मायावती के समक्ष बसपा को टूट से बचाने की चुनौती

मायावती के समक्ष बसपा को टूट से बचाने की चुनौती
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अजय कुमार

लोकसभा चुनाव जैसे जैसे नजदीक आ रहा है, नेताओं का पाला बदलने का खेल शुरू हो गया है। इसकी एक बानगी तब देखने को मिली जब बहुजन समाज पार्टी से सांसद कुंवर दानिश अली की एक तस्वीर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के साथ दिखाई पड़ने लगी।

बसपा सुप्रीमों मायावती की एकला चलो वाली थ्योरी ने कांग्रेस-समाजवादी पार्टी वाले आईएनडीआईए गठबंधन की धड़कनें बढ़ा दी हैं, सब जानते हैं कि उत्तर प्रदेश में यदि बीजेपी के खिलाफ सपा-बसपा को साथ लिए बिना कोई गठबंधन बनता है तो ऐसे गठबंधन की कोई अहमियत नहीं रह जाती है क्योंकि कांग्रेस का तो यूपी में वजूद ही नहीं बचा है। बीजेपी को सपा-बसपा से जरूर थोड़ी-बहुत चुनौती मिलती रही है, लेकिन बसपा का दर्द अलग है। उसका हमेशा से मानना रहा है कि जब भी उनकी पार्टी बीजेपी के खिलाफ अन्य किसी दल के साथ गठबंधन करती है तो उसका वोट तो दूसरे दल के प्रत्याशी के पक्ष में ट्रांसफर हो जाता है, लेकिन बसपा प्रत्यशी को गठबंधन में दूसरे दलों के वोट नहीं मिलते हैं। इसीलिए अपने पुराने अनुभव के आधार पर अबकी से बसपा ने अकेले चलने का निर्णय लिया है, यह बीएसपी का एक राजनैतिक निर्णय हो सकता है, लेकिन इससे फायदा भारतीय जनता पार्टी को होगा इसमें भी कोई दो राय नहीं है। परंतु बसपा सुप्रीमो मायावती को इसकी चिंता नहीं है, वह तो कांग्रेस और भाजपा दोनों को ही एक ही थाली का बैगन बताती हैं। दोनों पर ही दलितों के साथ अत्याचार का आरोप लगाती हैं। मायावती कोई भी निर्णय लेने में सक्षम हैं। परंतु उनको इस बात का भी ध्यान रखना होगा कि जब भी बहुजन समाज पार्टी कमजोर नजर आती है, तब उसमें टूट हो जाती है। अत: इससे भी मायावती को बचकर चलना होगा। यानी उनके सामने दोहरी चुनौती है, एक तरफ पार्टी को जीत की राह पर ले जाना है तो दूसरी ओर उन्हें पार्टी को टूट से भी बचाने की चुनौती होगी।

बसपा की रणनीति अपनी जगह है, मगर इस बात को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता है कि आज की बसपा में वह दमखम नहीं रह गया है जो उसमें 2012 से पहले देखने को मिलता था। पिछले कई चुनावों में बसपा को शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा है। मायावती कभी बड़ी-बड़ी रैलियों के लिए जानी जाती थीं, लेकिन पिछले कुछ वर्षों में मायावती ने ऐसी कोई रैली नहीं की है जिससे उनकी ताकत का अंदाजा विरोधियों को लग पाए। चुनावी मौसम में एक ओर जहां पार्टियां अपनी तैयारियों और उम्मीदवारों के चयन पर मंथन कर रही हैं, अपने राजनीतिक भविष्य की नैय्या पार लगाने के लिए नेता भी हाथ पांव मार रहे हैं, ऐसे में बसपा आलाकमान को यह समझना होगा कि यदि वह आम चुनाव में थोड़ी भी कमजोर नजर आईं तो बसपा के टिकट पर चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहे नेता कमजोर राजनैतिक हालात में दूसरी नाव पर सवार होने में कतई देर नहीं लगाएंगे।

नीतीश कुमार से मुलाकात को लेकर बसपा सांसद ने बताया कि उनके साथ राष्ट्रीय महत्व के विभिन्न मुद्दों और देश में शांतिपूर्ण और सौहार्दपूर्ण माहौल बनाने के लिए मिलकर काम करने पर चर्चा की। हाल ही में लखनऊ स्थित बसपा कार्यालय में मायावती के नेतृत्व में हुई बैठक में भी दानिश अली कहीं नजर नहीं आये थे। वहीं दावा किया जा रहा है कि सिर्फ दानिश अली ही नहीं बसपा के कई अन्य सांसद भी दूसरे दलों के नेताओं के साथ मिल रहे हैं।

ज्ञातव्य हो कि बहुजन समाज पार्टी ने 2019 लोकसभा चुनाव समाजवादी पार्टी के साथ मिलकर लड़ा था और सहारनपुर, बिजनौर, नगीना, मेरठ, अमरोहा, अंबेडकरनगर, श्रावस्ती, लालगंज, घोसी, गाजीपुर समेत 10 सीटों पर जीत दर्ज की थी। जबकि उस अनुपात में समाजवादी पार्टी के प्रत्याशी नहीं जीत पाए थे। राजनैतिक पंडितों के लिए यह चौंकाने वाला है कि 2024 के लोकसभा चुनाव भी बसपा सुप्रीमो मायावती 2014 की तरह फिर से अकेले दम पर लड़ने जा रही हैं। 2014 के लोकसभा चुनाव में बसपा का खाता भी नहीं खुल पाया था। देखा जाये तो 2024 में 2019 के रिजल्ट को बरकरार रखना ही बसपा के लिए एक बड़ी चुनौती होगी।

(लेखक वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक हैं)

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