों जरूरी है श्राद्ध
हिन्दू धर्म पुनर्जन्म के सिद्धांत को मानता है। मृत्यु शरीर की होती है पर आत्मा अजर अमर है। जब जीव का नश्वर शरीर खत्म हो जाता है, तो वो सूक्ष्म रूप में रहता है। हम जिस जड़ से उत्पन्न हुए हैं हमारे जिन पूर्वजों ने न केवल धन सम्पत्ति व संस्कार अपितु धरती, आकाश, जल, वायु का उचित उपयोग करके हमारे लिए छोड़ा है। जिन्होंने हमारे जीवन को आसान बनाया है। उनके प्रति ही हमें वर्ष में कम से कम एक बार तो सम्मान व्यक्त करना चाहिए।