डॉॅ. वेद प्रताप वैदिक का जीवन भाषा यज्ञ था

डॉॅ. वेद प्रताप वैदिक का जीवन भाषा यज्ञ था
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अनिल जोशी, उपाध्यक्ष, केंद्रीय हिंदी संस्थान

डॉॅ वेद प्रताप वैदिक का जीवन भाषा का महान अनुष्ठान था। भाषा के महत्व को लेकर उनके पारिवारिक संस्कार बहुत सुदृढ़ थे। उनके पिता जगदीश प्रसाद आर्य समाज के विद्वान, प्रखर सामाजिक कार्यकर्ता और भाषा सेवी थे। यह केवल संयोग नहीं है कि वैदिक जी ग्यारह वर्ष की आयु में ही भाषा के लिए आंदोलन करते हुए जेल में गए। 60 के दशक में उनका जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में प्रवेश हुआ। वे न केवल मेधावी थे, बल्कि बहुभाषी विद्वान थे। हिंदी, अंग्रेज़ी, फ़ारसी, स्पेनिश पर उनका अधिकार था।

(लेखक अनिल जोशी केन्द्रीय हिन्दी संस्थान के उपाध्यक्ष हैं)

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में उन्हें हिंदी में शोध पत्र देने की इजाज़त नहीं मिली। उन्होंने इस आग्रह को अभियान और फिर आंदोलन में बदल दिया। संसद कई दिन ठप रही। यह समय था जब देश में राम मनोहर लोहिया हिंदी के लिए एक प्रखर आंदोलन का नेतृत्व कर रहे थे। ऐसे समय में देश के प्रमुख नेताओं और सांसदों ने उनके पक्ष में आवाज़ उठायी और वह युवा विद्यार्थी देश के भाषाई पटल पर एक सितारा बनकर उभरा। उनमें मेधा थी, विद्वता थी, भाषाओं पर गहरा अधिकार था। आर्य समाज से प्राप्त दृढ़ता थी। लोहिया के आंदोलन से मिली आग थी। अंतरराष्ट्रीय संबंधों के विशेषज्ञ के रूप में उनका विकास होने लगा था और इसी संदर्भ में वे एक पत्रकार बनकर उभरे। इसी के साथ एक भाषाविद् और पत्रकार के रूप में उन्होंने राष्ट्रीय पहचान प्राप्त की। वे लंबे समय तक भाषा एजेंसी के संपादक रहे। वे प्रारंभ से ही समाजवाद के प्रति आकर्षित थे इसलिए उनके सहज मित्रों में मुलायम सिंह यादव, जनेश्वर मिश्र आदि लोग थे परंतु आर्य समाज, राष्ट्रीयता और हिंदुत्व के प्रति गहरी आस्था के कारण वे अटल बिहारी बाजपेयी, भैरोसिंह शेखावत जैसे लोगों के निकट भी थे परंतु उनकी मित्रता का विस्तार कांग्रेस में भी था। श्री बाल कवि बैरागी, रत्नाकर पांडे आदि उनके गहरे मित्र थे। यह मित्रता का दायरा सांसदों की भाषा के प्रति निष्ठा से भी संदर्भित था।

मैं जब उनसे मिला उस समय संघ लोक सेवा आयोग के द्वार पर विश्व का सबसे लंबा कहा जाने वाला धरना चल रहा था। संयोग यह था कि मैं पास में ही नौकरी पर था और उस आंदोलन के संयोजकों में था। पुष्पेंद्र चौहान और राज करण सिंह के नेतृत्व में युवाओं की एक टीम के जीवन को ताक पर रखकर इस आंदोलन को चला रहे थी। पुष्पेंद्र और राजकरण जैसे साथियों के पास संसाधन भले ही न हों पर भाषायी परिवेश को बदलने का जज़्बा और उसके लिए कुछ भी करने की हिमत थी।

इधर उन्हीं दिनों एक महत्वपूर्ण नाम श्याम रुद्र पाठक का उभरा जो गांधीवादी तरीक़े से आई आई टी, दिल्ली में हिंदी में शोध स्वीकार किए जाने का आग्रह कर रहे थे और इसके चलते वे शास्त्री भवन में आमरण अनशन पर बैठ गए। इन दोनों आंदोलनों से उनका और मेरा दोनों का जुड़ाव था। इसी के चलते उनके निकट आकर काम करने का अवसर मिला और उसकी भाषाई सोच और पत्रकारिता की दृष्टि को जानने का मौक़ा मिला। अपनी भाषायी प्रतिबद्धता और व्यापक संदर्भों के चलते 11-13 अगस्त, 1990 को उन्होंने इंदौर में हिंदी का महासमेलन आयोजित किया। इसकी बहुत चर्चा नहीं होती है। यह हिंदी के लिए उनका विराट प्रयास था। इसमें कई केंद्रीय मंत्रियों व चार राज्यों के मुयमंत्रियों ने भाग लिया। इस समेलन में मुझे भी एक सत्र में बोलने का मौक़ा मिला था जिसकी अध्यक्षता तत्कालीन केंद्रीय मंत्री जॉर्ज फर्नांडीस कर रहे थे। उस कार्यक्रम में मुझे मुलायम सिंह यादव, सुंदरलाल पटवा, भैरों सिंह शेखावत जैसे व्यतित्वों को सुनने का मौक़ा मिला था। ऐसा लग रहा था मानो हिंदी को विभिन्न क्षेत्रों में लागू करने की रणनीति बन गई है और वैदिक जी और उनके पिता जगदीश प्रसाद जी के प्रयासों से उसको अमली जामा पहनाया जाना शेष है। परंतु जल्द ही राजनीतिक परिस्थितियों में बड़ा परिवर्तन आ गया और वैदिक जी की वह मुहिम आगे न बढ़ सकी।

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