ताकि दिल्ली की राह फिर यूपी से ही निकले
लोकतंत्र में जनता सबसे ज्यादा उसे पसंद करती है, जिसकी नीतियों और लोककल्याणकारी योजनाओं को वह अपने लिए सबसे ज्यादा मुफीद पाती है। लेकिन यह सिर्फ एक पक्ष है। लोकतंत्र में जीत और हार के कई और भी कारण होते हैं। इसीलिए आज सत्ता के चयन के लिए होने वाली लोकतांत्रिक प्रक्रिया यानी चुनावों को आज युद्ध का दर्जा हासिल हो चुका है। युद्ध के लिए जिस तरह सैनिकों के मनोबल की जरूरत होती है, अच्छी रणनीति चाहिए होती है, कुछ इसी अंदाज में आज राजनीतिक दल अपने कार्यकर्ताओं का मनोबल बनाए रखने की कोशिश करते हैं और अपनी रणनीति बनाने में मशगूल रहते हैं। चुनावों में चूंकि संगठन की बड़ी भूमिका होती है, इसलिए हर दल चाहता है कि उसका जमीनी स्तर तक संगठन मजबूत रहे। उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी ने जिस तरह कुछ दिन पहले ही अपने करीब 71 प्रतिशत जिलाध्यक्षों को बदलकर एक तरह से संगठन को जहां चाकचौबंद करने का प्रयास किया है, वहीं मतदाताओं को यह संदेश देने की भी कोशिश की है कि उनकी आकांक्षाओं का राजनीतिक तौर पर ध्यान रखा जाएगा।
भारतीय जनता पार्टी के मुख्यमंत्रियों में शिवराज सिंह चौहान के बाद योगी आदित्य नाथ दूसरे मुख्यमंत्री हैं, जिन्हें दूसरा कार्यकाल मिला है। फिर शासन का योगी मॉडल भी भाजपा शासित राज्यों में लगातार लोकप्रिय होता गया है। इसलिए योगी के सामने चुनौती है कि उत्तर प्रदेश में लोकसभा चुनावों में अपनी कामयाबी दिखाएं। इस लिहाज से कह सकते हैं कि लोकसभा चुनाव उनके नेतृत्व की भी परीक्षा है। शायद यही वजह है कि जिलाध्यक्षों को बदलने के लिए यह कवायद की गई।
उत्तर प्रदेश के बारे में कहा जाता है कि दिल्ली की राह इसी राज्य से होकर जाती है। सिर्फ नरसिंह राव का कार्यकाल ऐसा रहा, जिसे इस कहावत के हिसाब से अपवाद कहा जा सकता है। उत्तर प्रदेश से सबसे ज्यादा यानी अस्सी सीटें आती हैं। सहयोगी दलों के साथ भारतीय जनता पार्टी के पास पिछले चुनाव में भाजपा को जहां 62 सीटें मिलीं, वहीं उसके सहयोगी अपना दल को दो सीटें मिलीं। हालांकि इसके पहले के चुनाव में भाजपा को राज्य की 73 सीटें मिली थीं। उसके पहले राज्य में भारतीय जनता पार्टी की जो स्थिति थी, उसे बेहतर भी नहीं कहा जा सकता। लेकिन संगठन और रणनीति के दम पर भारतीय जनता पार्टी ने उत्तर प्रदेश की धरती पर कमाल किया और तीस सालों के अंतराल के बाद अपने दम पर पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने में कामयाब रही। भारतीय जनता पार्टी शायद ऐसा ही कमाल साल 2024 के आम चुनावों में दिखाना चाहती है। जिलाध्यक्षों के बदलाव को भाजपा की इसी कोशिश के तौर पर देखा जाना चाहिए।
उत्तर प्रदेश में 98 संगठनात्मक जिले हैं, जिनमें से 29 जिलों के पुराने अध्यक्षों पर ही भरोसा किया है, जिनमें प्रधानमंत्री मोदी का संसदीय क्षेत्र वाराणसी, मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का गृह जनपद गोरखपुर और बीजेपी के राजनीतिक सफर का शक्तिपुंज अयोध्या जनपद प्रमुख हैं। आगरा और बरेली में भी पार्टी ने पुराने चेहरों पर ही भरोसा जताया है। पार्टी ने इसके साथ ही वाराणसी और गोरखपुर जिलों के जिलाध्यक्षों के साथ ही महानगर अध्यक्षों को भी बनाए रखा है। माना जा रहा है कि जिन 29 जिलाध्यक्षों पर भरोसा बनाए रखने की वजह है, वहां हुए पंचायत और नगर निगम चुनावों में पार्टी का बेहतरीन प्रदर्शन। एक तरह से कह सकते हैं कि इन जिलाध्यक्षों पर भरोसा जताकर पार्टी ने माना है कि इनकी ही अगुआई में पार्टी को अगले लोकसभा चुनाव में फिर से अपना दमखम दिखाने में मदद मिलेगी।
भारतीय जनता पार्टी ने पूरे राज्य को संगठन के लिहाज से छह क्षेत्रों में बांट रखा है। इनमें पार्टी ने सबसे ज्यादा पश्चिमी क्षेत्र से 17 जिलाध्यक्षों को बदला है। वहीं कानपुर क्षेत्र में 13 जिलों को नए अगुआ दिए गए हैं। इसी तरह ब्रज, काशी और अवध क्षेत्र के दस-दस जिलों के अध्यक्ष बदल दिए गए हैं। इस तरह गोरखपुर क्षेत्र में 09 जिलाध्यक्ष बदले गए हैं। पार्टी ने सबसे ज्यादा बदलाव पश्चिमी क्षेत्र में किया है। इस इलाके में 19 जिला इकाइयाँ हैं, जिनमें से 17 के अध्यक्ष बदल दिए गए हैं। इस इलाके में हालांकि गाज़ियाबाद महानगर व सहारनपुर जिलों के अध्यक्षों को नहीं बदला गया है। जाटलैंड के रूप में विख्यात इस इलाके में राज्य की 14 लोक सभा सीटें आती हैं। पिछले कुछ चुनावों से जाट लैंड को लेकर भाजपा चिंतित है। इसकी वजह यह है कि भारतीय राष्ट्रीय लोकदल के जयंत चौधरी का समाजवादी पार्टी के साथ समझौता है। पश्चिमी क्षेत्र में पिछली बार बहुजन समाज पार्टी भी सेंध लगाने में कामयाब रही थी। इस बार भारतीय जनता पार्टी नहीं चाहती कि किसी भी तरह का खामियाजा उसे उठाना पड़े।
नए बने जिला अध्यक्षों में तकरीबन आधे जिला अध्यक्ष ऐसे रहे, जो पहले से ही संगठन में काम कर रहे थे। कोई जिले में महामंत्री था, कोई जिला उपाध्यक्ष था, तो कोई जिले में ही मंत्री था। कार्यकर्ता पहले की नीति की वजह 2024 का लोकसभा चुनाव है। जिसमें करीब सात महीने का ही वक्त बचा है। ऐसे में पार्टी के कई अभियान हाल ही में संपन्न हुए हैं, कुछ चल रहे हैं और तमाम नए अभियान आने वाले दिनों में शुरू होने वाले हैं। इसमें सबसे पहले प्रधानमंत्री मोदी के जन्मदिन पर जारी सेवा पखवाड़ा भी शामिल है। माना जा रहा है कि अगर पार्टी अपने कार्यकर्ताओं और पहले से संगठन में काम नहीं कर रहे लोगों पर भरोसा जताती तो उसके लिए कई चुनौतियां खड़ी हो सकती थी। सबसे बड़ा सवाल यह है कि अगर किसी नए व्यक्ति को कमान दी जाती तो उसे अपने संगठन और उसकी चुनौतियों को समझने में दिक्कत होती। जिसका खामियाजा उसे भुगतना पड़ सकता था।
पार्टी ने इस बदलाव में जातीय संतुलन साधने की भी भरपूर कोशिश की है। पार्टी ने सबसे ज्यादा भरोसा अन्य पिछड़ा वर्ग पर जताया है। राज्य में करीब 52 प्रतिशत आबादी इसी वर्ग से आती है। साल 2014 के लोकसभा चुनावों के बाद हुए हर चुनाव में भाजपा पर इस वर्ग ने भरोसा जताया है। शायद यही वजह है कि इस बार के बदलाव में पिछड़े वर्ग के बहुत लोगों पर भरोसा जताया गया है। बदले गए जिलाध्यक्षों में तीस इसी वर्ग से आते हैं। आमतौर पर जिलास्तरीय सांगठनिक फेरबदल में महिलाओं पर कम ही भरोसा जताया जाता है। इस बार भी पार्टी ने सिर्फ चार महिलाओं पर ही भरोसा जताया है। हाल के दिनों में ब्राह्मण मतदाताओं के एक वर्ग में पार्टी को लेकर मायूसी देखी गई। शायद यही वजह है कि इस बदलाव में बीस ब्राह्मणों को भी जगह दी गई है। पार्टी ने बलिया से जहां पूर्व विधायक संजय यादव पर भरोसा जताया है तो वाराणसी से पूर्व विधानपरिषद सदस्य हंसराज वर्मा को ही कमान दी गई है। पार्टी के जिलाध्यक्षों की सूची में 21 जहां ठाकुर यानी क्षत्रिय बिरादरी के हैं, वहीं पांच दलित वर्ग से आते हैं। पार्टी के कोर वोटर वर्ग में सम्मिलित भूमिहार वर्ग के तीन और कायस्थ वर्ग के पांच लोगों को मौका दिया गया है। इसी तरह वैश्य समुदाय के दस लोगों को जिलाध्यक्ष की कुर्सी दी गई है।
साफ है कि मुख्यमंत्री आदित्यनाथ की अगुआई में पार्टी ने अपनी तरह से सांगठनिक सेना सजाने की कोशिश की है। जिसका मकसद लोकसभा चुनावों में पार्टी के लिए दिल्ली की राह आसान करना है।
(लेखक प्रसार भारती के सलाहकार हैं)