अध्यापन कोई कारोबार नहीं है
गिरीश्वर मिश्र
मानव सभ्यता के संदर्भ में अध्यापन-कार्य न केवल दूसरे व्यवसायों की तुलना में सदैव विशेष महत्व का रहा है बल्कि अन्य सभी व्यवसायों का आधार भी है। आज सामाजिक परिवर्तन विशेषत: प्रौद्योगिकी की तीव्र उपस्थिति ने शिक्षक और शिक्षार्थी के रिश्तों को नए सिरे से परिभाषित कर रहा है। साथ ही कक्षा, समाज और व्यापक विश्व के संदर्भ में शिक्षक की संस्था भी नए ढंग से जानी पहचानी जा रही है। इसके फलस्वरूप शिक्षक की औपचारिक भूमिका और व्याप्ति का क्षेत्र जरूर अतीत की तुलना में वर्तमान काल में नए नए आयाम प्राप्त कर रहा है। इन सबके बीच अभी भी अध्यापक अपने गुणों, कार्यों और व्यवहारों से छात्रों को प्रभावित कर रहा है और उसी के आधार पर भविष्य के समाज और देश के भाग्य को भी अनिवार्य रूप से रच रहा है। एक अध्यापक को समाज ने अधिकार दिया है कि वह अपने छात्र के जीवन में प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से हस्तक्षेप करे; विद्यार्थियों को भविष्य के सपने दिखाए और उनमें निहित क्षमता को समृद्ध कर उन सपनों को साकार करने के लिए तैयार करे । ऐसा करते हुए मूल्यों और मनोवृत्तियों को भी गढ़ता है। वशिष्ठ, बुद्ध, चाणक्य, टैगोर, रामकृष्ण परमहंस, विवेकानंद, राधाकृष्णन आदि के स्मरण से मन में गुरु की आदर्श और तेजस्वी छवि बनती है।
शिक्षा के परिसर में अध्यापक के व्यवहार के जो नैतिक और आचारगत परिणाम होते हैं वे समाज की नैतिक परिपक्वता और विवेक को निश्चित करते हैं। इसीलिए अध्यापक को जाँचने-परखने के लिए ऊँचे निष्कर्ष और मानक तय किए जाते हैं जिन्हें दूसरे व्यवसाय के लोग आसानी से नहीं स्वीकारते। अध्यापकों से नैतिक गुणों की अपेक्षा होती है। उनसे आशा की जाती है कि वे अपने आचरण में उचित और अनुचित का विवेक करेंगे। योग्यता, कुशलता और गुणवत्ता उनके व्यवहारों से झलकेगी। वे प्रतिबद्धता, काम के प्रति समर्पण, सत्यनिष्ठा, ईमानदारी और पूर्वाग्रहमुक्त आचरण की मिसाल प्रस्तुत करेंगे। शिक्षक की गुणवत्ता विद्यार्थी की सफलता का सबसे प्रमुख आधार होता है ऐसा सोच कर अभिभावक अपने मन में अध्यापक और गुरु के प्रति सहज सम्मान का भाव रखता रहा है। एक गुरु मानसिक और व्यावहारिक रूप से दूसरों की भलाई करने वाले और भविष्य का नज़रिया रखने वाले इंसान के रूप में प्रतिष्ठित था। वह माता-पिता से कम महत्व का न था। वह विद्यार्थी का प्रेरणास्रोत और ऐसा हितैषी था जो उसे सत्पथ पर जाने की राह दिखाता था। चरित्र-निर्माण करते हुए एक अच्छा मनुष्य और देश का अच्छा नागरिक बनाना उसका कर्तव्य था। समाज में गुरु की ऊँची साख इसलिए भी थी कि वह निर्भय हो कर बिना किसी लाग-लपेट के लोक-हित की बात कह सकता था। अब यह छवि बदल रही है और धीरे-धीरे खिसक कर हाशिए पर पहुँच रही है और थोड़े अध्यापक ही अपनी मूल छवि की रक्षा कर पा रहे हैं। ज्यादातर की दिशा बदल चुकी है या फिर बदलने की फिराक में हैं।
अध्यापक का कार्य अब पूरी तरह से व्यवसाय बन चुका है यानी एक ज्ञान का व्यापार करने वाला एक शुद्ध आर्थिक कार्य हो रहा है। इक्कीसवीं सदी में पहुँच कर न केवल ज्ञान की विषय वस्तु में बदलाव आया है बल्कि पठन-पाठन के तौर- तरीक़े भी बदले हैं। सैद्धांतिक रूप में मानव मूल्य और मानवीय गरिमा वे केंद्रीय सरोकार हैं जिनकी संपोषण शिक्षक-प्रशिक्षण का अहम हिस्सा होता है तथापि आज शिक्षक और विद्यार्थी के बीच का रिश्ता अलगाव और नासमझी का शिकार हो रहा है। आज अनुदान प्राप्त क्षिक्षा केंद्रों में वेतन तो बढ़ा है परंतु आम तौर पर शिक्षण कार्य के साथ लगाव और रुचि में कमी आई है। तल्लीन हो कर कार्य करना और उसे गंभीरता से लेना अध्यापकों की वरीयता में नीचे खिसक रहा है।
सामाजिक मूल्यों और मानकों का पालन, गुणवत्तापूर्ण सीखने-सिखाने की प्रक्रिया छात्रों की आवश्यकताओं को जान कर ईमानदार और न्यायपूर्ण समाधान आज की सबसे बड़ी चुनौती हो गई है। मानवीय गरिमा का आदर स्थापित हो इसके लिए प्रभावी संचार, सामूहिक दायित्व का निर्वाह और निजता की रक्षा ज़रूरी होगी। आज के संदर्भ में अध्यापन, मूल्यांकन और अभिव्यक्ति आदि शिक्षा के विभिन्न पक्षों में प्रौद्योगिकी का समुचित उपयोग करने की प्रभावी नीति तात्कालिक आवश्यकता है। प्राथमिक स्तर से लेकर उच्च शिक्षा तक का शिक्षा-संदर्भ निजी, सरकारी और अर्ध सरकारी संस्थाओं की श्रेणियों में बँटा हुआ है और इनमें भी भयानक स्तर भेद हैं। इनके क़ायदे-क़ानून, अध्यापकों को मिलने वाले अवसर, कार्यभार और वेतन आदि में बड़े भेद और विसंगतियाँ बनी हुई हैं । पूरी शिक्षा व्यवस्था जिस तरह व्यवसायीकरण की चपेट में है उसका हिंसक परिणाम कोचिंग नगरी कोटा की कथा से उजागर होता है जहां विद्यार्थियों में आत्महत्या की प्रवृत्ति फैल रही है या फिर अव्यवस्थित कोचिंग संस्थानों में लगी आग में विद्यार्थी झुलसते-मरते हैं। वस्तुत: शिक्षा अभी तक हमारी राष्ट्रीय विकास योजना के एजेंडा में बहुत नीचे पड़ी हुई है। शिक्षा को भगवान भरोसे छोड़ बाक़ी चीजों में निवेश हो रहा है। इस उदासीनता के दुष्परिणाम भी दिख रहे हैं पर राजनीति की समाधि नहीं टूट रही है। सा विद्या या विमुक्तये कहते हुए भी शिक्षा कारोबार होती जा रही है। बाज़ार और व्यवसाय के ताने बाने में शिक्षक इस कारोबार का एक अदना किरदार हो गया है। शिक्षक की गरिमा स्थापित करके ही अमृत काल के संकल्प चरितार्थ हो सकेंगे।
(लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विवि के पूर्व कुलपति हैं)