चर्चा सत्रों में फिसलन : केसू फूले दिवस चारी, खंखर भये पलास
एक समानधर्मा मित्र प्रवर ने बातों-ही-बातों में एक रोचक प्रसंग मनोयोगपूर्वक उपस्थित किया, जिससे मानविकी एवं समाजविज्ञान (विभागों) की पगडण्डियाँ और चर्चा-सत्रों की फिसलनभरी कहानियों को जानने-समझने में सुविधा हो सकती है। 'अथ योगानुशासनम्Ó का अनुसरण करते हुए कहा- 'एक समय ऐसा भी रहा कि जब अपने गुरुजी लोग (?) सभा-संगोष्ठियों में जाया करते थे, तो अपने दो-चार लठैत-सौष्ठव वाले शोधकों को साथ लिये सभागार में दाखिल होते थे। सभा-संगोष्ठियों में जब गुरुजी बोलते होते थे, और बीच ही में अथवा बाद में, कोई अध्ययनशील श्रोता जिज्ञासावश प्रश्न वा किसी कथन की आलोचना वा कोई कटाक्ष ही करने उठ खड़ा होता, तो लठैत-रूपी शोधक उस जिज्ञासु श्रोता की ओर दौड़ पड़ते और उसके पास पहुँच कर, उसे हठात् पकड़ कर बिठा (चुप करा) देते। मानो कह रह हो कि 'एकदम चुप्प! कुछ बोलने का नहीं। केवल सुनने का। समझे?Ó
मित्र प्रवर कहते रहे- 'गुरुजी का सभा-संगोष्ठियों के अखाड़ों में बड़ा दबदबा था। और, वे सभा-संगोष्ठियों में प्राय: आमन्त्रित रहते ही थे।Ó माने- महादेव पर चढ़ने वाला फूल चूक सकता था, किन्तु सभा-संगोष्ठियों में उन्हें आमन्त्रण कदापि नहीं चूकता। इधर, दूरदर्शन पर- 'मुझे आमन्त्रण मिला।Ó और, 'मुझे आमन्त्रण नहीं मिला।Ó की जो रट सुनायी दे रही है, उस रटन्त से इस आमन्त्रण की क्रिया-प्रक्रिया का कोई सम्बन्ध नहीं है। चाहे जो हो जाये, सत्य यही था कि गुरुजी बुलाये जाते रहे। और, गुरुजी भी जाते ही रहे। वैसे, सत्य तो यह भी है न कि गुरुजी ने सभा-संगोष्ठियों में केवल लठैत छोड़े थे। गोली थोड़ी ही छोड़ी या चलवायी थी कि उन्हें आमन्त्रित किये बिना ही छोड़ दिया जाता? वैसे, बात की बात है - क्या पता कल को गोली चलाने-चलवाने वाले भी आमन्त्रित हो जायें। अन्तत: सबको तुष्ट करके ही, 'सबका साथÓ मिले न मिले न मिले, अपनी उदारता का प्रदर्शन किया जा सकता है। फिर तो जी, गुरुजी के आमन्त्रण का मामला ही कहाँ शेष रह जाता है? वे तो आमन्त्रित होते ही रहे थे। और, वे सभा-संगोष्ठियों में अपने प्रियजन के साथ जाते ही रहे थे।
अस्तु, यह सभा-संगोष्ठियों के सम्बन्ध में मित्र प्रवर द्वारा उपस्थित किया हुआ रोचक प्रसंग हुआ। वैसे, यहाँ इस पूर्ण प्रसंग में व्याप्त व्यंजना को ही ग्रहण किये जाने का करबद्ध निवेदन है। और, यदि किसी गुरुजी लोगन के सभा-संगोष्ठीवृत्त के साथ यह प्रसंग हू-ब-हू मेल खा जाये, तो इसे केवल संयोग ही समझा जाये। वैसे, विधि का ऐसा विधान कदाचित् ही होगा कि इतनी समानता किसी के कृत्य व वृत्त के साथ आवृत्त होकर 'भए परगट कृपाला दीनदयालाÓ के भाव के साथ प्रकट हो जाये। वैसे, आप सु-बुद्धि हैं। इसलिये सबकुछ आपके विवेक पर छोड़ कर आगे बढ़ना ही श्रेयस्कर होगा। वैसे, आप जानते हैं कि समानता की रट लगाने वाले इस संसार में समान हाव-भाव तथा क्रियाकलाप वाले लोग यत्र-तत्र (?) मिल ही जाते हैं। इस यत्र-तत्र वाले सत्य पक्ष को विस्मृत नहीं किया जा सकता। बहुत देर से जाना कि साहित्य की बात हो और तुलसी बाबा की एन्ट्री न हो, तो बात अधूरी-सी जान पड़ती है। किन्तु, यहाँ तुलसी बाबा को लादे न चलना ही श्रेयस्कर होगा। बाबा का क्या है न कि उन्होंने कोई प्रसंग छोड़ा ही नहीं है। कहा कि 'तुलसी देखि सुबेषु भूलहिं मूढ़ न चतुर नर। सुन्दर केकिहि पेखु वचन सुधा सम असन अहि।।Ó सुन्दर वेष देख कर मूढ़ तो मूढ़, चतुर मनुष्य भी धोखा खा जाते हैं। कहा कि मोर दिखने में तो सुन्दर-सुशोभित होते हैं। और, उनके वचनों से सुधा (अमृत) वर्षा होती है, किन्तु विषधर साँप उनका आहार होते हैं। यहाँ सुन्दर वेष, मोर और साँप के दृष्टान्त को साहित्यिक बाण-सौन्दर्य के साथ ही ग्रहण करने से साहित्य का श्रेष्ठतर पक्ष उजागृत हो सकेगा। 'साहित्यिक बाणÓ के स्थान पर 'साहित्यिक शूलÓ कहने से पीड़ा ही होगी। आप जानते हैं 'बाणÓ में जो ध्वनि और क्रियान्विति है, वह 'शूलÓ में कहाँ? यद्यपि 'बाणÓ और 'शूलÓ, दोनों त्रासदायक हैं, किन्तु बाण में संहार की श्रेष्ठतर स्थिति (?) व्याप्त है। वह शत्रु पर चलता है और लक्ष्य भेद कर अपनी श्रेष्ठता वर्धित व सुनिश्चित करता है। जबकि शूल शत्रु का संहार नहीं कर सकता। वह चुभता है और चुभ कर केवल त्रास ही दे सकता है। किन्तु, यह बात भी सत्य है कि साहित्यकार बाण तो बाण, शूल चुभा कर भी घायल कर देते हैं। साहित्यकार के शूल चुभावन कृत्य का उत्तर साहित्य की ही शरण में जाकर मिल सकता है। और, शरण और चरण साहित्य के अभिन्न अंग रहे हैं। आप सु-बुद्धि पाठक हैं।
इसके अतिरिक्त दूसरा अत्यन्त अनोखा प्रसंग है। साहित्य ही के सन्दर्भ में है। और तो और, छायावाद की सुकोमल व सूक्ष्म भावाभिव्यंजक काव्यधारा के सन्दर्भ में है। किन्तु, है सभा-संगोष्ठी ही का। तो, वह भी सुन ही लीजिये। गुरु लोगन की बात हो और शिष्य लोगन को छोड़ दें, तो कथा अधूरी रह जायेगी। तो संवाद अभी चल ही रहा था कि बीच ही में भारतमाता का एक मरियल-सा, पुत्र-सुपुत्र जो ही कहिये, या कहिये कि युवा, उठ खड़ा हुआ। उसकी आँखें भीतर तक धँसी हुयी थीं। उन धँसी आँखों में अग्नि-ज्वालाएँ धधक रही थीं। दाँत थोड़े उभरे हुए-से थे। नखों की ओर मेरा ध्यान नहीं जा पाया। मुखमुद्रा से दृष्टि हटाने से वह अत्यधिक क्रोधित हो सकता था। किन्तु, उस कृशकाय युवक को देख कर ऐसा प्रतीत होता था, मानो - यदि वह चाह जाये, पूरी शक्ति समेट कर, तो सबकुछ भस्म कर जायेगा। एक क्षण के लिए प्रतीत हुआ कि बीच बहस में ऋषि दुर्वासा का आगमन हो गया है। कहते हैं दुर्वासा की उपस्थिति ही से उनके श्रापोद्घोष का आभास-सा हो जाया करता था। सभागार में सभी भय और आश्चर्य से उपजी शान्ति में सराबोर थे। वैसे, ऐसे अवसरों पर दूसरा कोई विकल्प भी तो नहीं होता। या तो बोर होइये वा सराबोर। आँखें तरेर कर, हाथ भाँजते हुए, कृशकाय शरीर में शिथिल पड़ी वाणी को समेट कर भारतमाता का वह वीर युवक उद्दण्ड स्वर में बोला - 'छायावाद में एक ही कवयित्री को सम्मिलित किया गया है। उस पर भी बोलने के लिए गोष्ठी में पुरुष ही अधिक हैं। स्त्रियों का उचित अनुपात क्यों नहीं है? अन्य छायावादी कवयित्रियों की खोज क्यों नहीं की गयी?Ó मानो, कहना चाह रहा हो कि पुरुषवादी सत्ता ने स्त्री को... वही, जो प्राय: मानविकी एवं समाजविज्ञान के अध्ययनरत युवा रघुवीर सहाय की काव्याभिव्यक्ति में 'अगर कहीं मैं तोता होताÓ के भाव में 'पुनि पुनि कितनेहू सुने सुनाये। हिय की प्यास बुझत न बुझाये।Ó रटा हुआ वही-वही, अर्थात् 'पुरुषवादी सत्ता ने स्त्री को....Ó प्रसंगवश-अप्रसंगवश, न जाने किसी लादी हुई विवशता में रटे चले जाते हैं। वह युवा बोलता गया और मुझे भारतीय मानविकी एवं समाजविज्ञान विभागों में बारम्बार दोहराये जाने वाले कथनों- 'स्त्री पैदा नहीं होती, बनायी जाती है।' तथा 'औरत जन्म से ही औरत नहीं होती, बल्कि बढ़ कर औरत बनती है।Ó की अनुगूँज-सी सुनायी देती रही। वैसे, अब निर्णय करना कठिन है कि वह स्वानुभूति थी कि सहानुभूति! जो ही हो, उस युवक की वाणी में जितना उत्साह था, उतना ही बालोचित अबोध भी व्याप्त-व्यक्त था। इसलिये यह तर्क समीचीन है कि उच्च शिक्षा-शोध संस्थानों में पहुँच जाने से व्यक्ति 'बड़ाÓ हो ही जाता है, कहना पूर्णत: अतार्किक होगा, क्योंकि उच्च शिक्षा-शोध संस्थानों में पहुँच कर ही अधिकांश युवा असामाजिक (अ-राष्ट्रीय) प्रवाह में बहते जाते हैं। और, 'होता क्या? मैं तोता होता। तो तो तो तो ता ता ता ताÓ में ही रमण कर लदी हुई वैचारिकी मन-मस्तिष्क में ठूँस कर जुगाली करते स्वयं को धन्य मानते हैं। अस्तु, उस युवक का बालोचित अबोध हठात् हस्तक्षेप होते ही तत्क्षण प्रबल इच्छा हुई कि छायावाद के स्तम्भाधार प्रसाद को उद्धृत कर कहूँ- 'यह सारस्वत देश या कि फिर ध्वंस हुआ सा समझो, तुम हो अग्नि और यह सभी धुआँ सा?Ó
किन्तु, आश्चर्य देखिये कि आज के युवा की राजनीतिक चेतना कितनी समृद्ध हुई जाती है। वह कृशकाय युवक ऐसे बोल उठा, मानो नवीन संसद में खड़ा कोई बूड्ढ़ा-खूसट व मँझा हुआ सांसद बोल रहा हो। हम जानते हैं कि समाचारों का अपना प्रभाव होता है। समाचार लोगों के आचरण को प्रभावित करे न करे, विचार को अवश्य ही प्रभावित करता है। इसलिए क्या सुनना चाहिए और क्या नहीं सुनना चाहिए, किसको सुनना चाहिए और किसे नहीं सुनना चाहिए- इत्यादि का ध्यान रखा जाना चाहिए। महिला आरक्षण बिल अर्थात् नारी शक्ति वन्दन अधिनियम संसद में पारित होते ही देश भर में प्रत्येक स्तर पर भिन्न-भिन्न प्रतिक्रियाएँ देखने को मिली थीं। उच्च शिक्षा-शोध संस्थान में शिक्षारत उस युवा पर किसी-न-किसी दूरदर्शनी-यूट्यूबिया बहस का प्रभाव रहा होगा। अत: वह 'छायावाद में राष्ट्रीय भावनाÓ के प्रवाह को बाधित करता हुआ, स्त्री-पुरुष के अनुपात पर जाकर टिक गया। शेष, जो सुना- 'निल बट्टे सन्नाटा।Ó उच्च शिक्षा-शोध संस्थान पहले ही से राजनीतिक चेतना का गढ़ बने हुए हैं। ऐसी राजनीतिक चेतना, उसे राष्ट्रीय का तो पता नहीं, किन्तु अ-राष्ट्रीय बनाने में पूर्ण सहयोग करती दिखायी दे जाती है। युवा बात तो करते हैं सामाजिक चेतना इत्यादि की, किन्तु यह बात और है कि बात तो सामाजिक चेतना के विकास की ही होती है, किन्तु उसी की ओट लिये राजनीतिक उठापटक वहीं से आरम्भ होती है। युवा, विशेषकर मानविकी एवं समाजविज्ञानी, डफली बजाते हुए क्रान्ति की मशाल जलाये रखने का आवाहन-उपक्रम करते हैं। अत: वह युवा भी उसी प्रवाह का अनुसारक बन कर, न जाने किस प्रभाव में, छायावाद पर अनुपाती-आरक्षण भाव लादने के लिए प्रेरित हो उठा था। वैसे, आप जान रहे हैं, मानविकी एवं समाजविज्ञानी विभागों का क्या है, उन्हें अपने अखाड़ों में उठापटक के लिए विषयों की खोज होती है। क्या पता, कल महादेवी वर्मा ही अनुपाती-आरक्षण का आधार बन कर उभरे! वैसे, इधर कोई भी अनुमान प्राय: असम्भव है। पहले कहते थे न कि लड़के को लड़का नहीं बनाया जा सकता। अब, वह भी सम्भव हो ही गया है। माने- 'लाइक बिकम लाइकÓ सम्भव हो गया है। विज्ञान का अपना कमाल है। मानविकी व समाजविज्ञान विभाग भी कमाल की अगोचर सम्भावनाओं से लैस हैं। माने - कुछ भी सम्भव है। आप सोचिये कि आपको सभा-संगोष्ठी आयोजित करनी हो और आपके मन-मस्तिष्क पर राजनीतिक हथकण्डा हावी हो जाये, तो क्या होगा? अरे! होना क्या है? होगा वही जो दूरदर्शन वा यूट्यूब पर 'तो तो तो तो ता ता ता ताÓ की रटन्त परोसी जा रही है। माने किसी भी सभा-संगोष्ठी में अपुपाती-आरक्षण का पूरा खाका लागू करना होगा। माने- विषय पर विचार-मन्थन करके क्या पाइयेगा? राजनीति के साथ 'क़दम मिला कर चलना होगा।Ó आपको दलित-शोषित-वंचित, आदिवासी, स्त्री, हिजड़ा, अल्पसंख्यक आदि-अनादि भेदों का ध्यान करके ही वक्ता आमन्त्रित करने होंगे और 'जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारीÓ सुनिश्चित करनी होगी। (क्रमश:)
(लेखक अखिल भारतीय राष्ट्रवादी लेखक संघ के संस्थापक हैं)