सशक्त राष्ट्र निर्माण और विद्यार्थी परिषद

सशक्त राष्ट्र निर्माण और विद्यार्थी परिषद
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प्रो. सतीश कुमार

दुनिया के कई देशों में छात्र शक्ति का योगदान राष्ट्र निर्माण में होता है। यूरोप और अमेरिका में भी विश्वविद्यालय में छात्र अपनी बातों और आंदोलन से देश की राजनीति को प्रभावित करते हैं। भारत में भी छात्र शक्ति को लेकर देश के राष्ट्र निर्माताओं में मतभेद था। गाँधी जी भारत छोड़ो आंदोलन के तहत बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के छात्रों को आंदोलन में कूदने की आहुति मांग रहे थे, वहीं महामना मदन मोहन मालवीय छात्रों को लेकर ज्यादा संवेदनशील थे और उनकी धारणा थी कि उन्हें आंदोलन में नहीं घसीटना चाहिए, इसका नुकसान ज्यादा और फायदे कम होंगे। चुंकि आजादी कांग्रेस पार्टी के तहत मिली थी इसलिए कांग्रेस पार्टी के छात्र नेता ही दिखते रहे। विधिवत कांग्रेस की स्टूडेंट्स विंग एन. एस .यू .आई की स्थापना 1971 में हुई थी उससे बहुत पहले विद्यार्थी परिषद् का जन्म हो चुका था। लेकिन राष्ट्र पिता की दुर्भाग्यपूर्ण हत्या और राजनीतिक व्यवस्था ने विद्यार्थी परिषद् के विकास में बाधक बना रहा। जेपी आंदोलन ने छात्र शक्ति की परीक्षा ली और देश के लिए विद्यार्थी परिषद् का संघर्ष दुनिया के सामने एक मानक बन गया। उसके उपरांत विद्यार्थी परिषद् की पहचान भारत के विश्वविद्यालय में बननी शुरू हो गयी। देश के सामने उसके बाद भी कई चुनौतियां थी। कश्मीर में आतंकवाद, उत्तर पूर्व के राज्यों में अलगाववाद और देश की पश्चिमी सोच एक चुनौती थी।

सरस्वती के मंदिर में विद्या की ही पूजा होनी चाहिए। मंदिर में विद्या के साथ राष्ट्र की पहचान भी होनी चाहिए। दुनिया के नामी- गिरामी शिक्षण संस्थाओं ने सॉफ्ट पॉवर इमेज बनाने का काम किया। भारत में नालंदा और तक्षशिला बेहतरीन नमूने थे। उसके जरिये भारत की सांस्कृतिक अस्मिता की पहचान स्थापित होनी चाहिए थी। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। भारत को राष्ट्र-राज्य की श्रेणी में रखकर यह स्थापित करने की कोशिश होने लगी की इसका जन्म 1947 को ही हुआ है। हज़ारों वर्षों की पहचान को किवदंती और कहानी बना दी गयी। कैंपस में अक्सर बहस नक्सलवाद अलगाववाद और पृथकतावाद की होती है जिसमें कश्मीर और नार्थईस्ट को भारत से अलग करने की पुष्टि की जाती है। आजादी और निष्कंटक व्यक्तिवाद के नाम पर ऐसा हुजूम बनने की कवायद की जाती है जो राष्ट्र भक्ति से दूर हो। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को जहर की पुड़िया बना दिया गया। हॉस्टलों में खाने को लेकर लोगों के मत बदले जाते हंै। पूर्णिमा और महाशिवरात्रि के दिन भी मांस खा सकते हो। इन छोटी-छोटी बातों से धीरे-धीरे सैकड़ों विद्यार्थी जो धर्म से जुड़े थे अन्य वामपंथियों के बहाव में आकर हिन्दू धर्म से विक्षुब्ध होने लगते हंै। सच्चे अर्थो में वामपंथी न केवल राष्ट्रवाद को कमजोर करते हंै बल्कि भारतीय परंपरा को भी तहस-नहस करते। पिछले 6 दशकों में जेएनयू में यही सब हुआ। अलगाववादियों को पनाह दी गयी। व्यक्ति को समाज और राष्ट्र से ऊपर माना गया।

कैंपस में पश्चिमी पूंजीवाद की शुरुआत हो गयी। व्यक्ति को प्रमुख मानने की भूल की गयी। राष्ट्र और समुदाय गौण हो गया। अर्थात ब्यक्ति ही केंद्र में है। शेष सब उसके लिए बनाया गया है। कुंठित सोंच ने जाति, धर्म और क्षेत्र में बांटने की कवायद शुरू कर दी। इतनी बर्बादी के बाद जब विद्यार्थी परिषद् की जड़े मजबूत होने लगी तो विदेशी सोच और चिंतन को चुनौती मिलने लगी। परिषद समर्थक को लूम्पेन और समाज विरोधी बताया जाने लगा। उनकी सोंच को कम्युनल और विकाश विरोधी घोषित किया जाने लगा। लेकिन सच का आना भी उतना ही सच होता है। वह होते हुए दिखने लगा।

पाठ्यक्रम में इन महत्वपूर्ण समस्याओं की पढ़ाई इस तरह से की जाती है कि भारत एक ऐसा देश है जहाँ पर अल्प संख्यकों के साथ अत्याचार होता है। भारतीय सेना और अर्ध-सैनिक बल राष्ट्र की सुरक्षा नहीं बल्कि अपने ही लोगों पर अत्याचार करने के लिए उन्हें तैनात किया गया है। बुद्धिजीवियों के इन प्रयासों को देखते हुए ही प्रसिद्ध चिंतक और दार्शनिक 'रूसो' ने कहा था कि समाज को विघटित करने का काम और कोई नहीं बल्कि बुद्धिजीवियों ने ही किया है। समझौता मौखिक था। वामपंथियों को विश्वविद्यालय परिसर दिया गया और कांग्रेस को संसद। शिक्षामंत्री नरूल हसन ने जेएनयू के भीतर ऐसे संकायों और शिक्षकों को विभिन्न कोने से बटोरने का काम किया जिसके तीन महत्वपूर्ण आयाम थे। पहला धर्म निरपेक्षता को इस तरह से परिमार्जित किया जाने लगा कि अपने रीति रिवाजों का पालन करने वाला दकियानूसी और प्रगति विरोधी है। समय की मांग है कि धर्म एक रुकावट है, बंधक है। यह व्यवस्था महज हिंदू धर्म के साथ की गई। मुसलमानों को नमाज पढ़ने या धर्म पालन को नजरअंदाज किया गया। दूसरा विश्लेषण यह माना गया कि भारत एक राष्ट्र के रूप में 1947 में आया। इसके पहले इसका कोई अस्तित्व नहीं था। भारत खण्डों में था। यहां कोई एक भाषा या संस्कृति कभी रही ही नहीं। तीसरा जितने भी प्रगतिशील लेखक या लेखिका थी उन्होंने भारत की भर्त्सना के अलावा और कुछ नहीं किया।

आज भी परिषद का काम पूरा नहीं हुआ है। देश के भीतर कुछ राज्यों में भारत विरोधी गतिविधियाँ सक्रिय है। जिसमें केरल एक है। उत्तर पूर्वी राज्यों में जुड़ाव की भीत को और मजबूत करना है। भूमंडलीकरण की वजह राष्ट्र की भाषा के साथ सौतेला व्यवहार होता है, जिसके भुक्तभोगी करोड़ों भारतीय बनते हैं। जाति प्रथा और सामाजिक कुसंस्कारों में भी बदलाव की जरुरत है जिसमें छात्र शक्ति को अहम् भूमिका निभानी होगी।

(लेखक इग्नू नई दिल्ली में प्राध्यापक हैं)

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