जिसकी जितनी संख्या भारी, देश पे न पड़ जाए भारी

जिसकी जितनी संख्या भारी, देश पे न पड़ जाए भारी
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डा. नन्द किशोर गर्ग

जिसकी जितनी संख्या भारी, उतनी उसकी हिस्सेदारीÓ, जातिगत जनगणना की मांग के साथ पिछले कुछ दिनों से यह जुमला खूब उछाला जा रहा है। क्या यह सचमुच कोरा जुमला है चुनाव जीतने के लिए या फिर गहरी साजिश है, हिन्दुओं को जातियों में बाँटने की। हाल में एक प्रेस कॉफ्रेंस में दलितों, अनुसूचित जातियों के मसीहा बनने का दिखावा करने वाले राहुल गांधी ने मोदी सरकार को घेरने की नीयत से सामने बैठे पत्रकारों पर सवाल दागा, बताइए आप जो पत्रकार यहाँ बैठे हैं इनमें से कितने दलित या अनुसूचित जाति से हैं। इस बेतुके सवाल ने राहुल की अक्ल की एक बार फिर से पोल खोल दी। कोई भी समाचारपत्र या न्यूज़ चैनल पत्रकारों का चुनाव योग्यता के बल पर करता है न कि जाति देखकर। विपक्षी गठबंधन यह दावा कर रहा है कि उनकी सरकार बनी तो पूरे देश में जातिगत जनगणना करवाएंगे। यह किस बात का संकेत है?

जब अंग्रेजों ने इस देश में राज किया था तो उन्होंने समझ लिया था कि यहाँ के लोगों को आपस में बांटते रहो 1930 में अंग्रेजों ने जातिगत जनगणना करायी थी अपने फायदे और हमें कमज़ोर करने के लिए। इसी कमजोरी का फायदा उठाते हुए अंग्रेजों ने यहाँ 200 साल तक शासन किया। इस सन्दर्भ में मुझे राष्ट्र कवि रामधारी सिंह दिनकर द्वारा लिखित 'संस्कृति के चार अध्यायÓ का ध्यान आता है। उन्होंने लिखा था कि भारत में मूल रूप से जातियां नहीं थीं, बल्कि वर्ण थे। और वर्णों का विभाजन कार्यों के आधार पर किया गया था। वर्णों के आधार पर श्रम विभाजन था। धीर-धीरे ये वर्ण पांच-छह हजार जातियों में बंट गए। जब यह देश आज़ाद हुआ और काले अंग्रेज़ सत्ता में आये, उन्होंने इस प्रवृत्ति को और भी हवा देना शुरू किया। सूचियाँ बनीं थीं अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, घूमंतू जाति आदि। उन सबको अलग-अलग जातियों में बाँट दिया, फिर और बंटवारा किया दलित, पिछड़ा, अति पिछड़ा। सच पूछो तो हिंदुत्व जीवन जीने की एक पद्धति है। सर्वोच्च न्यायालय ने भी कहा, हिन्दू कोई जाति नहीं है, न ही कोई धर्म है, यह जीवन पद्धति है। इस प्रकार देखा जाये तो आसेतु हिमालय वास करने वाला हर व्यक्ति हिन्दू है। इस अवधारणा को तोड़ते हुए पहले अफगानिस्तान अलग हुआ, थाईलैंड बना, पाकिस्तान बना फिर बांग्लादेश का जन्म हुआ। बस हिन्दू बंटता चला गया। अब यह बिहार में तथाकथित जनगणना हुई है, 1930 में अंग्रेजों ने भी करायी थी। उसकी और इस जनगणना की तुलना भी की जा रही है कि तब जो जाति या जातियाँ थीं, उनमें कितनी घटी हैं, कितनी बढ़ी हैं। इस देश में हिन्दू जो पहले 100 प्रतिशत था, उसे 82 पर ला दिया गया, सबने स्वीकार भी कर लिया, 17 प्रतिशत मुसलमान बताये जाते हैं, यह संख्या बढ़ाकर बताने का रिवाज़ सा चल गया है। वामपंथी खेमा इसमें खूब खेल करता रहा है, पहले से ही मार्जिन बढ़ाकर दिखाना। 1930 में भारत में मुसलमान 14 प्रतिशत था अब 17 प्रतिशत के लगभग बताया गया है और यादव 14 प्रतिशत। जबकि यादवों में भी कुर्मी और कोली अलग-अलग बताये गए। ऐसे ही ब्राह्मण, भूमिहार और राजपूत, बनियां, कायस्थ सबकी संख्या कम दिखा दी। बाँट दिया सबको अपनी सुविधानुसार। कहीं किसी को ओबीसी दिखा दिया और कहीं उसी को जनरल में डाल दिया। यह एक तरह से हिन्दुओं को बांटने और मुसलमानों को एकजुट करने की साजिश है। देखा जाये तो मुसलमानों में भी उतनी ही जातियाँ हैं। ये कोई बाहर से थोड़े ही आये, हिन्दुओं से परिवर्तित हो कर ही बने।

डा. राममनोहर लोहिया सदैव से जातिविहीन समाज की बात करते थे, गांधी भी यही मानते थे और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तो इस बात को पूरी मानता और गुनता भी है। डा. लोहिया के सिद्धांतों पर चलने का दावा करने वाले नीतीश, लालूप्रसाद, अखिलेश और इनके साथी आज हर कीमत पर जाति...जाति...जातीय जनगणना का खुला खेल खेल रहे हैं मोदी को हराने के लिए। जबकि प्रधानमंत्री मोदी जातीय बंटवारे से दूर सर्वजन कल्याण के लिए कार्य कर रहे हैं। हाल ही में उन्होंने विश्वकर्मा योजना के तहत सभी हुनरमंदों, कुशल कारीगरों को सहायता और सम्मान देने की बात कही और करके दिखाया। सबको बिजली, पानी, गैस, मकान मिल रहा है। जब सबका साथ, सबका विकास की बात हो रही है तो उसमें जाति विशेष मायने नहीं रखता।

आज आधुनिकता के दौर में क्या यह उचित है कि किसी की योग्यता को मापने का आधार जाति को माना जाये? आज का युवा जाति के बंधन तोड़कर , उससे बहुत ऊपर निकल गया है। हम दोस्ती या शादी - ब्याह के मामलों को ही लें, युवा जाति का बंधन तोड़कर मनचाहा रिश्ता जोड़कर घर बसा रहे हैं। इसका एक पहलू और भी है जब फायदे के लिए कोई फॉर्म भर रहे हैं तो आरक्षण पाने के लिए हर कीमत पर स्वयं को अनुसूचित, जाति, जनजाति का घोषित करने की कोशिश, और अगर कोई उसे उस संबोधन से पुकार दे तो जातिसूचक शब्द का प्रयोग करने पर सज़ा का प्रावधान। यह कैसा न्याय है?

इस सन्दर्भ में एक और बात चिंताजनक है। जिसकी जितनी संख्या भारी, उतनी उसकी हिस्सेदारी, अगर इसी समीकरण पर चले तो एक समुदाय निर्बाध रूप से अपनी संख्या बढ़ाने में जुटा रहेगा। ऐसे में देश की जनसंख्या का क्या होगा, वहां पहले से ही विस्फोटक स्थिति है और अगर जनसंख्या बेहिसाब बढ़ी तो विकास की रफ़्तार को ठेंगा दिखाते हुए सब संसाधन कम पड़ जायेंगे। इस खतरनाक संकेत को गंभीरता से समझना होगा ।

(लेखक , महाराजा अग्रसेन यूनिवर्सिटी के चांसलर हैं)

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