उत्तराखंड : मजबूत राष्ट्र की शुरुआत

उत्तराखंड : मजबूत राष्ट्र की शुरुआत
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अमित त्यागी

किसी भी राष्ट्र की समग्र मजबूती के लिए उसके सभी नागरिकों के लिए समान अधिकार, समान नियम होने चाहिए। जब तक जम्मू, कश्मीर और लद्दाख में 370, 35ए नहीं हटी थी तब तक भारत के अन्य प्रदेशों में मिलने वाले नागरिक अधिकार जम्मू कश्मीर भूभाग के लोगों को नहीं मिलते थे। जैसे ही 370, 35 ए का कलंक जम्मू कश्मीर और लद्दाख भूभाग से हटा, वहाँ के लोगों को भारतीय संविधान प्रदत्त संवैधानिक अधिकारों के मिलने की शुरुआत हो गयी। 370 पर देश में काफी हो हल्ला किया जाता था। ऐसा दिखाया जाता था कि 370 के बाद जम्मू कश्मीर के लोगों का जीवन ही खत्म हो जाएगा। यह सब नैरेटिव वहाँ के स्थानीय दलों के नेताओं का बनाया हुआ था जिसे केंद्र से संरक्षण मिल जाता था। चूंकि, 370 हटने के पहले केंद्र से आवंटित धन की जांच केन्द्रीय एजेंसी जम्मू कश्मीर में नहीं कर सकती थीं इसलिए इसकी आड़ में धन की बंदरबांट का एक बड़ा खेल चलता था। समान नागरिक संहिता के साथ भी ऐसा ही कुछ मिथ्या नैरेटिव विपक्षी दलों द्वारा बनाया जाता रहा है कि यह धार्मिक गतिविधियों में हस्तक्षेप है, जबकि न्यायालय कई बार इसके लिए सरकार को निर्देशित कर चुका है।

1981 में उच्चतम न्यायालय में दायर शाहबानों वाद का फैसला कांग्रेसी प्रधानमंत्री राजीव गांधी जी के समय में आया था। इस फैसले में न्यायालय का कहना था कि इस वाद में हालांकि संवैधानिक महत्व का कोई प्रश्न नहीं जुड़ा है किन्तु सामान्य नागरिक एवं आपराधिक कानून के तहत कुछ प्रश्न ऐसे पैदा होते हैं जिनका समाज के उस बड़े वर्ग पर जो परंपरागत रूप से अन्यायपूर्ण व्यवहार से पीड़ित हैं, दूरगामी महत्व होता है। महिलाएं भी एक ऐसा ही वर्ग हैं। इसी फैसले में आगे खंडपीठ का कहना था कि हमारे संविधान का अनुच्छेद 44 मृत प्राय: हो गया है। यह प्रावधान कहता है कि राज्य(स्टेट) भारत के समूचे क्षेत्र के नागरिकों के हेतु एक समान नागरिक संहिता बनाने को प्रोत्साहन देगा । इतना ही नहीं 1995 में 'सरला मुदगल वादÓ में सर्वोच्च न्यायालय ने तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंह राव को निर्देशित किया था कि वह अनु0-44 पर एक बार नये दृष्टिकोण से विचार करें। उच्चतम न्यायालय ने समान नागरिक संहिता को देश की एकता और अखंडता के लिये आवश्यक बताते हुये सरकार से कहा था कि आप न्यायालय को बतायें कि सरकार ने इस तरफ कौन कौन से कदम उठाए हैं। उस समय तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंह राव इतनी इच्छाशक्ति नहीं जुटा सकें कि राष्ट्रहित में उच्चतम न्यायालय के निर्देश पर फैसला कर सकें। तीन तलाक के समय जब न्यायालय ने तीन तलाक पर सरकार से दृष्टिकोण मांगा तो मोदी सरकार का निर्णय मुस्लिम महिलाओं के हित में रहा। उसी समय यह बात स्पष्ट हो गयी थी कि समान नागरिक संहिता का विषय भी एक दिन पूरा होकर रहेगा।

भारत में किसी राज्य में समान नागरिक संहिता की शुरुआत अब होने जा रही है जबकि पाकिस्तान, अमेरिका, बांग्लादेश, आयरलैंड, मलेशिया, तुर्की, सूडान, इन्डोनेशिया जैसे देशों में यह पहले से लागू है। उत्तराखंड की भाजपा शासित धामी सरकार यूसीसी पर बनी कमेटी की रिपोर्ट पर अधिवेशन लाने जा रही है। धामी को मोदी का करीबी माना जाता है और सिल्कयारा सुरंग हादसे में जिस तरह की संवेदनशीलता का उन्होंने परिचय दिया उसके बाद देश में उनकी लोकप्रियता बढ़ी है। यूसीसी के बाद वह देश में और लोकप्रिय हो जाएँगे। संवैधानिक दृष्टि से देखें तो भारत के संविधान का अनु0-14 जीवन जीने का अधिकार देता है तो अनु0-15 धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं करता। अनु0-21 जीवन जीने का अधिकार देता है तो अनु0-25 हर नागरिक को धार्मिक स्वतन्त्रता देता है इसलिए समान नागरिक संहिता से किसी भी धर्म के व्यक्ति की धार्मिक भावनाओं के आहत होने का प्रश्न ही ख़ारिज़ हो जाता है। मुस्लिम महिला को भारतीय संविधान दोयम दर्जे का नहीं मानता। एक बात तो तय है कि धर्म के ठेकेदार अपनी दुकान चलाने के लिए इसका विकृत स्वरूप प्रदर्शित करते रहे हैं और शायद आगे भी करेंगे। धर्म के अंदर आडंबर और कुप्रथाओं का चलन बेहद पुराना है। हिन्दू धर्म के अंदर भी कई कुप्रथाएँ रीति रिवाजों के वेष में पनप चुकी थी। सती प्रथा, बाल विवाह, बहु विवाह जैसी प्रथाएँ समाज में विघटन पैदा करने वालीं थीं। सती को रोकने के लिए भारतीय दंड संहिता की धारा 306 (आत्महत्या के लिये उकसाने का दुष्प्रेरण) के अंतर्गत रखा गया। 1958 में राजस्थान उच्च न्यायालय ने तेजसिंह वाद में सती के लिये उकसाने वाले को पाँच साल के कठोर कारावास की सज़ा देने का प्रावधान किया। सरकार ने सती(निरोधक) कानून,1987 बनाकर इस पर पूरी तरह से रोक लगा दी।

इसी तरह हिन्दू धर्म में बाल विवाह और बहुविवाह प्रचलन में थे। 1956 में फ़ैमिली एक्ट के अंतर्गत आधा दर्जन कानून भारत की संवैधानिक व्यवस्था ने पारित किये और इन दोनों कुप्रथाओं पर रोक लगा दी। आज न तो 18 साल से कम उम्र की लड़कियों की शादी की प्रथा रह गयी है और न ही एक पत्नी के जीवित रहते दूसरे से शादी की। इन कुप्रथाओं का अंत हिन्दू धर्म से जुड़े पंडित, पुजारियों या धर्म के ठेकेदारों ने नहीं किया, बल्कि भारतीय संविधान के अंतर्गत बने कानूनों ने किया। कुछ समय के लिये ठेकेदारों के छदम स्वाभिमान को ठेस तो पहुंची किन्तु जनता ने इसे खुले दिल से स्वीकारा। कानून और समाज एक दूसरे के पूरक हैं। पहले कानून समाज में सुधार करता है और फिर परिपक्व समाज आवश्यकतानुसार कानून में सुधार करता है। समय के साथ यही लचीलापन व्यक्ति की धार्मिक स्वतंत्रता है। यही भारत है। यही भारतीय संस्कृति है।

( विधि एवं प्रबंधन में परास्नातक लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)

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