वज्रपात: पाँच पहर धन्धे गया

वज्रपात: पाँच पहर धन्धे गया
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डॉ. आनन्द पाटील

इस लेख के बहुलांश व्यक्तिगत जीवन से छनकर निकले हैं। अत: आत्मगत संवाद से प्रतीत होंगे। वास्तविकताओं का साक्षात्कार कराने के लिए ऐसा करना आवश्यक प्रतीत हुआ। इसी दृष्टि से इस लेख का पारायण उचित होगा। विज्ञान में स्नातक शिक्षा को तिलांजलि देकर कला शाखा की ओर जब आने का निर्णय हुआ तो कला स्नातक की उपाधि के दौरान हिन्दी साहित्य में विशेष रुचि व प्रेम के कारण एक ऐच्छिक विषय के रूप में हिन्दी का चयन हुआ। हिन्दी के इस चयन में प्रो. शिवनारायण व्यास जी का , जो कि अब गोलोकवासी हैं, विशेष मार्गदर्शन प्राप्त था। उन दिनों स्वामी रामानन्द तीर्थ मराठवाडा विश्वविद्यालय (नान्देड) में 'आधुनिक हिन्दी साहित्य का इतिहासÓ में भारतेन्दु-पूर्व हिन्दी गद्य में एक अध्याय बिन्दु हुआ करता था - 'ईसाई मिशनरियों का हिन्दी के लिए संघर्ष (योगदान)।Ó हिन्दी भाषा के विकास एवं प्रचार-प्रसार से सम्बन्धित उस पाठ्यक्रम में समाहित अध्यायों का पारायण करते हुए प्रतीत होता था कि क्या लोग और क्या संस्थाएं, हिन्दी के प्रचार-प्रसार में अनवरत जुटे हुए थे। उन्हीं प्रयासों के परिणामस्वरूप हिन्दी का वर्तमान फलक विकसित हुआ है। ऐसा कहते हुए मुझे यह स्वीकारना चाहिए कि उन दिनों आलोचकीय बुद्धि का वैसा विकास न हुआ था। आज महाविद्यालय-विश्वविद्यालय के नारेबाज युवाओं की क्रान्तिकारिता(?), भले ही वह प्रायोजित, अनावश्यक, अकारण और सामाजिक-राष्ट्रीय दृष्टि से विघटनकारी हो, देख कर स्व-मूल्यांकन का भाव उत्पन्न होता है और आत्मालोचन से ज्ञात होता है कि मैं आयु की उस युवावस्था में अभी 'भोलाÓ ही था। अर्थात् रस्मी भ्रान्तियों के उस पार (आर-पार) देखने की तर्कबुद्धि का या तो समयोचित विकास न हुआ था, अथवा न घर पर, न ही महाविद्यालय में वैसा वातावरण (संस्कार) ही मिल पाया था। अर्थात् एक सीध में चलना और गन्तव्य तक पहुँचना ही मानस में आरुढ़ हो चुका था। अत: विद्यार्जन की संस्कारबद्ध परिपाटी में प्रयोजनीयता (करियर) ही प्रमुख थी।

व्यक्तिगत रूप से जीवन के वे दिन भ्रान्तिपूर्ण स्वर्णिम अतीत की चौंधियाने वाली आभा से मुक्ति की छटपटाहट और भयंकर धुँधलके में खोये हुए भविष्य को खोजने के दिन थे। इस पूरे प्रसंग में यह बात रेखांकनीय है कि हमारे प्राय: सभी प्राध्यापक अत्यन्त सुहृद, पूर्वाग्रहरहित एवं सामाजिक क्षेत्र (सोशल स्पेस) में आचरण-व्यवहार से सन्त व्यक्ति थे। अत: अपने-अपने स्पेस और सीमा में विकास कर रहे थे। ऐसे वातावरण में, और जीवन की उठापटक में, मरणान्तक स्थितियों से साक्षात्कार कर चुकने के बाद एक बात स्पष्ट थी, जो कि हैदराबादी मुहावरेदारी भाषा में कही-समझी जाती थी - 'पढ़ोगे-लिखोगे, बनोगे नवाब।Ó हम नौकर से नवाब वाले भावग्राही युवा थे। ऐसे समय में, जब चारों ओर 'स्मार्ट पीढ़ीÓ विकसित हो चुकी है, यह सब कहने के लिए विशेष रूप से साहस जुटाना पड़ा है। कुलमिलाकर इस स्मार्ट समय में उन दिनों का, और पाठ्यक्रमों में पढ़ चुके अंशों का स्मरण हो आता है, तो आलोचकीय बुद्धि रस्मी भ्रान्तियों के उस पार (आर-पार) सहज ही देखने लग जाती है।

एक ओर ईसाई मिशनरियों के हिन्दी प्रचार-प्रसार के पीछे की अखिल पृष्ठभूमि स्पष्ट दिखायी देने लग जाती है, तो दूसरी ओर हिन्दी के 'आत्ममुग्ध समाजÓ की भ्रान्त बुद्धि पर तरस आने लगता है। हिन्दी वालों को सतत लगता है कि हिन्दी का प्रचार-प्रसार होना चाहिए - येनकेनप्रकारेण। वे इस बात पर अन्धत्व ओढ़ लेते हैं कि हिन्दी के प्रचार-प्रसार के पीछे से हर गली-नुक्कड़ पर, नेपथ्य में कौन-सा खेल खेला जा रहा था/ है। हिन्दी वालों को गर्व होता है कि हमारी हिन्दी कितनी महान है कि फलाँ-फलाँ को भी इसे स्वीकारना पड़ा। अर्थात् ईसाई मिशनरियों ने भी इसे अपनाया। क्यों अपनाया, इस तथ्य पर उनकी बुद्धि कुम्भकर्ण की नींद सोयी रहती है। हिन्दी भाषा के ऐसे भक्त किसी भी रूप में हिन्दी की जय जयकार के लिए बिछ जाने के भाव से प्राय: बिछे रहते हैं।

इससे अत्यन्त भिन्न हिन्दी का एक और समाज है - सरकारी व्यवस्था द्वारा अधिसूचित हिन्दी क्षेत्रवासियों का समाज। अधिसूचित हिन्दी क्षेत्रवासियों का हिन्दी प्रेम अनावश्यक रूप से अभिजात्यता ओढ़ा हुआ है। वैसे वह खड़ीबोली (मानक) की अपेक्षा हिन्दी की उपभाषाएँ और बोलियों में व्यवहृत समाज है, परन्तु उनमें से बहुतांश की बातों में हिन्दी को लेकर अहंमन्यता सहज ही दिख जाती है। उदाहरण के लिए - किसी सुरुचिपूर्ण हिन्दी प्रेमी व्यक्ति, जिसका हिन्दी के लिए मन समर्पित, जीवन समर्पित हो - उसकी हिन्दी सुन-पढ़ कर आश्चर्यजनक मुद्रा में कहते हैं कि 'आपकी हिन्दी से पता ही नहीं चलता किÓ। हिन्दी ऐसे नाना चित्र-विचित्रों के बीच फँसी हुई भाषा है। एकदेशीय (राष्ट्रीय) फलक पर विभाजितों के बीच बाज़ार में फंसी भाषा है। उसका बाज़ारू उपभोक्तावाद ने जितना उपभोग किया है, उतना ही उसके विकास में अधिसूचित हिन्दी क्षेत्रवादियों की अभिजात्यता ने उसके मार्ग को कण्टकाकीर्ण बनाया है। दोनों ही पक्षों में सहजता दृष्टिगोचर नहीं होती। जबकि एक बलात् हस्तक्षेप ही दिखायी देता है। दोनों में ही, हिन्दी का भला हो वाला भाव कम और अपनी-अपनी डफली बजाने वाला भाव उजागृत रूप में हावी है।

मेरे विचार में, किसी भी बात के होते हुए हिन्दी के प्रयोग, प्रचार-प्रसार में अनामन्त्रितों (घुसपैठियों) के योगदान को सन्दिग्ध दृष्टि से ही देखा जाना चाहिए और उस योगदान की सम्पूर्ण पृष्ठभूमि में जाकर उनके प्रयोजनों का खुलासा किया जाना चाहिए। साथ ही अनावश्यक रूप से ओढ़ी हुई भाषाई अभिजात्यता का समय-समय पर खण्डन किया जाना चाहिए। यह ध्यान रहे कि हिन्दी का प्रचार-प्रसार केवल दिखावा मात्र रह गया है। विविध सरकारी तथा अन्य संस्थानों में, हिन्दी में कामकाज भी दिखावा ही है। हमें यह स्वीकारना चाहिए कि हिन्दी में कार्यक्रमों के आयोजन से तात्कालिक लाभ हो सकते हैं। बाज़ार के विविध अङ्ग, अर्थात् इवेन्ट मैनेजमेण्ट, पर्यटन इत्यादि को बढ़ावा मिल सकता है। हिन्दी समाचारों में आ सकती है, परन्तु उसका वास्तविक उद्धार नहीं हो सकता। उसका उद्धार सम्यक आचरण से ही सम्भव हो सकेगा।(क्रमश:)

(लेखक अखिल भारतीय राष्ट्रवादी लेखक संघ के संस्थापक हैं)

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