समलैंगिकों पर न्यायालय के फैसले के निहितार्थ
समलैंगिकों को विवाह की कानूनी अनुमति देने संबंधी याचिका का उच्चतम न्यायालय द्वारा अस्वीकृत करना संपूर्ण समाज के लिए राहत लेकर आया है। यह लाखों वर्षों की सभ्यता संस्कृति वाले देश की प्रमाणित जीवन शैली एवं चिंतन की रक्षा करने वाला है। यह पहली दृष्टि में उस पूरी लॉबी के लिए धक्का है जिसने लगातार एक गैर मुद्दे को मुद्दा बनाकर समलैंगिकों के पक्ष में माहौल बनाया तथा न्यायालय से भी अनुकूल फैसले पाए। उच्चतम न्यायालय ने सन 2018 में समलैंगिकता को अपराध मानने वाली भारतीय दंड संहिता की धारा 377 को खत्म कर दिया था। इससे उस लॉबी के अंदर यह भावना पैदा हुई कि लंबी लड़ाई के बाद हम ऐसे स्थान पर पहुंच गए हैं जहां से अब समलैंगिकों के विवाह को मान्यता देने के लिए भी पूरी ताकत से न केवल माहौल बनाना चाहिए बल्कि न्यायालय से भी आदेश पारित करने की कोशिश करनी चाहिए। भारत में लंबे समय से मीडिया, सोशल मीडिया से लेकर गोष्ठियों, सेमिनारों में इसके पक्ष में माहौल बनाने का अभियान चलता रहा।
इसके विपरीत देश की बहुमत आबादी ने अलग-अलग तरीकों से अपना मत प्रकट किया और ऐसा लग रहा था कि आम भारतीय उच्चतम न्यायालय में इस मामले की सुनवाई को ही उचित नहीं मानता है तो तत्काल इससे राहत मिल गई है। किंतु कोई यह न मान ले कि समलैंगिकता को विपरीत लिंगी यानी स्त्री पुरुष संबंधों के समानांतर खड़ा करने वाली लॉबी शांत हो जाएगी। याचिकाकर्ताओं ने कहा है कि भले अभी अनुमति नहीं मिली लेकिन उन्हें संतोष है कि उनके तर्कों तथ्यों को स्वीकार किया गया है। वास्तव में पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ में यह तीन और दो का आदेश है। मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति हिमा कोहली, न्यायमूर्ति संजय किशन कौल, न्यायमूर्ति रविंद्र भट और न्यायमूर्ति पीएस नरसिम्हा की संविधान पीठ ने इस मामले की सुनवाई की थी। यहां दोनों न्यायाधीशों की अंतिम फैसले से पूरी सहमति नहीं है। मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ ने कहा कि स्पेशल मैरिज एक्ट या विशेष विवाह अधिनियम के प्रावधानों में बदलाव की जरूरत है या नहीं, यह तय करना संसद का काम है। न्यायालय का फैसला मुख्यत: दो आधारों पर टिका है। एक, शादी विवाह मौलिक अधिकार के तहत आता है या नहीं तथा दो, न्यायालय इसमें बदलाव कर सकता है या नहीं? पीठ का कहना है कि विवाह मौलिक अधिकार नहीं है तथा न्यायालय कानून में परिवर्तन नहीं कर सकता है क्योंकि कानून बनाना यह संसद का विशेषाधिकार है। केंद्र सरकार की ओर से सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा था कि सरकार बाध्य नहीं है कि हर निजी रिश्ते को मान्यता दे। याचिकाकर्ता चाहते हैं कि नए मकसद के साथ नई श्रेणी बना दी जाए। इसकी कभी कल्पना नहीं की गई थी। अगर ऐसा किया गया तो भारी संख्या में कानून में बदलाव लाने पड़ेंगे जो संभव नहीं होगा।
न्यायालय ने केंद्र सरकार को एक ऐसी समिति बनाने का भी निर्देश दिया जो राशन कार्ड में समलैंगिक जोड़ों को परिवार के रूप में शामिल करने, समलैंगिक जोड़ों को संयुक्त बैंक खाते के लिए नामांकन करने में सक्षम बनाने और उन्हें पेंशन, ग्रेच्युटी आदि से मिलने वाले अधिकार का अध्ययन करेगी। समलैंगिकों को बच्चा गोद लेने का अधिकार दिया और केंद्र और राज्य सरकारों को समलैंगिकों के लिए उचित कदम उठाने का आदेश भी दिया। न्यायालय ने यह स्वीकार किया है कि विवाह की संस्था बदल गई है जो इस संस्था की विशेषता है, सती और विधवा पुनर्विवाह से लेकर अंतरधार्मिक विवाह में बदलाव हुए हैं और ऐसे कई बदलाव संसद से आए हैं।?
न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने समलैंगिक संबंधों को शहरी और अभिजात्य वर्ग तक सीमित बताने के तर्कों पर कहा कि यह विचित्रता यानी क्विर्नेस शहरी या अभिजात्य वर्ग की चीज नहीं है। उनके अनुसार भारत में यह प्राचीन काल से जाना जाता है और प्राकृतिक है। विवाह की अवधारणा कोई सार्वभौमिक अवधारणा नहीं है और न ही यह स्थिर है। अगर संविधान के अनुच्छेद 245 और 246 को सातवीं अनुसूची की तीसरी सूची की पांचवीं प्रविष्टि के साथ पढ़ा जाए तो क्वियर यानी एलजीबीटी की शादी को मान्यता और उस पर कानून बनाने का अधिकार संसद और राज्य विधानसभाओं के पास है। उन्होंने यह भी लिखा है कि संविधान के भाग तीन यानी मौलिक अधिकार में क्वियर लोगों सहित सभी को एक साथ रहने का संरक्षण मिला हुआ है। राज्य का दायित्व है कि वह संघ यानी साथ संबंध रखने वाले, बनाने वाले उन सभी की तरह क्वियर को भी वही लाभ दे। ऐसा नहीं होने से समलैंगिक जोड़ों पर असमान प्रभाव पड़ेगा जो कि मौजूदा कानूनी व्यवस्था में शादी नहीं कर सकते। इन पंक्तियों को देखने के बाद निश्चित रूप से समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता नहीं मिलने पर प्रसन्न होने वाले पूरी तरह राहत की सांस नहीं ले सकते। मुख्य न्यायाधीश की इन पंक्तियों से अन्य न्यायाधीशों ने भी सहमति जताई है। जिसकी मूल पंक्ति यही है कि अगर स्पेशल मैरिज एक्ट को खत्म कर दिया जाता है तो यह देश को आजादी से पहले के समय में ले जाएगा। अगर न्यायालय दूसरी अप्रोच अपनाता है और इसमें नई बातें जोड़ता है तो वह विधानपालिका का काम करेगा। इस तरह जो नहीं चाहते कि समलैंगिक विवाह को मान्यता दी जाए उन्हें संगठित होकर सामाजिक, धार्मिक एवं न्यायिक स्तरों पर ज्यादा सक्रिय होना होगा। इसकी लॉबी काफी मजबूत और प्रभावी है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)