भारत में राष्ट्रत्व के महान उन्नायक स्वामी रामतीर्थ

भारत में राष्ट्रत्व के महान उन्नायक स्वामी रामतीर्थ
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डॉ. आनंद सिंह राणा

ब्रह्मर्षि स्वामी रामतीर्थ आदि शंकराचार्य के अद्वैतवाद के समर्थक थे, पर उसकी सिद्धि के लिये उन्होंने स्वानुभव को ही महत्वपूर्ण माना है। वे कहते हैं - हमें धर्म और दर्शनशास्त्र भौतिकविज्ञान की भाँति पढ़ना चाहिये। पाश्चात्य दर्शन केवल जाग्रतावस्था पर आधारित हैं, उनके द्वारा सत्य का दर्शन नहीं होता। यथार्थ तत्व वह है जो जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति के आधार में सत् चित् और आनन्द रूप से विद्यमान है। वही वास्तविक आत्मा है। उनकी दृष्टि में सारा संसार केवल एक आत्मा का खेल है। जिस शक्ति से हम बोलते हैं, उसी शक्ति से उदर में अन्न पचता है। उनमें कोई अन्तर नहीं। जो शक्ति एक शरीर में है, वही सब शरीरों में है। जो जंगम में है, वही स्थावर में है। सबका आधार है हमारी आत्मा वे विकासवाद के समर्थक थे। मनुष्य भिन्न-भिन्न श्रेणियों में है। कोई अपने परिवार के, कोई जाति के, कोई समाज के और कोई धर्म के घेरे से घिरा हुआ है। उसे घेरे के भीतर की वस्तु अनुकूल और घेरे से बाहर प्रतिकूल लगती है। यही संकीर्णता अनर्थों की जड़ है। प्रकृति में कोई वस्तु स्थिर नहीं। अपनी सहानुभति के घेरे भी फैलना चाहिये। सच्चा मनुष्य वह है, जो देशमय होने के साथ-साथ विश्वमय हो जाता है।

वे आनन्द को ही जीवन का लक्ष्य मानते हैं पर जन्म से मरण पर्यंन्त हम अपने आनन्द-केन्द्रों को बदलते रहते हैं। कभी किसी पदार्थ में सुख मानते हैं और कभी किसी व्यक्ति में। आनन्द का स्रोत हमारी आत्मा है। हम उसके लिए प्राणों का भी उत्सर्ग देते हैं।

जब से भारतवासियों ने अपने आत्मस्वरूप को भुलाकर हृदय से अपने आपको दास मानना प्रारम्भ किया हम पतनोन्मुख हुए। प्रवृत्ति अटल और शाश्वत है। स्मृति गौण है, उसे देशकालानुसार बदलना चाहिये। श्रम-विभाजन के आधार पर वर्ण-व्यवस्था किसी समय समाज के लिए हितकर थी, पर आज हमने उसके नियमों को अटल बना कर समाज के टुकड़े-टुकड़े कर दिये। आज देश के सामने एक ही धर्म है-राष्ट्रधर्म। अब शारीरिक सेवा और श्रम केवल शूद्रों का कर्तव्य नहीं माना जा सकता। सभी को अपनी सारी शक्तियों को देशोत्थान के कार्यों में लगाना चाहिये। भारत के साथ तादात्म्य होने वाली भविष्यवाणी उन्होंने की थी- 'चाहे एक शरीर द्वारा, चाहे अनेक शरीरों द्वारा काम करते हुए राम प्रतिज्ञा करता है कि बीसवीं शताब्दी के अर्धभाग के पूर्व ही भारत स्वतन्त्र होकर उज्ज्वल गौरव को प्राप्त करेगा। उन्होंने अपने एक पत्र में लाला हरदयाल को लिखा था - हिन्दी में प्रचार कार्य प्रारम्भ करो। वही स्वतन्त्र भारत की राष्ट्रभाषा होगी। केवल तीन शब्दों में उनका सन्देश निहित है - त्याग और प्रेम।

युवा-संन्यासी (स्वामी रामतीर्थ के संन्यासोपलक्ष्य में रचित) स्वामी रामतीर्थ का जन्म 22 अक्टूबर सन् 1873 को तत्कालीन पंजाब प्रांत के गुजरांवाला जिले के मुरलीवाला ग्राम में हुआ था। अपने जीवन काल में उन्होंने महान् वेदांती के रुप में न केवल भारत वरन् जापान, अमेरिका, यूरोप के विभिन्न देशों सहित मिश्र में हिन्दुत्व के धर्म दर्शन की पताका फहराई। तदुपरांत भारत आने के बाद उन्होंने कुछ समय तक देश के विभिन्न भागों का भ्रमण किया और जनमानस को व्यावहारिक वेदांत की शिक्षा दी। कालांतर में उत्तराखंड चले गए और वहीं उन्होंने अपना स्थायी निवास बना लिया। सन् 1906 की दीपावली थी। उन दिनों उन्होंने एक लेख लिखा, जिसमें मौत का आव्हान किया गया था। उससे कुछ दिन पूर्व ही उन्होंने अपने शिष्य नारायण स्वामी से कहा था कि राम की तबीयत अब संसार से ऊब गई है, अत: वह शीघ्र ही इस संसार को त्यागने वाला है और दीपावली को ही 33 वर्ष की आयु में उन्होंने गंगा में जल समाधि ले ली।

स्वामी रामतीर्थ जिस समय संसार से विदा होने लगे उस समय मृत्यु को संबोधित करते हुए उन्होंने जो भाव व्यक्त किए वे एक अद्वैतवादी भारतीय के अनुरूप ही थे, उन्होंने आनंद विभोर होते हुए कहा था - माँ की गोद के समान शांतिदायिनी मृत्यु! आओ और इस भौतिक शरीर को ले जाओ। मेरे पास और बहुत से नए शरीर हैं। मैं तारों की चमक और चंद्रमा की किरणों का शरीर धारण कर सकता हूँ। मैं आत्मा हूँ संसार के सारे शरीर मेरे हैं। सारी सृष्टि ही मेरी देह है और मैं उसका शाश्वत, अविनाशी और चेतना देही हूँ। मैं शुद्ध, बुद्ध और निरुपाधि ब्रह्म हूँ... ब्रह्म। व्यापक और विकार रहित बह्म। स्वामी रामतीर्थ ब्रह्मर्षि ही थे, इसलिए तो यह संयोग भी बना कि दीपावली के दिन ही उनका जन्म, संन्यास और महाप्रयाण हुआ।

(लेखक श्रीजानकीरमण महाविद्यालय में इतिहास के विभागाध्यक्ष हैं)

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