संघ समर्पित सत्यनिष्ठ स्वयंसेवक तुली जी
वेदप्रकाश तुली जी, दिल्ली के पटेल नगर में रहने वाले तुली जी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के समर्पित स्वयंसेवक, जिन्होंने अपना जीवन संघ में सीखे गए आदर्शों और मूल्यों के साथ जिया। उन्होंने अपने जीवन में हजारों स्वयंसेवकों को गढ़ा। स्वयंसेवकों को उन्होंने बताया कि संघ के स्वयंसेवक का जीवन और आचरण कैसा होना चाहिए। उन्होंने 35 बरस तक संघ शिक्षा वर्गों में विभिन्न दायित्वों का निर्वहन कर संघ शिक्षण का कार्य किया। गत 18 दिसंबर 2023 को वह अपनी इहलोक की यात्रा समाप्त कर परलोक की यात्रा को चले गए।
वेदप्रकाश तुली जी का जन्म 15 अप्रैल 1933 को पाकिस्तान में हुआ था. तमाम हिंदुओं की तरह उनका परिवार भी बंटवारे का दंश झेल कर पाकिस्तान के रावलपिंडी से दिल्ली आया था। जिस समय बंटवारा हुआ वह रावलपिंडी में कक्षा नौ में पढ़ते थे। बंटवारे के समय के अनेकों संस्मरण में वह बताया करते थे। उस समय कैसे संघ के स्वयंसेवकों ने जान की बाजी लगाकर हिंदुओं को बचाया था ऐसे बहुत से संस्मरण उनके पास थे। वह 1942 में संघ के स्वयंसेवक बने थे। बंटवारे के बाद वह अपने परिवार के साथ इस पार आ गए। उनके पिताजी रेलवे में नौकरी करते थे तो वह उस समय पाकिस्तान में ही थे इसलिए कुछ समय वह अमृतसर के पास आकर रहे जहां उनकी बुआ रहती थीं। बाद में गांधी जी की हत्या के बाद संघ पर जब प्रतिबंध लगा तो वह प्रतिबंध के विरोध में सत्याग्रह कर जेल चले गए। वहीं से उन्होंने कक्षा नौ की परीक्षा दी और प्रथम श्रेणी में पास हुए। 1963 में गणतंत्र दिवस की परेड में जब पंडित नेहरू ने संघ के स्वयंसेवकों को राजपथ पर परेड के लिए आमंत्रित किया तो उस समय उन्होंने संघ बैंड का नेतृत्व किया। 22 वर्ष तक दिल्ली प्रांत के घोष प्रमुख रहे, घोष प्रमुख रहते उन्होंने घोष में बजने वाले सभी वाद्य बजाने सीखे और उनके वादक भी बनाये। उनका मानना था जो सब वाद्य मिलिट्री बैंड में बजते हैं वह संघ के घोष में भी बजने चाहिए।
दिल्ली में रहने के दौरान उन्होंने जीवन यापन के लिए अध्यापन का कार्य चुना क्योंकि उनका मानना था कि एक अध्यापक के नाते समाज के बीच रहकर सही मायनों में समाज और देश की सेवा की जा सकती है और साथ ही साथ संघ कार्य को आसानी से समय दिया जा सकता है। अध्यापक के जीवन का प्रभाव छात्रों पर होता ही है। संघ के संयमित और समर्पित स्वयंसेवक होने के नाते गृहस्थ होने के बाद भी उनका जीवन एक संत के जैसा ही रहा। उनके व्यक्तित्व का प्रभाव उनके छात्रों और संघ के स्वयंसेवकों को भी उनके जैसा जीवन जीने और समर्पित भाव से संघ कार्य करने की प्रेरणा देता था। संयमित जीवन, नियम से ब्रह्म महूर्त में जागने वाले वेद प्रकाश तुली जी का मानना था कि स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन का निवास होता है। इसके चलते वह जीवनभर ब्रह्ममुहूर्त में जाग कर 2 घंटे योग और प्राणायाम के साथ-साथ ध्यान करते थे। इसके बाद ही वह नित्य की शाखा पर जाते थे।
वह दिल्ली प्रांत के वर्षों तक घोष प्रमुख रहे। संघ का घोष तब प्रारंभिक स्थिति में था, कार्यकर्ताओं को खोज कर आग्रह पूर्वक घोष का कोई वाद्य सिखाना और उसके लिए जो भी रफ़्तार चाहिए उसका निर्माण करने के लिए वह स्वयंसेवकों को लगातार प्रेरणा देते थे। इसलिए उन्होंने स्वयं सभी घोष वाद्यों को बजाना सीखा, उनके द्वारा बनाई घोष लिपि की पुस्तक और उसको पढ़ना सीखने का उनका आग्रह सब घोष वादकों से रहता था। वह उत्तर भारत के लगभग सभी प्रांतों में संघ की योजना के अनुसार प्रवास करते थे आज भी उनके द्वारा निर्मित बहुत से कार्यकर्ता विभिन्न दायित्वों पर हैं। जब मेरे पास दिल्ली के प्रांत प्रचार प्रमुख का दायित्व आया तो उन्होंने मुझे अपने पास बिठाया और पूछा, तुम्हें तो मीडिया की कोई जानकारी नहीं है कैसे काम करोगे? मेरा उत्तर था 'टू बेस्ट ऑफ़ माय कैपेसिटीÓ इस पर उन्होंने अपने जीवन का एक अनुभव साझा किया कि जब उनके पास घोष का दायित्व आया तो किस प्रकार माधव राव मूले जी ने उनको कहा कि बेस्ट इफ माय कैपेसिटी नहीं 'जैसा कोई ना कर सके वैसाÓ करना। (पिता जी) वेद जी ने अपने जीवन में वैसा ही घोष का काम खड़ा करके दिखाया भी।
आज बहुत से कार्यकर्ता परिस्थिति की अनुकूलता या प्रतिकूलता की बात कर हतोत्साहित होते हैं तो पिताजी की ये बात याद आती है कि हमने संघ का काम करते हुए कभी परिस्थिति का विचार ही नहीं किया और लंबे समय तक वैसे भी शासन सत्ता का सहयोग मिलने का सवाल ही नहीं था और परिस्थितियां सदैव प्रतिकूल ही रहीं। फिर चाहे वह गांधी जी की हत्या के बाद संघ पर प्रतिबंध का समय हो या फिर अपातकाल का दौर हो या फिर राममंदिर आंदोलन की बात हो. इसलिए मेरा भी यह ही मानना है की संघ के स्वयंसेवक को संघ कार्य करते समय कभी परिस्थिति का विचार न करते हुए निष्ठा और समर्पण भाव के साथ संघ कार्य करना चाहिए.यूं तो उनके बारे में लिखने के लिए शब्दों की कमी भी नहीं है और न ही संस्मरण कम हैं फिलहाल मैं बस इसी छोटे से आलेख के साथ उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करता हूं।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)