श्री रंगा हरि जी: एक महाप्राण विभूति का महाप्रयाण

श्री रंगा हरि जी:  एक महाप्राण विभूति का महाप्रयाण
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स्मृति शेष: हेमंत मुक्तिबोध

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ प्रचारक श्री रंगा हरि जी स्वर्गारोहण कर गए। प्रदीर्घ अस्वस्थता के बाद केरल के कोच्चि नगर में उन्होंने अंतिम सांस ली। उनका जाना एक ऐसे महाप्राण व्यक्तित्व का जाना है जिसमें ब्रह्मतेज और क्षात्र तेज का अद्भुत संगम था। केरल एक ऐसा प्रदेश है जहां मिशनरी, मार्क्सवादी, मैकालेवादी और जिहादी अतिवादी शक्तियां अपनी सत्ता और जनसंख्या के बल पर हिंदुत्व के विचार और हिंदू संगठनों को कुचलने के लिए हर संभव षड्यंत्र रच रही होती हैं । ऐसे कठिन प्रदेश में प्रतिकूल परिस्थितियों के बीच संघ के काम को निरंतर आगे बढ़ाने में जिन महानुभावों ने अपने रक्त को पसीना बना दिया, रंगा हरि जी उनमें अन्यतम थे । केवल संघ के कार्यकर्ताओं के लिए ही नहीं, बल्कि सभी सामाजिक कार्यकर्ताओं और संगठनों के लिए भी वे एक प्रेरणापुंज थे। संघ-सृष्टि की आकाशगंगा के जाज्ज्वल्यमान नक्षत्रों में उनकी आभा और दीप्ति कुछ विशिष्ट थी। उच्चतम कोटि के शील के बीच सांस लेते उनके व्यक्तित्व में संघर्ष और स्वाध्याय, सक्रियता और वैचारिकता, विनम्रता और वाग्मिता, मूल्य और मौलिकता सदैव साकार और जीवंत रहती थी । सौ वर्ष पूरे करने जा रही संघ की यात्रा को डॉक्टर हेडगेवार, श्री गुरुजी, दीनदयाल उपाध्याय और दत्तोपंत ठेंगड़ी जैसे मौलिक चिंतकों ने वैचारिक आधारभूमि प्रदान की थी। रंगा हरि जी उसी परंपरा के वर्तमान चिंतक थे।

विलक्षण प्रज्ञा और सहज आत्मीयता का युग्म

उन्हें सुनना और पढ़ना एक अलौकिक अनुभव हुआ करता था। उनका सानिध्य हमेशा एक प्रश्न मन में जगाए रखता था कि इतना प्रखर प्रज्ञावान और विलक्षण विद्वान व्यक्ति इतना सहज, सरल और आत्मीयतापूर्ण कैसे हो सकता है कि अनायास ही उसके प्रति भक्ति के भाव उत्पन्न हो जाएं ? उनकी लगभग पचास से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। विभिन्न भाषाओं में उनके भाषणों के संकलन प्रकाशित हुए हैं। उनका शब्द-शब्द और अक्षर अक्षर उनकी वांग्मय तपस्या का परिचायक है । आज जब वे अपने पार्थिव रूप में उपस्थित नहीं हैं, तब उनके व्यापक विचार संकलन में से मेरे पढ़ने में आईं उनकी कुछ ही पुस्तकों में व्यक्त उनके विचारों का यहां पुन: स्मरण करना प्रासंगिक होगा।

जिन्होंने स्वराज और स्वतंत्रता के मायने गढ़े

स्वतंत्रता के अमृत महोत्सव के संदर्भ में 'स्वÓ, 'स्वराजÓ और 'स्वतंत्रताÓ शब्दों का आजकल खूब उल्लेख हो रहा है। अधिकांश लोग इन शब्दों के सही अर्थ जाने बिना ही इनका प्रयोग करते रहते हैं । स्वर्गीय हरि जी ने इन शब्दों की बड़ी सुंदर व्याख्या की है । वे लिखते हैं - स्वतंत्रता संग्राम के काल खण्ड में हम दो शब्द सुन रहे थे, एक 'स्वराजÓ और दूसरा 'स्वतंत्रताÓ। इन दोनों शब्दों में फर्क है। विश्लेषण करके सोचें तो 'स्वराजÓ राजनीतिक शब्द है, और उसका भाषान्तर अंग्रेजी में अपने नेता गण ने किया "स्श्वरुस्न क्ररुश्व" । राज करना राजनीतिक काम है। लेकिन 'स्वतंत्रताÓ केवल "स्श्वरुस्न क्ररुश्व" नहीं, स्वराज नहीं। स्वराज स्वतंत्रता से छोटा है। 'स्वतंत्रताÓ स्वराज से मौलिक है, व्यापक है। स्वतंत्रता राष्ट्र की अस्मिता पर जोर देती है, और स्वराज अस्तित्व पर जोर देता है।Ó

राष्ट्र की अवधारणा के अद्वितीय व्याख्याकार

अपनी पुस्तक 'भारत के राष्ट्रत्व का अनंत प्रवाहÓ में श्री रंगा हरि ने भारत की राष्ट्र विषयक अवधारणा की सुंदर व्याख्या की है। भारत के राष्ट्रत्व की बहुरंगी छटाओं, उसकी विशिष्ट दृष्टि और अर्थों को स्पष्ट करते हुए वे लिखते हैं 'मैंने जानबूझ कर राष्ट्रत्व शब्द को स्वीकारा क्योंकि यही राष्ट्र की अस्मिता को व्यक्त करता है । राष्ट्र संबंधित चार शब्द हैं, राष्ट्र, राष्ट्रत्व, राष्ट्रीय और राष्ट्रीयता। इनमें से राष्ट्र का स्वत्व है राष्ट्रत्व। राष्ट्र शब्द जाति बोधक नहीं है। राष्ट्र की संकल्पना राष्ट्रीयता से है। अंग्रेजी में भी इसी प्रकार के चार शब्द हैं ; नेशन,नेशनहुड, नैशनल और नैशनलिज्म।Ó इस पुस्तक के अठारह अध्यायों में उन्होंने हमारी राष्ट्रीयता के मूल तत्वों और उसके आध्यात्मिक अधिष्ठान का अत्यंत सरल और सारगर्भित विश्लेषण किया है जो किसी भी व्यक्ति के लिए अज्ञान और भ्रम के परदे को फाड़ कर वास्तविक सत्य को जानने में सहायक हो सकता है।

ज्ञान परम्परा के सामयिक भाष्यकार

उनकी एक अन्य पुस्तक है 'सुधा वाणी, सुधी वाणीÓ। हमारी ज्ञान परंपरा को आगे बढ़ाने और समाज को कर्तव्यपरायण तथा संस्कारवान बनाने में संस्कृत सुभाषितों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। ऐसे असंख्य सुभाषितों की निधि में से कुछ उपयोगी सुभाषितों की सरल और सामयिक व्याख्या श्री रंगा हरि जी ने इस पुस्तक में की है । इसमें एक सुभाषित 'मंत्र विप्लवÓसे संबद्ध है, जो इस प्रकार है -

एकं विषरसो हन्ति शस्त्रेणैकश्च वध्यते ।

सराष्ट्रं सप्रजं हन्ति राजानं मंत्रविप्लव: ॥

(उद्योग पर्व, 33-45)

अर्थ: विष की एक बूंद एक व्यक्ति को मारती है और शस्त्र एक व्यक्ति को मारता है, परंतु मंत्र विप्लव (विचार भ्रांति) सम्पूर्ण राष्ट्र, प्रजा और राजा को मारता है।

इसकी व्याख्या करते हुए वे लिखते हैं, 'क्या है यह मंत्र विप्लव? मन की भ्रांति, मन की विकृति, भ्रम की स्थिति। ये सब उसके रूप भेद हैं। मंत्र विप्लव स्वत्व को नष्ट करता है। विदुर ने जैसे बताया कि राष्ट्र का, जनता का, राष्ट्रपति का स्वत्वापहरण करता है। असली पहचान का नाश करता है। उससे प्रभावित व्यक्ति घोरतम आत्मविस्मृति में डूब जाता है। आत्मविस्मृति के परिणामस्वरूप व्यक्ति तथा राष्ट्र अंत:शून्य हो जाता है, आगे चलकर वैयक्तिक जीवन खोखले जीवन में भूताविष्ट हो जाता है। राष्ट्र के स्तर पर अपनी अस्मिता खोकर, स्वकीय तंत्र विस्मृत होकर परकीय तंत्र बिना हिचकिचाते अपनाता है । यही है उपर्युक्त अराष्ट्रीयकरण। उस आत्मघाती बीमारी का रोगाणु है मंत्र विप्लव। वे आगे लिखते हैं, अंग्रेजों का प्रयोग मंत्रविप्लव का था। उसका नतीजा है मन की विभ्रांति और विकृति।

कम्पनी-राज्य के काल में ही अंग्रेजों द्वारा यहाँ मन्त्रविप्लव का बीज बोया गया था। उनकी शिक्षा प्रणाली, उनका प्रचार, उनकी व्यवस्था कुशलता, चर्च के प्रोपेगेण्डा आदि के कारण अंग्रेज यहाँ देवदूत माने गए। योजनापूर्वक उनकी ओर से दो शब्द प्रचलित हुए- ष्ठद्ब1द्बठ्ठद्ग ष्ठद्बह्यश्चद्गठ्ठह्यड्डह्लद्बशठ्ठ और ङ्खद्धद्बह्लद्ग-द्वड्डठ्ठ'ह्य ड्ढह्वह्म्स्रद्गठ्ठ- (दैवी विधान व गोरे साहब का ऋण-भार)। संकेत था कि वे यहाँ के काले नरसमूह की भलाई के लिए ईश्वर की योजना के अनुसार आ पहुँचे हैं। भारतीयों के मन में हीनता (द्बठ्ठद्घद्गह्म्द्बशह्म्द्बह्ल4) का भाव अंकुरित होने लगा। आगे चलकर भारत एक राष्ट्र नहीं, यहाँ की पृथ्वी एक देश नहीं वरन् उपभूखंड है, यहाँ का गरम मौसम सबको उदास बनाने वाला है, यहाँ सर्वत्र भिन्नता ही भिन्नता है, सबको एक सूत्र में गूंथने का भार गोरों का है, संस्कृत मृत भाषा है आदि विचारभ्रान्तियाँ जन-मन में घुसने लगीं; जिससे राष्ट्रीय अस्मिता की विस्मृति हुई। भेड़ के झुंड के बीच जन्मे शेर के शावक की हालत हुई भारत की प्राचीन जनता की।Ó आज के परिवेश में जब विभिन्न निहित स्वार्थी ताकतें आपस में गठजोड़ कर मायावी तौर-तरीके अपनाते हुए समाज में एक मंत्र विप्लव ही फैलाने में लगी हैं तब श्रीमान हरि जी का यह विश्लेषण अधिकाधिक सामायिक सिद्ध होता है।

समयानुकूल रामचरित्र के प्रवर्तक

श्री रंगा हरि जी की एक अन्य कृति है 'वाल्मीकि रामायण- एक अध्ययनÓ। वाल्मीकि रामायण के महान संदर्भों में कालांतर में हुए परिवर्तनों के परिप्रेक्ष्य में उन्होंने उन संदर्भों का पुनरीक्षण किया है । श्रीराम को चित्रकूट से वापस अयोध्या ले जाने के लिए प्रयत्नशील भरत के साथ जाबालि भी थे जिन्होंने अपने तर्कों से श्रीराम को वनगमन से परावृत्त करने के भरसक प्रयत्न किए थे। वाल्मीकि रामायण में वर्णित श्रीराम-जाबालि संवाद की व्याख्या करते हुए रंगा हरि जी ने संसार में लोगों को तीन प्रकार की श्रेणियों, सन्मार्गी, दुर्मागी और अमार्गी में वर्गीकृत करते हुए तीनों का बड़ा ही सुंदर विश्लेषण किया है जिसका यहां स्थान की मर्यादा के कारण विस्तृत उल्लेख संभव नहीं है ।

सृष्टि के प्रति समन्वय की दिव्य दृष्टि

श्री रंगा हरि जी की नवीनतम कृति है 'पृथ्वी सूक्त - धरती माता के प्रति एक श्रद्धांजलि ।Ó कुछ ही समय पूर्व सरसंघचालक डॉक्टर मोहन भागवत जी ने केरल के राज्यपाल श्री आरिफ मोहम्मद खान की विशिष्ट उपस्थिति में इस पुस्तक का लोकार्पण किया है। जीवन के व्यावहारिक और अलौकिक पक्ष, वनस्पति, औषधि, धरती, अंतरिक्ष, राष्ट्र, समष्टि और व्यष्टि आदि से संबंधित व्यापक ज्ञान जिस पृथ्वी सूक्त में संग्रहीत है, वह अथर्व वेद का एक अंश है । मानव प्रज्ञा के इस अक्षय कोष में जीवन को समस्त कोणों से देखने वाली जो सामंजस्यवादी दृष्टि है उसे अपने चिंतन और विश्लेषण से विषद करते हुए इस पुस्तक में श्री रंगा हरि जी ने हमें अपने सांस्कृतिक उत्तराधिकार के प्रति जाग्रत किया है। वे लिखते हैं 'यह सूक्त पृथ्वी का गायन करता है, परन्तु यह पार्थिव नहीं है। यह स्वर्ग का गीत गाता है परंतु स्वर्गीय नहीं है। यह इंद्र, अग्नि, वायु और सूर्य जैसे देवताओं का गायन करता है, लेकिन यह ईश्वरीय नहीं है। इसमें पृथ्वी और स्वर्ग को मिला दिया जाता है। यहाँ पृथ्वी का मनुष्य स्वर्ग की दिव्यता से हाथ मिलाता है।

इसमें हम मानवतावाद को आध्यात्मिकता से युक्त पाते हैं। यह न तो अत्यधिक भौतिकवादी है और न ही आध्यात्मिक। वास्तव में, यह सोने और तांबे की मिश्रधातु की तरह दोनों का सामंजस्यपूर्ण संयोजन है। इसमें जानवर और जंगल, नदियाँ और महासागर, मैदान और पहाड़, सभी मिलकर जीवन और ऊर्जा को बढ़ावा देते हैं। इसमें जीवन के विभिन्न स्तर के लोग शामिल हैं। आध्यात्मिक और सैनिक, व्यापारी और हलवाहा, सभी के लिए इसमें पर्याप्त जगह है। इसकी चौड़ी छाती पर अलग-अलग भाषाएं बोलने वाले लोग और अपने-अपने विश्वास और पूजा के तरीके वाले लोग हैं। यह माँ पुत्रवत प्रेम और बिना किसी भेदभाव के सभी का पालन-पोषण करती है।

इसकी गोद चौड़ी और बड़ी है और इसमें मातृत्व सदैव भरा रहता है। यह किसी राष्ट्र विशेष की बात नहीं करता। यह पूर्णत: मानवतावादी है। दुनिया के किसी भी कोने में, कोई भी देश, कॉपीराइट के डर के बिना इसका मालिक हो सकता है। यह सबका है और सबके लिए है। अब समय आ गया है कि हमारी इस पवित्र भूमि भारत से इसकी गूंज विश्व में हो। लेकिन इसमें मनुष्यों के किसी भी समूह के दरवाजे पर दस्तक देने की आंतरिक क्षमता है। यह पृथ्वीसूक्त मातृवाद, राष्ट्रवाद, मानवतावाद और सार्वभौमिकता से स्पंदित है।Ó

पृथ्वी सूक्त उनकी अद्यतन पुस्तक है। संभव है, और हमें यह उम्मीद भी करनी चाहिए, कि उनकी प्रखर प्रज्ञा और मेधा से उद्भुत कुछ और भी अप्रकाशित साहित्य होगा जो भविष्य में हमें उपलब्ध होगा। वे अब देह-रूप में हमारे बीच नहीं हैं। ऐसे में उनका साहित्य, विचारधन और पावन स्मृति ही हमारी धरोहर होगी। उनका सारा जीवन भारत के लिए समर्पित था। सारे सपने, सारे अपने, सारी सांसें, सारी प्रतिभा, सारा पुरुषार्थ और सारी तपस्या भारत माता की जय के लिए थी।

भारत माता की जय के मायने

अपनी पुस्तक 'मां के चरणों मेंÓ वे लिखते हैं 'हम भारतीयों की माँ भारत है। वह हमारे लिए पुण्यभूमि है, मंगल करने वाली है। माँ को संसार में प्रथम स्थान उपलब्ध करा देने का जन्मसिद्ध दायित्व हमारा है। किन्तु वह मातृभूमि के आत्मा रूप धर्म को भुलाकर नहीं होना चाहिए। यह धर्म केवल वैयक्तिक नहीं है। वह सारे समाज का है। उसे सुरक्षित रखना, विकसित करना तथा उसके द्वारा जनता की विशिष्ट शक्ति का निर्माण करना अनिवार्य है। उसके लिए अवयव रूप व्यक्तियों की उन्नति अपेक्षित है। वह उन्नति संगठन के योग्य गुणों के विकास के द्वारा होनी चाहिए। देशभर के व्यक्तियों में आदर्श की निष्ठा, स्नेह, पौरुष, सुशीलता, विवेकशील ज्ञान, बल इत्यादि आध्यात्मिक और मानसिक गुण विकसित होने चाहिए। इसके अतिरिक्त अथ से इति तक ईश्वर की कृपा भी चाहिए। ऐसे व्यक्तियों के द्वारा विकसित, संगठित सामाजिक शक्ति राष्ट्र को उसकी आत्मसत्ता रूप धर्म से विचलित किये बिना सर्वांगीण प्रगति के ऊँचे क्षेत्र में पहुँचा देगी। इस प्रकार यह हिन्दु राष्ट्र, जो कभी जगद्गुरु था, फिर एक बार वह पद प्राप्त करेगा। उस दिन 'भारत माता की जयÓ का उद्घोष सार्थक होगा । ऐसे महान विचारक रंगा हरि जी हमारे बीच नहीं रहे। लेकिन उनके विचार संघ के स्वयंसेवकों के लिए ही नहीं संपूर्ण समाज के लिए प्रेरणा के स्रोत बने रहेंगे। उन्हें सादर श्रद्धांजलि ।

( लेखक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ मध्यक्षेत्र के सह कार्यवाह एवं सामाजिक कार्यकर्ता हैं)

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