संयुक्त राष्ट्र: निर्धनता ओर युद्धों की चुनौती

संयुक्त राष्ट्र: निर्धनता ओर युद्धों की चुनौती
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प्रो. कन्हैया त्रिपाठी

संयुक्त राष्ट्र महासभा शुरू हो चुकी है। विश्व के अग्रगण्य नेतृत्व की यह महासभा नहीं है अपितु जो देश संयुक्त राष्ट्र के सदस्य हैं, वे सब इसमें शामिल हो रहे हैं। महासभा के अध्यक्ष डेनिस फ्रांसिस ने विगत वर्ष के महासभा अध्यक्ष चबा कोरोसी की भांति यह दुहराया कि हम सभी चाहते हैं कि ये युद्ध बन्द हो। ये उस सबका असम्मान है, जिसके लिए संयुक्त राष्ट्र और यूएन चार्टर वजूद में हैं। विगत वर्ष चबा कोरोसी द्वारा की गई चिंता के एक वर्ष बाद डेनिस पुन: जब एक बार अपील कर रहे हैं तो विश्व के युद्धरत देशों को शर्म आनी चाहिए। ऐसा नहीं है कि उन देशों ने पिछली बार सुना ही नहीं था और इस बार उनसे फिर से कहना पड़ रहा है अपितु देखा जाए तो वे सब जानबूझकर इस संक्रमण काल को बनाये रखना चाहते हैं, यही सच है।

यूएन महासभा के 78वें सत्र के अध्यक्ष डेनिस फ्रांसिस त्रिनिदाद और टोबेगो के राजदूत अनुभवजन्य बातों को ज्यादा तरजीह देते हैं। उन्हें विश्व की गरीबी और निर्धनता बिलकुल रास नहीं आ रही है। वह गरीबी मुक्त विश्व चाहते हैं इसलिए महासभा में डेनिस ने साफ साफ कहा कि करोड़ों लोगों को निर्धनता के गर्त में धकेल देने का भी जोखिम से उत्पन्न संकट को नहीं समझा गया तो विश्व में दूसरे तरीके के संकट हो सकते हैं। गरीबी ने असंतोष उत्पन्न कर रखा है। संवाद और बहुपक्षीय राजनय के ज़रिए समस्या-समाधान में, वैश्विक मंच के रूप में, महासभा की भूमिका को रेखांकित करते हुए डेनिस ने कोविड-19 महामारी फैलने के बाद की इस वर्ष की मौजूदगी में निदान के लिए आह्वान किया। इस वर्ष हमारी अनिवार्यता स्पष्ट है- देशों को एकजुट करना, एक साझा मक़सद के लिए समर्पण में एकजुट होना और साझा कार्रवाई के लिए एकजुट होना ही हमारी प्राथमिकता में शामिल नहीं हुआ तो युद्ध और क्लाइमेट चेंज की समस्या के साथ गरीबी के लिए भी हम लोग ही जिम्मेदार होंगे।

दरअसल, विश्व माने या न माने संकट के बादल चहुओर से मंडरा रहे हैं। अनेक दशकों की कठिनाई के साथ हासिल किए गए विकास लाभों को पलट रही हैं हमारी महत्वाकांक्षाएं और इसी वजह से करोड़ों लोगों को पीढ़ियों तक चलने वाली निर्धनता और मुश्किलों में धकेल रही हैं। अफ्रीकी देश हों या दूसरे अति गरीब देश उनकी हालत बहुत खस्ता है। भोजन और गरिमा ही नहीं मयस्सर है तो कैसा जीवन? यह बात डेनिस फ्रांसिस को बहुत सता रही है।

डेनिस फ्रांसिस ने सारी मानवता से इसीलिए यह अपील की कल पर हम न छोड़ें। बदलाव के लिए जान फूंकने वाले एक प्रभावशाली मंच के रूप में, यूएन महासभा का पूर्ण सदुपयोग करें और हम सुनें और सीखें। आइए, हम विश्वास का पुनर्निर्माण करें और वैश्विक एकजुटता में फिर से जान फूंकें। आइए, हमारे सामने पेश चुनौतियों का सामना करने के लिए, एक साझी धरातल का तलाश करें।

इस महासभा में सम्प्रभुता के लगातार जारी हनन के मद्देनज़र कई देश अपने-अपने अनुसार अपनी राग और अपनी डफली बजाने वाले हैं। यूके्रन में युद्ध और वैश्विक शरणार्थियों की समस्याओं से मुख मोडती सभ्यता का अंत बहुत करीब है। अच्छा हो कि संयुक्त राष्ट्र के चार्टर में सच्चे मन से विश्वास करने वाले राष्ट्र अपने हितों की सुनने की जगह अपनी आत्मा की सुनें। आत्मा कभी भी किसी को युद्ध के लिए नहीं उकसाती न ही यह सब करने की इजाजत देती है। अपनी सम्प्रभुता की लड़ाई में फंसे देश नागरिकों का सत्यानाश कर रहे हैं और मानवाधिकारों का भरपूर उल्लंघन कर रहे हैं।

महासभा के प्रथम संबोधन में महासभा अध्यक्ष अगर यह कहें कि घातक और भयावह युद्ध ने देश में भी भीषण तबाही मचाई है, जिसके प्रभाव दुनिया भर में देखने को मिले हैं। खाद्य सुरक्षा और ऊर्जा क़ीमतें प्रभावित हुई हैं, और यहाँ तक कि परमाणु युद्ध का, अकल्पनीय जोखिम भी बढ़ा दिया है, तो यह उनकी चिंता है। विश्वव्यापी नागरिक समाज की चिंता। विश्वव्यापी प्रकृति की चिंता भी इसमें शामिल है क्योंकि जितनी तरीके के हथियार प्रयोग में देश लाते हैं तो उसका असर प्रकृति पर पड़ता है, इससे कोई इनकार नहीं कर सकता। जनजीवन तो तबाह होते ही हैं।

संयुक्त राष्ट्र महासभा की 78वीं जनरल डिबेट से हासिल चाहे जो हो लेकिन डेनिस फ्रांसिस ने यह साबित किया है कि हमें बुनियादी बातों को भूलना नहीं चाहिए। हमें अपनी बात बेबाक तरीके से कहने में संकोच नहीं करना चाहिए। यदि वे ऐसा न करते तो शायद उन पर आने वाली पीढ़ी अपना रोष व्यक्त करती। लेकिन प्रगति को उलट देने का जोखिम उत्पन्न करने वाले अनेक संकटों को देखते हुए, वैश्विक एकता और एकजुटता की सख़्त ज़रूरत है, यह बात जब डेनिस फ्रांसिस ने की तो यह उन्होंने साबित किया है कि अभी भी संवेदनशील लोग हैं इस धरती पर और वे समय-समय पर अपनी आवाज़ बुलंद करके दुनिया को बचाने की पुकार लगाते रहेंगे।

78वीं महासभा के शानदार प्रतिभागिता में 193 देश बोलेंगे। अपनी बात साझा करेंगे लेकिन प्रमुखता से जिन्हें पूरी दुनिया सुनकर किसी निर्णायक स्थिति का आंकलन करती है वे कुछेक देश के राष्ट्राध्यक्ष होते हैं। यद्यपि संयुक्त राष्ट्र में जितने भी सदस्य देश हैं सभी बतौर राज्य समान सम्मान रखते हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति बाइडन की ओर से एक वक्तव्य दिया गया कि हमारे इतिहास को, हमारा भविष्य निर्धारण करने की ज़रूरत नहीं होनी चाहिए। सहकारी नेतृत्व के साथ, विरोधी जन भी साझीदार बन सकते हैं और व्यापक चुनौतियों के भी समाधान निकल सकते हैं, और गहरे घाव भी भर सकते हैं। यदि इसकी व्याख्याकार व्याख्या करेंगे तो इसके कई मायने निकलेंगे। यदि बाइडन सही कह रहे हैं तो सवाल यह है कि डेनिस फ्रांसिस के वक्तव्यों का क्या क्योंकि दोनों की बातों में विरोधाभास है। किसी साझी रणनीति की ओर बढ़ने का संकेत तो कतई नहीं है।

जो भी हो स्थितियाँ वैश्विक एकीकीकरण की ओर बढ़ती हुई नजर नहीं आ रही हैं जबकि डेनिस फ्रांसिस ने जो आग्रह किया है उसके असर प्रतिभागी राष्ट्रों के बयानों में आने चाहिए। कुछ ऐसा दिखना चाहिए कि सभी राष्ट्र डेनिस फ्रांसिस का सम्मान कर रहे हैं। सभी राष्ट्र एकमत हो रहे हैं। सबके बहुपक्षीय सहयोग से वैश्विक चुनौतियां मात खा जाएंगी। एसडीजी-2030 लक्ष्य हो या हमारे साझे परिवर्तनकारी पहल दोनों को एकीकृत करके यदि संयुक्त राष्ट्र सदस्य देश आगे नहीं बढ़े तो यह महासभा हर बार की तरह एक रश्म साबित होकर रहेगी। संयुक्त राष्ट्र की महासभा के अध्यक्ष को आज़ विश्वास देने की ज़रूरत है कि सभी राष्ट्र उनके विजन संकल्प के साथ हैं और किसी भी समस्या से निपटने के लिए प्रतिबद्ध हैं।

(लेखक पंजाब केंद्रीय विश्वविद्यालय में चेयर प्रोफेसर और अहिंसा आयोग के पैरोकार हैं)

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