स्वयं को बदलने में जीवन की सफलता
स्वयं को बदलो, क्योंकि स्वयं को बदलने से कुछ बात बनेगी। परिस्थितियां सुधरेंगी। जटिल समस्या का समाधान होगा। सुख-शांति, आनंद, खुशी का वातावरण विनिर्मित होगा। इसलिए स्वयं को बदलना बहुत जरूरी है। युगद्रष्टा महानायक पं. श्रीराम शर्मा आचार्य ने कहा-हम बदलेंगे, युग बदलेगा। हम सुधरेंगे, युग सुधरेगा। लेकिन व्यक्ति सदा दूसरों को बदलने को कहता है, दूसरों को सुधरने को कहता है। किंतु वह स्वयं को बदलना स्वीकार नहीं करता। किसी को आदेश देना, कहना आसान है कि तुम सही बनो, आचरण ठीक करो, झुठ मत बोलो, सदा सत्य बोलो। व्यक्ति यह कहते-बोलते, सुनते हैं। लेकिन यह कहने व सुनने से सुधार की कल्पना क्या संभव होगी? जितना व्यक्ति कहना आसान समझता है, उतना करना आसान नहीं है। अगर उतना आसान होता तो सभी सुधर जाते, सभी बदल जाते और स्वर्ग कहीं ऊपर नहीं, धरती पर बन जाता। मानव में देवत्व और धरती पर स्वर्ग अवतरण की बात कही जाती है, लेकिन यह संभव व मुमकिन तभी है, जब व्यक्ति स्वयं बदले, स्वयं सुधरे। प्रथम शुुुरूआत सुधरने व बदलने की स्वयं से करे। इसके लिए दृढ़ संकल्पित हो तो उसका प्रभाव स्वयं में प्रखर व प्रकाशित होगा। तब उस प्रकाश की किरण सर्वत्र फैलेगी। सर्वत्र उजाला फैलेगा। अंधियारा दूर अवश्य होगा।
लेकिन व्यक्ति कहता कुछ और करता कुछ । मनुष्य की दोहरी नीति है। इस दोहरी नीति वाले व्यक्ति जीवन में कभी सफल नहीं होते। उनसे कोई आशा, अपेक्षा नहीं की जा सकती। वे कभी बदल नहीं सकते, कभी सुधर नहीं सकते। स्वयं को बदलने हेतु व्यक्ति को सर्वप्रथम स्वयं से लड़ना पड़ेगा। स्वयं के दुर्गुणों व बुराइयों से। लोभ, लालसा, कामना, वासना, क्रोध, ईर्ष्या, द्वेष, दुर्भावना, दुर्विचार, अहंकार रूपी दुश्मन अंदर भरे हैं। ये दुश्मन मनुष्य को आगे नहीं बढ़ने देते। व्यक्ति को आगे बढ़ने हेतु स्वयं को बदलने हेतु, स्वयं को सुधारने हेतु इन दुश्मनों से लड़ना पड़ेगा।
जब मन अनियंत्रित, बेकाबू होता है तो जीवन अशांत, उद्विग्न, असहाय, लक्ष्यविहीन, दिशाहीन बना रहता है। मन सदा लोभ, लालसा, वासना, कामना, अहंकार के वशीभूत होकर लक्ष्यविहिन, जीवन के उदे्दष्य से विचलित रहता है। जो स्वयं के मन को जीत लेता है, वह सब जीत लेता है। मन के जीते जीत है और मन के हारे हार। हार जीत के लिए ही युद्ध सृष्टि में चलता है। देवत्व की जीत होती है तो सुख, शांति, आनंद की वृद्धि व धर्म, सत्य, नीति की स्थापना होती है और असुरत्व की जीत होती है तो काम, क्रोध, ईर्ष्या, द्वेष, अहंकार, घृणा की प्रबलता बढ़ती है। सर्वत्र दुख, अशांति, बेईमानी, शैतानी, अत्याचार की वृद्धि व विनाश की लीला दृष्टिगोचर होती है। अंतत: देवत्व की जीत होती है। सभी को सुख, शांति प्रिय है। सुख, शांति की वृद्धि हेतु योग, संयम की डगर पर चलें। भोगों से रिश्ता, नाता तोडें़। यह भोग वृत्ति पतन, दु:ख विनाश की जड़ है। इसे परित्याग करके संयम की राह चलकर बदलाव की संभावना, आशा व उम्मीद पूरी होगी। दुनियां में कोई भी कार्य असंभव, कठिन नहीं। हर कार्य मुश्किल है और आसान भी। करने वाले के लिए सब आसान और नहीं करने वाले के लिए सब मुश्किल व कठिन। अगर व्यक्ति दृढ प्रतिज्ञ बने, मन-आत्मा से संकल्पित हो तो स्वयं को बदलना, स्वयं को सुधारना जरूर संभव होगा। स्वयं को बदलने में जीवन की सफलता है।