कामयाब हुए फौलादी इरादे

कामयाब हुए फौलादी इरादे
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अशोक मधुप

दुनिया भर की दुआंए काम आ गईं। फौलादी इंसानी इरादों के आगे आखिर चट्टान हार गई। उत्तराखंड के उत्तरकाशी की सिल्क्यारा सुरंग में फंसे 41 श्रमिकों को आखिरकार 17 वें दिन बाहर निकाल लिया गया। उन्हें मेडिकल जांच के लिए अस्पताल ले जाया गया। खुद उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी और केंद्रीय मंत्री जनरल वीके सिंह दोनों लगातार सुरंग के पास डटे रहे। पीएमओ के प्रधान सचिव पीके मिश्र भी मौके पर मौजूद रहे। सबसे पहले पांच श्रमिकों को बाहर निकाला गया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पूरे घटनाक्रम पर नजर रखे थे। उन्होंने एक श्रमिक से खुद बात की। ये ऑपरेशन प्रदेश और केंद्र सरकार के संयुक्त प्रयास से कामयाब हुआ। सरकार की 17 एजेंसी के अलावा विदेशी विशेषज्ञ भी इसमें लगे रहे। इस अभियन में सभी सुरक्षा एजेंसी की एकजुटता भी सामने आई।

उत्तरकाशी की सिल्क्यारा सुरंग घटना के बाद से मीडिया में आ रहा है कि हिमालय में सुंरग नहीं बननी चाहिए। इससे पहाड़ दरक रहे हैं। बड़े हादसे हो सकते हैं। जबकि विकास कार्य करते इस तरह का हादसा होता है। ऐसी बात होती हैं। ये भारत में नहीं पूरी दुनिया में होता है। हादसे होते हैं। होते रहेंगे किंतु इससे विकास का पहिंया तो नहीं रोका जा सकता। सड़कें बनाना तो नहीं रूक सकता। ये सड़क चारधाम यात्रा को सुगम बनाने के साथ देश को सीमा से जोड़ने के लिए बनाई जा रही है। बार्डर तक सेना और उसके भारी उपकरणों की सरल आवाजाही के लिए बनाई जा रही है। ये तो देश की बड़ी जरूरत है।

पहाड़ों पर जब भी विकास होता है तभी कुछ अपने को विशेषज्ञ मानने वाले और पर्यावरणविद शोर मचाने लगतें हैं। इनका यही कहना रहता है कि इससे पहाड़ दरकेंगे। वहां का पर्यावरण संतुलन बिगड़ेगा। टिहरी डैम बनते भी ऐसा ही हुआ था। उसके विरोध में लंबा आंदोलन चला था। इस परियोजना के विरोध में तो पर्यावरणविद सुंदरलाल बहुगुणा ने तो 1995 में 45 दिन तक उपवास किया। इन सबके बावजूद टिहरी डैम बन गया। केदारनाथ आपदा के समय पहाड़ों से आए भारी जल को इसी डैम में लिया गया। इसी के कारण प्लेन में होने वाली भारी आपदा टल गई। अगर पानी टिहरी डैम में न लिया जाता तो नीचे प्लेन में भारी तबाही का सामना करना पड़ता।

पहाड़ों में विकास कार्य के दौरान ही हादसे नहीं होते। हादसे सभी जगह होतें हैं। कहीं बनते पुल गिर जाते हैं तो कही कार्य में लगी विशाल क्रेन श्रमिकों पर आ गिरती है। अभी 23 अगस्त को मिजोरम के सैरांग इलाके के पास एक निर्माणाधीन रेलवे पुल गिरने से 17 मजदूरों की मौत हो गई। 18 मई 2018 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के निर्वाचन क्षेत्र वाराणसी में वाराणसी कैंट से लहरतारा के बीच बन रहे पुल के गिरने से18 श्रमिक मरे। 31 मार्च 2016 को कोलकत्ता का विवेकानन्द फ्लाईओवर गिरने से क्रॉसिंग से गुजर रहे 50 से ज्यादा लोगों की मौत हो गई, जबकि 90 से ज्यादा लोग घायल हो गए थे।

हादसे होते हैं। होते रहेंगे। इनकी वजह से विकास कार्य नही रोके जा सकते। हादसे होने का कारण श्रमिकों और यात्रियों की सुरक्षा में बरती गई लापरवाही होता है। इसमें भी ऐसा ही हुआ। सुरक्षा मानकों के परीक्षण के लिए बनी एजेंसी सही से जांच और कार्य नहीं करतीं। इन्हीं के कारण हादसे जन्म लेते हैं। इस हादसे में भी ऐसा ही हुआ। बताया जाता है कि इस सुरंग के बराबर में एक और सुरंग बननी थी। दोनों सुरंगों को बीच- बीच में आपस में जोड़ा जाना था। सुरंग निर्माता कंपनी और निर्माण के मानकों की जांच में लगी एजेंसियों के अधिकारियों की जिम्मेदारी होनी चाहिए। उनके विरूद्ध कठोर कार्रवाईर् हो।

एक बात और इस बचाव में रैट-होल खनिकों का भी बड़ा योगदान रहा। जबकि राष्ट्रीय हरित अधिकरण (एनडीएमए)ने रैट-होल खनन पर रोक लगाई हुई है। अच्छा यह है कि रोक के बावजूद देश की पुरानी परंपरागत ये तकनीक अभी जिंदा है। राष्ट्रीय हरित अधिकरण के रोक के बावजूद इस तकनीक को जिंदा रखने के प्रयास होने चाहिए। इस हादसे में फंसे श्रमिकों के बचाव से भारत की शाख दुनिया में बढ़ी है। पूरी दुनिया के चैनल और मीडिया इस बचाव कार्य को कवर कर रहे थे। इन सबने इस बचाव में भारत की बचाव एजेंसियों की एकजुटता देखी और प्रशंसा की।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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